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दो चिट्ठी

कहा जाता है कि अगर आप किसी से दूर जाओ तो प्यार बढ़ता है। अब यह बात कितनी सही है यह नही पता पर दूर जाना ही क्यों है......

जैसा तुमने कहा था, वैसे ही यहाँ आकर तुम्हें यह एक और चिट्ठी लिख रहा हूँ।

आज वो लम्हा याद आया है जब हमारी भर्ती के दिन नज़दीक आ रहे थें और हम रोज़ सुबह सोहन चाचा के खेत से होते हुए प्रधान जी के समर्सिबल तक दौड़ लगाया करते थें।
वापस लौटते वक्त जब जमीदार के बगीचा से गुजरते थें तो तुम दिख जाती थी। हमारे दौड़ने वाले कदम अचानक से थम जाते थें और हमारे संगी-साथी आगे निकल जाते थें।
तुम भी कमाल करती थी, हर रोज़ बस एक मुस्कान दे देती और हम मानों दौड़ जीत जातें।

शाम को टहलते टहलते जब हम नदी किनारे पहुँचते थें तब तुम कैसे अपनी सहेली को किनारे कर देती और हम भी अपने सहेला को 'अरे मतलब उ सुरेशवा को दूर भेज देते।
पहले पहले तो मानो हम दोनों बस एक दूसरे को निहारने आते थें, ना तुम कुछ बोलती न हम।
कुछ समय बाद तो हमने तुम्हारी आवाज़ सुनी, पहले भी सुनी थी जब तुम छत से अपने भाई को डांटती थी। लेकिन उस दिन जब तुम हम से पहली बार बात की तो हमे लगा कि हमारी कुछ बात बन सकती है।

हमारी तुम्हारी कुछ देर बात ही हुई थी कि शाम से अंधेरा होने लगा और उस शाम हमे लगा कि यह सूरज धीरे-धीरे क्यों नही ढलता है।
वैसे उ दिन जो तुम रोटी-भुजिया लेकर आई थी वो बहुत अच्छा था।

तुम्हें एक और बात बतानी थी, जितने दिन हम दोनों को सिर्फ बात करने में लगे थे न उतने दिन में तुम्हारी सहेली और हमारा सहेला, दोनों एक दूसरे से बात करने और प्रेम भरी बात करना शुरू कर दिए थें।

भर्ती के दिन जैसे जैसे नज़दीक आ रहे थें, हमारी बेचैनी और तुम्हारी घबराहट बढ़ती जा रही थी। तुमने तो एक बार कह भी दिया कि क्या होगा उहां जाके... गांव में ही रह कर कुछ करो।
तुम उस दिन रो दी थी न अंदर से...

"तुम्हारी घबराहट बताती है कि चाहत कितनी है,
ठंडी शाम में थामे उन हाथों में गरमाहट कितनी है,
दिल की चाहत आंकने की कोई तकनीक तो नही...
धड़कन की आहट बताती है कि चाहत कितनी है।"

मेरी इन छोटी-छोटी शायरियों पर तुम्हारा वो मुस्कुराना मानो हर शाम को सुंदर बना देती थी।

तुम खुशी खुशी मिलने आती थी और हम कहीं न कहीं दूर जाने की बात कर देते थें और तुम्हारे चहरे की वो मुस्कान पल भर में ही आंखों की नमी बन जाती थी।

वो याद है जब सुरेश को जमीदार चाचा ने बगिज़े से भगाया था और वो भागते भागते हमारे पास आ गया था। उसने कितना तेज़ चिल्लाया था कि भागो जमीदार चा आ रहे हैं, तुम्हारी आशिक़ी देख लिए न तो गांव भर में मार पड़ेगी।
उस समय तुम और तुम्हारी सहेली वही रुक गई या सही बोले तो पकड़ा गयी थी।

हम तुम्हारे इशारा करने के बाद भी भागे नही थें, अगर कोई दिक्कत हो जाती तो!
उस वक़्त तो हम सब बच गए थें पर पता है सुरेश को उ देख लिए थे।
हम से कह रहे थें की "उ सुरेशवा के साथ मत रहा करो, दिन भर छोरी घुमाता रहता है।"
अब हम इसपे क्या ही बोलते, सुरेश को बताए तो उ हमे ही घूर रहा था।

पर हम जाने वाले थे तो कुछ कह भी नही पा रहा था।
जाने से पहले वाली शाम याद है तुम्हें! रात में ही ट्रेन थी और तुम शाम को जब मिलने आई थी तो आलू का पराठा लेकर आई थी।
ई हमारे जाने की खुशी में है का!!, इतना बोलते ही तुम तो एकदम गुस्सा ही हो गयी। तुम्हारा गुस्सा तुम्हारा रूठना भी तुम्हारी आँखों की नमी को छुपा नही पा रहा था।

अभी तो भर्ती के लिए जा रहे थे और माहौल ऐसा बना दी कि जंग में जा रहे हों हम।

जब हमारी भर्ती हो गयी थी तो गांव में जैसे एक त्योहार सा माहौल बन गया था। प्रधान जी ने भी सबके लिए भोज का कार्यक्रम रख दिया था।

उस कार्यक्रम में सिर्फ तीन लोग सबसे ज्यादा खुश दिख रहे थें। एक हमारी माई, एक तुम और एक हमारा सहेला। तुम तीन लोग खुश भी थे और उदास भी।
यह फौज है ही ऐसी चीज़ हमारे लिए गर्व और घर वालों के लिए गर्व के साथ एक डर।

जब हम रवाना हुए थें उस वक़्त मानो पूरा गांव रो दिया था। बस गांव की बूढ़े चचा लोग को छोड़कर, वो ज्यादा ही प्रैक्टिकल रहते।

3-4 साल हो गए हैं,
इस दीपावली आएंगे तो छठ तक रहेंगे। तुमने और माई ने इतना ज़िद भी तो किया है पिछली चिट्ठी में।

हर बार तुम्हारा चिट्ठी माई से पहले आ जाती है और हम माई के चिट्ठी का इंतज़ार करते हैं फिर उनका जवाब देकर तुम्हारे लिए चिट्ठी लिखते हैं।

अब चिट्ठी मत लिखना क्योंकि हम तो आ ही रहे हैं।

बस इतना बताना था कि अबकी बार आएंगे तो एक व्यवस्था तो कर के जाएंगे की "यह दो चिट्ठी एक ही पता पर जाए"।

लेखक : अंश सिसोदिया (राणा अंशुमान सिंह)