Raj-Throne--Part(17) books and stories free download online pdf in Hindi

राज-सिंहासन--भाग(१७)

कादम्बरी सुकेतुबाली के समीप बैठते हुए अत्यधिक भयभीत थी कि कहीं सुकेतुबाली के समक्ष उसका ये भेद ना खुल जाएं कि वो एक पुरूष है स्त्री नहीं एवं सुकेतुबाली को कहीं ये ना ज्ञात हो जाएं कि वो ही राजकुमार ज्ञानश्रुति है तो आज तो उसका सिर ही धड़ से विलग कर दिया जाएगा,ये सभी विचार कादम्बरी बने ज्ञानश्रुति के मस्तिष्क में आवागमन कर रहे थे तभी सुकेतुबाली बोला.....
प्रिऐ! तुम कितनी सुन्दर हो,मैं तुम्हारे समक्ष आने हेतु कब से ललायित था ,परन्तु तुमने तो मुझ पर कभी भी अपना ध्यान केन्द्रित ही नहीं किया,तुम्हें ज्ञात है तुम्हारी ये ये शुष्कता,ये पाषाणता मेरे हृदय को बाण की भाँति वेध जाते थे किन्तु आज तुम स्वतः ही मेरे समीप आ पहुँची,मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है,तुम जैसी रूपसी यदि मेरे प्रेम को स्वीकार कर ले तो मैं तो धन्य ही हो जाऊँगा,
जी! महाराज! मुझे भी तो आपके दर्शनों की कब से अभिलाषा थी किन्तु मैं चाहती थी कि मैं आपसे एकान्त में मिलूँ,आपका ये पाषाण सा कठोर शरीर,आपकी सुडौल भुजाएँ,आपका ये विशाल उर देखकर मेरा जी चाहता है कि इस पर अपना सिर रखकर चैन से सो जाऊँ,आपकी सुडौल भुजाओं में सदैव के लिए समा जाऊँ,किन्तु ये सब तो कदाचित मेरे भाग्य में ही नहीं है,कहाँ आप इतने विशाल राज्य के महाराज और मैं साधारण सी युवती,मेरी आपसे कोई तुलना ही नहीं हो सकती,मैं स्वयं को आपके योग्य समझती ही नहीं,कादम्बरी बोली।।
ऐसा मत कहो प्रिऐ! मैं तो कब से तुम्हारे गुलाब से कोमल पंखुड़ी के समान होठों का रसपान करने हेतु व्याकुल हूँ,चलो बिलम्ब से ही सही तुमने मेरे हृदय की बात तो जानी,इसका तात्पर्य ये है कि मेरे प्रेम ने एक चुम्बकत्व का कार्य करके तुम्हें स्वयं ही आकर्षित कर लिया,मैं तुम्हारें इस यौवन को अपनी भुजाओं में समेट लेना चाहता हूँ,आओ प्रिऐ मेरी इतने दिनों की व्याकुलता को आज रात्रि समाप्त कर दो,सुकेतुबाली बोला।।
इतनी भी शीघ्रता क्या है राजन? मैं तो अब आपकी हो ही चुकी हूँ,ये जो तनिक सा अन्तर बचा है हम दोनों के मध्य उसे आज रात्रि मैं समाप्त कर ही दूँगी परन्तु पहले आप और मैं तनिक प्रेमभरा वार्तालाप तो कर लें,मैं अपने हृदय की पीड़ा आपको सुनाना चाहती हूँ,लेकिन ना जाने क्यों मेरा हृदय इतनी तीव्र गति से भाग रहा है,कदाचित मुझे भय लग रहा है,तनिक मेरे हृदय पर अपना हाथ रखकर तो देखिए,तभी तो मेरी पीड़ा आपको अनुभव होगी मेरे स्वप्नों के राजकुमार मेरी प्रेमभरी इच्छाओं को आज रात्रि समाप्त कर दीजिए,मेरे इस यौवन पर केवल आपका ही अधिकार है,मेरे शरीर का अंग-प्रत्यंग केवल आपको ही पुकार रहा है,मेरा प्रणय निवेदन स्वीकार कर लीजिए ,मेरी विह्वलता तो बढ़ती ही जा रही है,कृपया मेरी इस आतुरता पर अवरोध लगाएं, कादम्बरी बोली।।
ओहो....तुमने ये कहकर मेरी आकांक्षाओं को और भी बढ़ा दिया है,तुम्हारे वार्तालाप ने तो मुझे भाव-विभोर कर दिया है मेरी प्राणप्यारी,मेरी प्रेमसंगिनी,सुकेतुबाली बोला।।
महाराज! एक बात और कहना चाहती थी आपसे,कादम्बरी बोली।।
हाँ! कहों ना! प्रिऐ!,निःसंकोच कहो,सुकेतुबाली बोली।।
वचन दीजिए कि आप क्रोध नहीं करेगें,कादम्बरी ने सुकेतुबाली के कपोलों पर प्रेमभरा स्पर्श करते हुए कहा...
