Ayash-Part(29) books and stories free download online pdf in Hindi

अय्याश--भाग(२९)

रामप्यारी और सत्यकाम घर से निकल पड़े अपने प्रियजनों से मिलने,सत्या का तो पता नहीं लेकिन रामप्यारी अपने बेटे वीरप्रताप को देखने के लिए उतावली हुई जाती थी और उसे देवनन्दिनी से मिलने की भी बहुत इच्छा थी क्योंकि उसके बेटे को तो उसी ने ही तो पालपोसकर बड़ा किया होगा,इतने सालों बाद वो उस हवेली में वापस जा रही थी,उस नर्क में जिसने उसे केवल दुःख ही दिए थे,लेकिन उस हवेली का दूसरा और सकारात्मक पहलू भी वो देख रही थीं जहाँ उसे उसका प्यार माधव मिला था और उसी के प्यार की निशानी ही तो उसका बेटा वीरप्रताप अब उस हवेली में रह रहा होगा,ना जाने अब कैसा दिखता होगा? यही सब सोच सोचकर रामप्यारी मन ही मन में फूली नहीं समा रही थी,फिर उसने सोचा अगर जमींदार ने उसे हवेली के भीतर ही घुसने नहीं दिया तो ....तो फिर वो उसके पैरों तले गिर कर माँफी माँगते हुए कहेगी कि बस एक बार वो अपने बेटे की सूरत देखकर यहाँ से चली जाएगी.....
इन्हीं विचारों में ध्यानमग्न होकर शाम तक दोनों की यात्रा पूरी हो गई और वें उस गाँव में पहुँच गए जहाँ रामप्यारी का सर्वस्व था,राधानगर पहुँचकर वहाँ पर रामप्यारी को सब कुछ बदला हुआ सा नज़र आया,वो सत्यकाम के साथ हवेली भी पहुँच गई,लेकिन वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि हवेली बिल्कुल वीरान पड़ी है और वहाँ अब कोई भी नहीं रहता,पता करने पर लोगों ने बताया कि जमींदार अष्टबाहु तो अब इस दुनिया में नहीं रहे,उनके परिवार के सब सदस्य भी एक एक करके इस दुनिया से जा चुके हैं,उनके परिवार में केवल दो लोंग ही शेष रह गए हैं पहली उनकी पत्नी देवनन्दिनी और उनका बेटा वीरप्रताप,अष्टबाहु की अय्याशियों के चलते ये हवेली और उनकी जमींन तो कब की नीलाम हो चुकी है,अब इस हवेली और उनकी जमींन की हकदार अंग्रेजी सरकार है,सब कुछ उन्हीं के आधीन है।।
तब रामप्यारी ने किसी से पूछा......
तो देवनन्दिनी और उसका बेटा क्या अब गाँव में नहीं रहते?
तब वो व्यक्ति बोला.....
नहीं! माई! वो इसी गाँव में रहते हैं,जमींदार साहब का बेटा बहुत ही मेहनती है,उसने अपनी मेहनत से थोड़ी सी जमीन खरीदी और उसी पर खेतीबाड़ी करके अपनी माँ और अपना पेट पालता है,दोनों उसी खेत में एक झोपड़ी में रहते हैं,दोनों बहुत ही भले हैं.....
तो क्या आप हमें वहाँ का पता दे सकते हैं? सत्यकाम उस व्यक्ति से बोला।।
चलिए मैं आप दोनों को वहाँ तक पहुँचा देता हूँ,वो व्यक्ति बोला।।
और फिर दोनों उस व्यक्ति के संग वीरप्रताप के खेंत की ओर चल पड़े,कुछ ही देर में दोनों वहाँ पहुँच चुके थे,तब तक अँधेरा भी कुछ गहरा सा गया था....
खेत के पास पहुँचकर वो व्यक्ति बोला....
वो रही उन दोनों की झोपड़ी,आप दोनों उनसे मिलिए,अब मैं चलता हूँ....
