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अपंग - 22

22

अपने देश की खुशबू आसमान से ही उसके नथुनों में समाने लगी थी और दिल्ली में उतारते ही उसने एक चैन की साँस ली जिससे उसने अपने भीतर अपने भारत की सुगंध को समेट लिया |

हाय, कहाँ बीहड़ में चली गई थी ? इतना लम्बा समय लग रहा था उसे | भावुकता के मरे उसकी आँखों में आँसू आ गए | माँ-बाबा को रिचार्ड द्वारा भेजी गई सूचना मिल चुकी थी | वे दोनों ड्राइवर को लेकर उसे लेने आ गए थे |

भानुमति कुछ ऐसे माँ के चिपट गई जैसे किसी खोए हुए बच्चे को बड़े दिनों बाद अपनी माँ की ममतामई गोदी मिली हो | नन्हे पुनीत को माँ की गोद में डालकर वह फिर से माँ-बाबा दोनों से चिपट गई | न जाने कितनी देर तक उसकी आँखों में जमा हुआ लावा बहता रहा | अगर पुनीत घबराकर रोने न लगता तो वह माँ-बाब को छोड़ने वाली नहीं थी |

ड्राइवर मलकान की आँखों में छोटी बीबी को देखकर आँसू भर आए थे |

"बहुत सारा सामान लेकर आई है!" बाबा ने पूछा |

उसने कोई उत्तर नहीं दिया | मना करते-करते भी रिचार्ड ने राजेश के नाम की स्लिप लगवाकर माँ-बाबा के लिए ढेर सारे गिफ़्ट्स दे दिए थे | भानु के कितना मन करने पर भी वह नहीं माना था, वह उसे यही समझाने का प्रयास करता रहा कि उसके माँ-बाबा को कितना अच्छा लगेगा जब वह गिफ़्ट्स पर राजेश का नाम देखेंगे |

देहरादून पहुँचने में छह घंटे से ऊपर ही लग गए थे | बाबा कई बार धीरे से भुनभुन करते रहे थे कि आखिर ऎसी क्या व्यस्तता थी जो राजेश कुछ दिनों के लिए भी नहीं आ पाया था |कैसे उसका मन चला बच्चे को लेकर उसे अकेले भेज दिया !

"आप भी बाबा, किस ज़माने की बात करते हैं ! मालूम है न विदेशों में तो कितने लोग सिंगल पेरेंट्स होते हैं फिर आपकी बेटी इतनी कमज़ोर है क्या?"

"और बाबा, राजेश बहुत बिज़ी रहते हैं, वहाँ जीवन कितना मुश्किल है ! छुट्टियाँ लेना तो नामुमकिन ! वो तो राजेश के बॉस बहुत नेकदिल इंसान हैं इसीलिए कई दिनों की छुट्टी लेकर राजेश मेरे साथ रह सके | वहाँ तो बाबा, मैंने कितनी ही लेडीज़ को अपने नवजात शिशुओं के साथ हॉस्पिटल से अकेले ही बच्चे को घर ले जाते हुए देखा है | हाँ, उन्हें अपनी गाड़ी में बेबी-सीट का इंतज़ाम करना पड़ता है --बस |"

"अरे ! उस देश की को कलचर ही है पर हम तो भारतीय हैं न !" बाबा की झल्लाहट अभी पूरी तरह से नहीं उतरी थी | वे राजेश से नाराज़ ही थे |

घर पहुँचकर भानु ने अपने हरे-भरे बगीचे में पहुँचते ही खुलकर साँस ली | उसने बगीचे में घुसते ही अपने दोनों हाथ फैलाकर गोल-गोल घूमना शुरू किया जैसे वह हर रोज़ बचपन से करती थी | बच्चे की, सामान की उसे अब क्या परवाह थी ? सब लोग सँभालने वाले थे |

मलकान ने गाड़ी बगीचा क्रॉस करके घर के बरामदे के सामने रोकी थी | भानु तो गाड़ी से उतरकर बिना इधर-उधर देखे बगीचे में भाग गई थी और अब देखो क्या बच्चे की तरह चहक रही थी | घूमते-घमते उसने अपने प्यारे फ़ूलों को सहलाया, पत्तों से बातें की, वह अपने बड़े से बगीचे के उस कोने में जा पहुँची जहाँ वह झुरमुट में जा छिपती थी |

बच्चे की उसे कोई फ़िक्र नहीं थी तो सामान की क्या फ़िक्र करती | उस पर जैसे कोई अलग सा नशा चढ़ गया था, उसकी मिट्टी का, उसके फूल-पत्तियों का, उसकी पवन का नशा !और वह उसमें खोती जा रही थी |

हाय ! इतने दिन वह कहाँ और क्यों थी ?उसकी आँखें झरने सी बहने लगीं | माँ ने दो बार मलकान को भेजा |

"आती हूँ ---" कहकर वह बहुत देर-तक अपने फूल-पत्तियों से बात करती रही | घर में सारा दिन रहने वाली बिम्मो ने आकर कहा ;

"बीबी ! अंदर चाय बन गई है | माँ-बाबा आपका इंतज़ार कर रहे हैं --"

"बिम्मो ---" कहकर वह उसके चिपट गई |

"कैसी है तू ---?" उसने पूछा|

"अच्छी हूँ बीबी, वैसे आपके बिना यहाँ कोई भी तो खुश नहीं रहता ---|" वह भी अपनी आँखें गीली कर बैठी थी |

"देख, मैं आ गई न ---!" उसने फिर एक बार बिम्मू को अपने गले लगा लिया |

"माँ-बाबा इंतज़ार कर रहे हैं ---" बिम्मू ने उसे याद दिलाया कि चाय बन चुकी है | अपनी महराजिन की चाय वह कितने चाव से पीती है, पता नहीं क्या घोलकर पिलाती हैं महराजिन काकी चाय में, बस स्वाद जीभ से लेकर गले से उतरता हुआ पेट की जठराग्नि तक जाकर पिघलने लगता है |

"चल--चल ---अंदर पिटाई बनेगी " वह बिना बात होइ ज़ोर से हँस दी और बिम्मू के गले में हाथ डेल हुए ही बगीचा प्रकार घर जाने वाली पगडंडी पर चल दी | बोगनबेलिया के फूल ऐसे रास्ते में बिछे हुए थे जैसे किसी ने उसके स्वागत में कार्पेट बिछा दिया हो | वह झूम उठी |