कदापि नहीं प्रिऐ! आज अपने हृदय किवार खोल दो,निःसंकोच सब कहदो,सबकुछ कह डालो,सुकेतुबाली बोला।।
महाराज !मैं चाहती थी कि आज मैं मदिरापान करके आपके संग प्रेमालाप करना चाहती हूँ,ताकि मेरी लज्जा कुछ समाप्त हो जाए एवं मैं इस क्षण का मुक्त होकर आनन्द उठा पाऊँ,कादम्बरी बोली।।
मैं भी यही चाहता था,तो बिलम्ब किस बात का देवी!स्वयं के संग संग मुझे भी मदिरापान कराओं,मैं तो कब से आतुर हूँ एवं कब से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था,सुकेतुबाली बोला।।
ओह....महाराज! आज तो मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे मैं तो स्वर्ग का भ्रमण कर रही हूँ,कादम्बरी बोली।।
एवं मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जैसे स्वर्ग से कोई अप्सरा भूतल पर उतर आईं है एवं उसके रूप और यौवन ने मुझे सम्मोहित कर दिया है,सुकेतुबाली बोला।।
कैसी बातें करते हैं महाराज? मैं इतनी सुन्दर नहीं कि आप मुझे अप्सरा कहें,कादम्बरी बोली।।
ओह...प्राणप्यारी! ऐसी ही मीठी मीठी मधु समान वार्तालाप करती रहो,अच्छा लगता है ,अत्यधिक आनन्द आ रहा है,सुकेतुबाली बोली।।
वार्तालाप करते करते कादम्बरी अपना कार्य प्रारम्भ कर चुकी थी,उसने सुकेतुबाली को मदिरापान कराना प्रारम्भ कर दिया था,वो अपना पात्र भी मदिरा से भर लेती एवं उसे बिछावन के समीप रखें,फूलदानमें डालती जाती,परन्तु सुकेतुबाली मदिरा से भरें सभी पात्र पीता जाता,जब कादम्बरी को लगा कि अब सुकेतुबाली कुछ अचेत सा हो रहा है इसलिए उसने इस अवसर का लाभ उठाना उचित समझा,तब उसने उसके काँधे पर अपना सिर रखते हुए कहा.....
महाराज! आप अत्यधिक साहसी है,आपके पिता महाराज भी आपकी ही भाँति वीर एवं साहसी रहे होगें,तभी आपके करकमलों में इस राज्य का कार्यभार सौंप दिया,सच महाराज आप इस राज्य के योग्य होगें तभी तो उन्होंने ये शुभ कार्य किया।।
ना...ना..प्रिऐ! ये मेरे राज्य मेरे पिता महाराज का राज्य नहीं था,सुकेतुबाली बोला।।
सत्य महाराज! ये राज्य आपके पिता महाराज का नहीं था तो किसका था? कादम्बरी ने पूछा।।
तब सुकेतुबाली अचेत अवस्था में बोला....