सत्यकाम ने आभार प्रकट करते हुए उस व्यक्ति को विदा दी और दोनों झोपड़ी को ओर चल पड़े,चारों तरफ गेहूंँ बोया हुआ था,बीच में कुछ साग-सब्जियांँ भी लगीं थीं,खेत पर एक कुआँ था जहाँ एक छप्पर के नीचें दो बैल और एक बैलगाड़ी खड़ी थीं,कुटिया से हलकी हल्की रौशनी आ रही थी और साथ साथ झोपडी़ से धुँआ निकल रहा था ऐसा लग रहा था कि चूल्हा जल चुका है और रात के खाने की तैयारी हो रही है.....
दोनों झोपड़ी की ओर बढ़े चले जा रहे थे और ज्यों ज्यों रामप्यारी झोपड़ी के नजदीक पहुँचती जा रही थी तो उसकी रफ्तार धीमी पड़ती जा रही थीं,भय और प्रसन्नता दोनों ही कारण उसके मस्तिष्क और मन को घेरे हुए थे अन्ततः दोनों झोपड़ी के पास पहुँचे और सत्यकाम ने कहा....
माई! पुकारो! भीतर वालों को।।
ना बचुआ ना! मन ना जाने कैसा सा हुआ जाता है,रामप्यारी बोली।।
कैसी बातें करती हो माईं? तुम तो सालों से इस समय की बाट जोह रही थीं,लो आज तुम्हारी प्रतीक्षा खतम हुई,सत्यकाम बोला।।
लेकिन कैसें कहूँ? क्या बोलूँ! कछु समझ में नही आता,रामप्यारी बोली।
दोनों झोपड़ी के बाहर बातें कर ही रहे थे कि तभी झोपड़ी के भीतर से आवाज़ आईं...
कौन है बाहर!
तब रामप्यारी बोली....
ये तो देवनन्दिनी की आवाज़ हैं.....
तो जवाब दो ना माई! सत्यकाम बोला।।
मैं....मैं....कैसें? रामप्यारी फिर से फुसफुसाई.....
जब किसी ने उत्तर ना दिया तो देवनन्दिनी लालटेन लेकर बाहर आ गई और बोली.....
कौन है? जवाब काहें नहीं देते।।
मैं...मैं....हूँ,रामप्यारी बोली।।
कौन मैं? और फिर देवनन्दिनी ने लालटेन रामप्यारी के चेहरे के पास ले जाकर पूछा.....
और फिर रामप्यारी को देखते ही खुशी के मारे बोल पड़ी.....
रामप्यारी....तू.....आजा....आजा...पहले भीतर आ,तुझे तेरे लाल से मिलवाती हूँ....
और फिर देवनन्दिनी रामप्यारी का हाथ पकड़कर भीतर ले गई और वीरप्रताप से बोली.....
ले..वीर बेटा! तेरी माँ आ गई,तू मुझसे पूछा करता था ना कि तेरी माँ कैसी दिखती है? देख ले जीभर के यही है तेरी माँ!
मेरी माँ.....ये है मेरी माँ....,वीरप्रताप ने खुश होकर पूछा।।
हाँ! यही है तेरी असली माँ,देवनन्दिनी बोली।।
तब वीर ने फौरन ही रामप्यारी के चरण स्पर्श किए और रामप्यारी ने उसे अपने सीने से लगा लिया,फिर रामप्यारी देवनन्दिनी के भी गले मिली और खुशी के मारे रो पड़ी....
तो ये है माई! तुम्हारा बेटा! पीछे खड़े सत्यकाम ने पूछा।।
जी! आप कौन हैं? वीरप्रताप ने पूछा।।
जी! मैं तो एक मुसाफिर हूँ,तुम्हारी माँ को तुम तक पहुँचाने आया था,सत्यकाम बोला।।
आओ...बेटा...आओ..बैठो,देवनन्दिनी ने सत्यकाम से कहा....
और फिर सत्यकाम वहीं पड़ी चारपाई पर बैठ गया,फिर देवनन्दिनी बोली.....