ये राज्य तो मेरे चचेरे भाई सोनभद्र का था,वें मुझसे आयु में बड़े थे,इसलिए इस राज्य का उत्तराधिकारी बनने का अधिकार उन्हें प्राप्त हुआ,उनके विवाह के कई वर्ष के उपरान्त भी वें निःसंतान रहें,इसलिए मैनें सोचा कि उनके पश्चात मैं ही इस राज्य का उत्तराधिकारी बनूँगा,तभी एक अनहोनी हो गई,
कैसीं अनहोनी महाराज! कहिए ना! कादम्बरी ने पूछा।।
उनकी सन्तान हुई जो कि एक बालक था,इसलिए मुझे भय हो गया कि अब इस राज्य से मैं वंचित हो जाऊँगा,सुकेतुबाली बोला।।
तो इसके पश्चात आपने क्या किया? कादम्बरी ने पूछा।।
मैनें इस राज्य का उत्तराधिकारी बनने हेतु एक कठिन कदम उठाया,सुकेतुबाली बोला।।
वो क्या महाराज? कादम्बरी ने पूछा।।
राजकुमार के नामकरण के दिवस मैनें महाराज सोनभद्र एवं उनकी रानी विजयलक्ष्मी को एक दृष्टिबंधक(जादूगर) अघोरनाथ के द्वारा तोता और मैना में परिवर्तित करवा कर उसके साथ भेज दिया,सुकेतुबाली बोला।।
ओह....तो उस राजकुमार का क्या हुआ? कादम्बरी ने पूछा।।
राजकुमार को तो महाराज सोनभद्र का विश्वासपात्र महामंत्री भानसिंह ले भागा,सुकेतुबाली बोला।।
तो इसके पश्चात राजकुमार आपको मिले या नहीं,कादम्बरी ने पूछा।।
राजकुमार तो नहीं मिला और ना ही वो महामंत्री भानसिंह मिला,मैनें उन्हें बहुत खोजा परन्तु वें दोनों मुझे कहीं नहीं मिलें,इसके उपरान्त मैं ने इस राज्य का महाराज बनकर इस राज्य के राज-सिंहासन को सम्भाला,सुकेतुबाली बोला।।
तो अब महाराज और महारानी कहाँ है?कादम्बरी ने पूछा।।
उन दोनों को दृष्टिबंधक अघोरनाथ अपने संग पूरब दिशा की ओर ले गया था,वहाँ पर घने वनों को पार करने के उपरान्त एक कंदरा (गुफा) मिलेगी,जिसके मुख्य द्वार पर एक दृष्टिबंधकी बसन्तसेना मिलेगी जो कि अघोरनाथ की पुत्री है,वो अत्यधिक रूपवान है,वो शत्रुओं को अपने रूप से मोहित करने का प्रयत्न करती है एवं यदि जो उसके मायाजाल में बंध गया तो सरलता से नहीं छूट सकता,वो अत्यधिक मायाविनी है,उसकी हत्या करने हेतु कन्दरा के मध्य में एक खुला स्थान है जहाँ एक लघु से कृत्रिम सरोवर के समीप एक मायावी वाटिका उपस्थित है,उस मायावी वाटिका में उपस्थित एक कृत्रिम स्वर्ण वृक्ष पर बैठे मयूर की हत्या करनी पड़ती है किन्तु सावधान वहाँ उस भाँति के ना जाने कितने ही मयूर होगें,किन्तु उस मयूर की केवल एक ही आँख होगी जिसमें बसन्तसेना के प्राण बसते हैं,मयूर को मारने के पश्चात बसन्तसेना स्वतः ही मृत हो जाएगी।।
उस कंदरा के दूसरे छोर के बाहर निकलने पर एक समुद्र दिखाई देगा जिसके भीतर ही अघोरनाथ का जलमहल बना है,किन्तु उसके इस जलमहल तक पहुँचना सरल कार्य नहीं है,अघोरनाथ को तभी पाया जा सकता है जब वो अपने जलमहल के संग सायंकाल के समय बाहर निकलता है,तब उसका जलमहल भी बाहर धरती पर समुद्र के किनारे रहता है,तभी अघोरनाथ का अन्त किया जा सकता है,अघोरनाथ का अन्त करने हेतु जलमहल के कंगूरे पर बैठे उल्लू की दोनों आँखों पर बाण चलाना होगा,अघोरनाथ के प्राण उस उल्लू की आँख में ही बसते हैं,अघोरनाथ के मृत होते ही राजा रानी भी अपने पूर्व रूप में आ जाएंगे,सुकेतुबाली बोला।।
ये तो अत्यधिक कठिन कार्य है, आप जैसा महान योद्धा ही ही ये कार्य कर सकता है,कादम्बरी बोली।।
तुम्हें मुझ पर इतना विश्वास है सुन्दरी! सुकेतुबाली बोली।।
जी! लीजिए ! मदिरा लीजिए ताकि मैं और आप अचेत होकर बस एकदूसरे में खो जाएं,कादम्बरी बोली।।
इसके पश्चात कादम्बरी सुकेतुबाली को मदिरापान कराती गई...कराती गई....कराती गई.....सुकेतुबाली कुछ समय पश्चात अपने बिछावन पर पूर्णतः अचेत होकर लेट गया.....
सुकेतुबाली के गहरी निंद्रा में चले जाने के उपरान्त कादम्बरी ने सुकेतुबाली के वस्त्रो को अस्त ब्यस्त सा कर दिया और बिछावन की दशा भी कुछ बिगाड़ सी दी ताकि ये ना लगें कि उस बिछावन पर प्रेमालाप जैसा कुछ हुआ है,अन्त में उसने अपने वस्त्रों को सँवारा,अपना श्रृंगार ठीक किया और सुकेतुबाली के कक्ष से चली आईं,कक्ष के द्वार पर खड़े सैंनिको के समक्ष उसने उनसे लजाने का अभिनय किया एवं मुस्कुराते हुए अपने कक्ष में चली गई......
उसके कक्ष में सहस्त्र और वीर उसकी प्रतीक्षा कर रहे थें,संग में नीलमणी एवं सोनमयी भी थीं,कादम्बरी कक्ष में पहुँची और सहस्त्र के गले लगकर बोली......
शुभकामनाएं! सहस्त्र भ्राता! सफलता मिल गई,मैनें सारे रहस्य ज्ञात कर लिए।।
सच! राजकुमार! मुझे ज्ञात था कि तुम्हारे लिए ये कार्य कठिन ना होगा,ये तुम्हारी बहुत बड़ी उपलब्धि है,सहस्त्र बोला।।
जी! सब आप सब का सहयोग था इसलिए मैं सफल हो सका,तो अब सुनिए कि महाराज और महारानी कहाँ हैं?
एवं कादम्बरी बने ज्ञानश्रुति ने एक के बाद एक सभी रहस्यों को उजागर कर दिया,रहस्यों को सुनकर सहस्त्रबाहु बोला....
उस दिशा का बोध तो मैं अपनी तंत्रविद्या द्वारा कर लूँगा,लेकिन अब हम सबकी अगली योजना क्या होगी? किसी के मस्तिष्क में कोई विचार आया?