चलो!पहले कुएँ के पास चलकर दोनों हाथ मुँह धो लो,फिर आराम से बैठकर बातें होगीं,देवनन्दिनी की बात सुनकर दोनों कुएंँ से हाथ मुँह धो आएंँ,देवनन्दिनी वहीं बैठकर चूल्हे में खाना बनाने लगी और साथ साथ सबसे बातें भी करती जाती,खाना बन जाने के बाद सबने तसल्ली से खाना खाया और आधी रात तक बातें करते रहें,सत्यकाम को भी अच्छा लग रहा था कि चलों वर्षों से बिछड़े हुए माँ बेटे मिल गए....
सुबह हुई तो सत्यकाम ने देखा कि माई के चेहरें पर एक अलग ही खुशी की झलक थी,जो इतने दिन उनके साथ रहकर उसने आज तक ना देखी थी,फिर वो माई से बोला.....
माई! अब मेरा काम पूरा गया है तो मैं अब चलूँ।।
ना बचुआ! इतनी जल्दी नहीं,मुझे मालूम है कि तुझे भी अपनी माँ से मिलने की बहुत जल्दी हो रही होगी लेकिन केवल आज के दिन और हम सबके साथ गुजार लो,कल ना रोकूँगी तुझे यहाँ से जाने से,तेरी वजह से ही तो मुझे मेरे जीवन की इतनी बड़ी खुशी नसीब हुई है,थोड़ी देर और मेरी खुशियों के संग तू भी बिता लें,रामप्यारी बोली।।
ठीक है माई! तो आज मैं और रूक जाता हूँ,अभी तुम्हारे बेटे से भी बहुत सी बातें करनी बाक़ी हैं,सत्यकाम बोला।।
हाँ! भाई! आज आप रूकेगें तो हम सबको बहुत अच्छा लगेगा,पीछे से आते हुए वीरप्रताप बोला।।
हाँ! तो चलो फिर अपने खेतों की सैर कराओ,सत्यकाम बोला।।
ठीक है! भाई! तो चलो,वीरप्रताप बोला।।
उधर देवनन्दिनी भी पहुँच गई और दोनों सखियाँ अपनी अपनी बातों में फिर से ब्यस्त हो गईं.....
तब रामप्यारी ने देवनन्दिनी से कहा.....
एक बात पूछूँ,बहना! बताओगी।।
हाँ! पूछो! रामप्यारी! इतना संकोच काहे का! देवनन्दिनी बोली।।
वीरप्रताप के ब्याह के बारें में कुछ नहीं सोचा,रामप्यारी बोली।।
ब्याह.....हा....हा.....हा....हा.....ये कहकर नन्दिनी हँसने लगी।।
बहन! मैनें क्या कुछ गलत कहा? तुम हँसती काहे हो,रामप्यारी कुछ झेफतें हुए बोली।।
रामप्यारी! वीरप्रताप का ब्याह दो साल पहले ही हो चुका है,इस साल आषाढ़ मास में गौना करवाने का सोंच रही थीं,बहु एकदम लक्ष्मी है.....लक्ष्मी है,पिछले साल सोलह पूरे किए थे,मुझे उसकी उम्र कुछ कच्ची सी लगीं तो सोचा,बहु का बदन थोड़ा भर जाएं तो गौना करवाऊँगी,हम दोनों जैसा हाल अब किसी लड़की का क्यों होने दूँ भला! देवनन्दिनी बोली।।
लड़की वालों को तो मेरे बारें में कुछ पता ना होगा,रामप्यारी बोली।।
चिन्ता मत करो,मैनें सब बता दिया है मैनें लड़कीवालों से कहा कि मैं वीरप्रताप की जसोदा माँ हूँ इसकी देवकी मैया तो ना जाने कहाँ बनबास काट रही है,देवनन्दिनी बोली।।
सच! बहन! रामप्यारी ने अचरज से पूछा।।
हाँ! बहुत धोखे खा चुकी हूँ बहन! इसलिए किसी और को धोखा देने के बारें में नहीं सोच सकती,देवनन्दिनी बोली।।
आज मैं सच मैं बहुत खुश हूँ,रामप्यारी बोली।।
अब हम दोनों की ये खुशी हमसे कोई नहीं छीन सकता,देवनन्दिनी बोली।।
हाँ! बहन! अब हम दोनों सदैव ऐसे ही साथ रहेगीं अपने बेटे बहु के साथ,रामप्यारी बोली।।
और फिर दोनों गलें लग गई,तब तक सत्यकाम और वीरप्रताप भी खेत देखकर लौट आएं थे,दोनों को ऐसे गले लगें देखकर सत्यकाम बोला....
लगता है माईं! अभी तुम दोनों का भरत-मिलाप खतम नहीं हुआ।।
हाँ! बचुआ! सालों बाद मिलीं हैं हम दोनों तो तनिक बखत लगेगा,रामप्यारी बोली।।
चलो! हम दोनों तो स्नान करके भी आ गए और यहाँ भोजन का कुछ अता-पता ही नहीं है,वीरप्रताप बोला।।
बस! अभी तैयार हुआ जाता है भोजन,देवनन्दिनी बोली।।
अरे! मैं तो मज़ाक कर रहा था,माँ! वीरप्रताप बोला।।
और फिर सब हँसने लगें.....और ये हँसी के ठहाकें यूँ ही दिनभर गूँजते रहे,दूसरे दिन फिर सत्यकाम ने सबसे विदा लेकर अपने ननिहाल का रास्ता पकड़ लिया....
वो अपने ननिहाल पहुँचा ही था कि गाँव के लोंग उसे देखकर खुसर-फुसर करने लगें,कहने लगें कि देखो तो अय्याश आ गया,लगता किसी कोठे पर ठिकाना नहीं मिला इसलिए मामा के दरवाजे पर फिर से नाक रगड़ने आ पहुँचा,इतने कुकर्म करने के बावजूद भी चेहरे पर लज्जा के चिन्ह् नज़र नहीं आते कितना निर्लज्ज इन्सान है......
दूसरा बोला,ऐसे लोगों का कोई ठौर ठिकाना नहीं होता भाई!इधर मामा का नाम तो मिट्टी में मिला ही दिया है और शायद इसके कुकर्मों ने ही तो इसके मामा की जान ले ली....
ये सुनते ही सत्यकाम का मन बेचैन हो उठा और वो अपने मन में बोला....
इसका मतलब है कि बड़े मामा अब इस दुनिया में नहीं रहें,मैं ऐसा तो कतई नहीं चाहता था,मैं तो बस ये चाहता था कि वें सही को सही माने और गलत को गलत माने,ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें और फिर डरते सहमते हुए सत्यकाम ने अपने कदम घर के भीतर रखें और आवाज़ लगाई.....
कोई है.....कोई है घर में....
उसकी आवाज़ सुनकर भीतर से किसी ने पूछा.....
कौन है...? कौन आया है....और फिर वो शख्स बाहर आया और सत्यकाम को देखते ही उसके पैर ठिठक गए और वो एकटक सत्यकाम को निहारता रहा....वो श्रीधर था और एकाएक सत्यकाम को घर में देखकर आश्चर्यचकित था,श्रीधर की आँखों से दो बूँद आँसू भी टपक और उसने फौरन ही सत्यकाम को जाकर अपने सीने से लगा लिया और बोला......
कहाँ था तू इतने दिन,अब आया है......जब बाबूजी जी तेरी राह ताकते ताकते चले गए....
क्या मामाजी ने मुझे याद किया था?सत्या ने पूछा।।
हाँ! उन्होंने अपना आखिरी वक्त बहुत बुरा काटा,कमर के नीचें लकवाग्रस्त हो गए थे,दुर्दिन देखें हैं उन्होंने,माँ उनसे पहले ही इस दुनिया से चली गईं थीं,अपने आखिरी वक्त में यही कहते रहते थे कि मैनें सत्या को बहुत सताया था शायद इसलिए ईश्वर ने मेरे साथ ऐसा किया.......