सर्वप्रथम तो कादम्बरी को मृत घोषित करना होगा,क्योकिं सारी रात्रि सुकेतुबाली से प्रेम का अभिनय करते करते मैं तो थक गया,अब ये सब मुझसे पुनः ना हो पाएगा....छीः...छीः....उसका घातक स्पर्श ये सब सोचकर तो मुझे अभी भी उबकाई आ रही है,ज्ञानश्रुति बोला।।
ज्ञानश्रुति की बात सुनकर सभी हँसने लगें एवं अगली योजना की रणनीति तैयार होने लगी,उस रणनीति के अनुसार कादम्बरी किस प्रकार मृत घोषित होगी ,अगली योजना ये बनी.....
योजना बनाने के बाद सभी अपने अपने यथास्थान पहुँचकर कुछ देर के लिए सोने चले गए क्योकिं प्रातः होने में अधिक समय शेष ना बचा था।।
प्रातः हुई तो सुकेतुबाली निंद्रा से जागते ही कादम्बरी को खोजते हुए उसके कक्ष में जा पहुँचा,कक्ष में कादम्बरी एकदम अकेली थी एवं ये योजना का ही एक भाग था,सब कादम्बरी को उस कक्ष में जानबूझकर अकेला छोड़कर चले गए थे.....
कादम्बरी ने ज्यों ही सुकेतुबाली को देखा तो अपनी ओढ़नी को अपने मुँख में दबाते हुए लजाई और बोली....
महाराज! आप तो बड़े वो हैं,रात्रि में आपने मुझे कितना सताया,
क्यों सुन्दरी ? तुम्हें आनन्द नहीं आया क्या?
आनन्द की मत पूछिए महाराज! वो तो अत्यधिक आया,आपके स्पर्श से तो मैं धन्य ही हो गई,कादम्बरी बोली।।
मैं ने कदाचित अत्यधिक मदिरापान कर लिया था ,इसलिए इतना कुछ तो मुझे याद नहीं,सुकेतुबाली बोला।।
परन्तु! मुझे तो सब याद है,ये मेरे जीवन की सबसे मधुर रात्रि थी,ये सुखद क्षण मैं कभी ना भूलूँगीं,अब ना जाने वो रात्रि पुनः कब आएगी? कादम्बरी बोली।।
तुम चाह लो तो आज रात्रि फिर से वो रात्रि आ सकती है,सुकेतुबाली बोला।
सच! महाराज! मेरे तो अहोभाग्य! कादम्बरी बोली।।
तो पुनः आज रात्रि मेरे कक्ष पर आ जाना,सुकेतुबाली बोला।।
अवश्य महाराज! मैं अवश्य आऊँगीं,आप मेरी प्रतीक्षा कीजिएगा,कादम्बरी मुस्कुराते हुए बोली।।
कुछ समय तक दोनों के मध्य वार्तालाप हुआ एवं सुकेतुबाली चला गया......
दोपहर का समय,
सोनमयी रोती बिलखती हुई महल में उपस्थित हुई,वो इतना रो रही थी कि उसे देखकर सभी दंग रह गए और उसके रोने का कारण पूछने लगें,सबके पूछने पर वो बोली.......
हे ईश्वर! उसे क्यों ले गया? वो तो वैसे भी अनाथ थी,अब तो उसके जीवन में कुछ सुख आएं थे तो तूने उसे अपने पास बुला लिया,मैं उसे स्नान के लिए नदी पर लेकर क्यों गई?
ना मैं उसे नदी पर ले जाती और ना वो घड़ियाल वहाँ आकर उसे लील लेता,सब दोष मेरा है....हाय...मेरी प्रिय सखी कादम्बरी! मैं अब तेरे बिन कैसे रहूँगी?
हे! प्रभु! उसने ऐसा कौन सा दण्ड किया था जो तूने उसे अपने समीप बुला लिया.....
कुछ ही समय के पश्चात ये सूचना आग की भाँति सारे राजमहल में विसरित हो गई ,जब ये सूचना सुकेतुबाली तक पहुँची तो उसे अत्यधिक कष्ट पहुँचा और उसने इस घटना की पूर्ण जानकारी पाने हेतु सोनमयी को अपने समक्ष बुलाया......

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....