क्या कहा? मामी जी भी भगवान के पास चलीं गईं हैं?सत्या बोला।।
हाँ! बहुत दिनों तक बीमार रहीं,बहुत दिखाया सुनाया लेकिन आराम नहीं लगा,आखिर ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला ही लिया, बाबूजी के जाने के बाद अब मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ....,श्रीधर बोला।।
और माँ कहाँ हैं? वें ठीक तो हैं ना! सत्या ने अपनी माँ वैजयन्ती के बारें में पूछा।।
वें भी बीमार हैं और सदैव तुमको याद किया करतीं हैं,श्रीधर बोला।।
क्या हुआ उन्हें? सत्या ने पूछा।।
तपेदिक ने घेर रखा है,उन्हें डाक्टर बाबू ने अलग रखने की सलाह दी है इसलिए ऊपर वाले कमरें में रहतीं हैं वें,श्रीधर बोला।।
मैं उनसे मिलना चाहता हूँ,सत्या ने कहा....
इतने दिनों बाद आएं हो,पहले स्नान करके कुछ खा पी लो,फिर मैं तुम्हें उनके पास ले जाऊँगा,श्रीधर बोला।।
फिर श्रीधर ने अपनी पत्नी कनकलता और अपने बेटे और बेटी से सत्या को मिलवाया,सत्या ने फौरन कनकलता के चरणस्पर्श कर लिए तो कनकलता बोली....
आय....हाय....देवर जी! पाप में मत डालों,कोई देख लेगा तो ना जाने क्या समझेगा.....
क्यों? आप मेरी भाभी हैं और भाभी माँ समान होती है इसलिए आपके पैर छूने में हर्ज कैसा?सत्या बोला।।
आपकी तरह सब नहीं सोचते ना देवर जी! कनकलता बोली।।
इसलिए तो ये सत्या है क्योंकि ये हम सबसे अलग सोचता है,श्रीधर बोला।।
और नालायक किशोर तू क्यों खड़ा है? तूने अभी तक अपने चाचा के पैर क्यों नहीं छुए,कनकलता ने अपने बेटे को डपटते हुए कहा....
अरे! भाभी! बच्चा है,मुझे पहचानता भी तो नहीं जो मेरे पैर छुएगा,सत्या बोला।।
और फिर किशोर ने अपने चाचा सत्या के पैर छुए और बेटी सुलभा ने नमस्ते की,सत्या ने दोनों बच्चों के सिर पर प्यार से हाथ फेर दिया,फिर सत्या ने स्नान किया और कनकलता ने उसे रसोईघर में भोजन खिलाते हुए बहुत सारी बातें की और ये भी बताया कि बुआ जी बहुत परेशान रहतीं हैं कहतीं हैं कि जाने से पहले एक बार सत्या की सूरत देख लूँ तो फिर परलोक जाने में कोई ग़म ना होगा,शायद सत्या को देखने के लिए ही अभी तक मेरे प्राण अटकें हैं....
ये सुनकर सत्या बहुत उदास हो गया,जैसे तैसे कनकलता का मन रखने के लिए उसने खाना निगला और बाहर श्रीधर के पास जाकर बोला.....
श्री! अब और सबर नहीं होता,माँ से मिलना चाहता हूँ।।
और फिर श्रीधर सत्या को वैजयन्ती के पास ले जाकर बोला....
बुआ! देखों तो कौन आया है?
और सत्या को देखते ही वैजयन्ती के कलेजे में ठंडक सी पड़ गई,सत्या अपनी माँ को गले लगाने के लिए आगें बढ़ने लगा तो श्रीधर ने उसे रोकते हुए कहा.....
सत्या! डाक्टर ने इनके नजदीक जाने को मना किया है।।
श्री! वो मेरी माँ है,उन्होंने मुझे जन्म दिया है भला वो मुझे अपना रोग क्यों देने लगीं? एक माँ कभी भी इतनी निर्दयी नहीं हो सकती मेरे भाई!,सत्या बोला।।
लेकिन सत्या फिर भी,एतिहात के लिए,श्रीधर बोला।।
ना! श्री! इतने सालों दूर रहा माँ से,अब तो माँ को कलेजे से लगाने दे भाई! सत्या बोला।।
फिर सत्या ना माना और अपनी माँ के गले लगकर खूब फूटफूटकर रोया कि जैसे कोई नन्हे से बच्चे की माँ खो गई थी जो अब मिली है,माँ बेटे की आँखों से काफी देर तक गंगा-जमुना बहतीं रहीं,उन आँसुओं में वर्षो के बिछोह की पीड़ा दुख और सारी तकलीफें सब बह गईं,उस दिन के बाद सत्या ने अपना बिस्तर अपनी माँ के कमरें में डलवा लिया,वो उसी कमरें में रहकर अपनी माँ की सेवा करने लगा,सत्या का मुँख देखने भर से दो ही दिन में वैजयन्ती के चेहरें पर खुशी दिखाई देने लगी,वो बहुत खुश थी सत्या के आने से और सत्या से कहती थी कि अब मौत आ जाएं तो कोई ग़म नहीं,अब मेरा बेटा मेरे पास है मेरी चिता को आग देने के लिए और फिर दो तीन दिन बाद एक रात भगवान ने वैजयन्ती की सुन ली और वैजयन्ती को सदा के लिए अपने दुखों से मुक्ति मिल गई,शायद वें सच में ही सत्या के आने की बाट जोह रहीं थीं.....
वैजयन्ती के तेहरवीं में सत्या के मँझले मामा नहीं आएं,सत्या की बड़ी बहन प्रयागी अपने पति उमासुत के साथ आई और छोटी बहन त्रिशला अपने पति प्रभुशंकर के साथ आईं,जब सत्या के बड़े जीजा उमासुत को पता चला कि ये वही बदनाम और अय्याश सत्यकाम है तो उसने सत्या से बात करना ही उचित नहीं लगा,लेकिन छोटे जीजा प्रभुशंकर और उसकी छोटी जीजी त्रिशला बहुत खुश थी उससे मिलकर,प्रयागी भी अपने भाई से बात करना चाहती थी लेकिन अपने पति का मुँह देखकर रह जाती.....
तेहरवीं खत्म हुई और सब मेहमान जाने को हुए तो जब प्रयागी और उसके पति उमासुत के जाने की बारी आई तो वें सबसे मिले लेकिन सत्या से बिना मिले और बिना बताएं ही चले गए.....
इधर त्रिशला और उसका पति प्रभुशंकर चाहते थे कि सत्या उनके घर पर रहें,त्रिशला बोली.....
सत्या! तुम हमारे साथ काशी चलो,वहीं तुम अपने जीजा जी का कारोबार में हाथ बँटा देना।।
सत्या ने पहले तो मना किया फिर जब छोटे जीजा जी ने भी आग्रह किया तो वों उनके आग्रह को टाल ना सका और उनके साथ जाने को राजी हो गया,ये सब देखकर तब श्रीधर बोला....
सत्या! कुछ दिन हमारे साथ भी रह लेते।।
बस,भाई! अब तो यहाँ मेरा कुछ रहा भी नहीं! माँ भी नहीं रही जिसके सहारे मैं इस घर में टिका रहता,सत्या बोला।।
सत्या ये तेरा घर है जब जी करें आ जाना इस घर के किवाड़ तेरे लिए सदैव खुलें रहेगें,श्रीधर बोला।।
हाँ! भाई! यहीं आऊँगा,सत्या बोला.....
और फिर सत्या अपनी बहन त्रिशला के घर पहुँचा और जैसे ही ये ख़बर त्रिशला की विधवा सास ने सुनी तो वो बोली......
ये मेरा घर है,कोई धर्मशाला नहीं!मैनें तेरे भाई के बारें में खूब सुन रखा है,मुझे सब पता है कि वो कैसा है? कितने ऐब है उसमें,अय्याश...है....अय्याश और ऐसे अय्याश व्यक्ति के लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं,उससे कहो की अपना बोरिया बिस्तर बाँधे और उल्टे पैर लौट जाएं....
ये सब सत्या ने सुन लिया था और वो उल्टे पैर उस घर से लौट गया....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा.......