Reign-Throne--Part(20) books and stories free download online pdf in Hindi

राज-सिंहासन--भाग(२०)

प्रातःकाल हुई,वृक्षों पर पंक्षियों का कलरव आरम्भ हो चुका था एवं सूर्य भी अपनी लालिमा सम्पूर्ण जगत में प्रसारित कर रहा था,तभी सहस्त्रबाहु की निंद्रा टूटी,उसने सभी को भी जगाने का प्रयास किया,शीघ्र ही सब निंद्रा को त्यागकर जाग उठे,सभी आगे़ की योजना हेतु विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि तभी उन सभी के पास सैंनिको का मुखिया अखण्डबली आ पहुँचा और बोला.....
रानी बसन्तसेना का आदेश है कि हर्षवर्धन को शीघ्र ही उनके समक्ष प्रस्तुत किया जाएं।।
परन्तु!किस कार्य हेतु,भालचन्द्र बने वीरप्रताप ने पूछा।
वो तो मुझे ज्ञात नहीं,अखण्डबली बोला।।
ऐसे कैसें हम सभी अपने भ्राता को आपकी रानी के समक्ष भेज दें,स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली....
स्वर्णलता! चिन्तित ना हो,भ्राता शीघ्र ही लौट आऐगें,चन्द्रसेन बनें ज्ञानश्रुति ने कहा...
मेरी प्रिय बहन स्वर्णलता!तुम मेरी इतनी चिन्ता क्यों करती हो?रानी बसन्तसेना एक सुन्दर युवती ही तो हैं ,कोई राक्षसी तो नहीं जो मेरा रक्त पीकर अपनी प्यास बुझाएंगीं,वें तो अत्यन्त ही सरल स्वाभाव की प्रतीत होतीं हैं,ये भ्रम अपने मन से निकाल दो कि वें मुझे हानि पहुँचाएंगीँ,हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु बोला।।
अब क्या करूँ भ्राता! मैं ठहरी कच्चे हृदय वाली युवती इसलिए भय तो लगता ही है,हैं ना!मुखिया जी!स्वर्णलता बनी सोनमयी सैनिकों के मुखिया अखण्डबली की ओर प्रेमभरी दृष्टि से देखते हुए बोली।।
जी!देवी!आप तो सच में कोमल शरीर एवं कोमल हृदय वालीं ही प्रतीत होतीं हैं,सैनिकों का मुखिया अखण्डबली बोला।।
तभी तो मुझसे किसी का दुःख देखा नहीं जाता,शीघ्र ही मेरे नयनों से अश्रुओं की जलधारा बह चलती है,स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली।।
मैं आपके हृदय के भाव भलीभाँति समझ सकता हूँ ,देवी!मुखिया अखण्डबली बोला।।
आप इनके संग हैं तो मुझे किसी बात का भय नहीं,मुझे आप पर पूर्ण विश्वास है,स्वर्णलता बनी सोनमयी मुखिया अखण्डबली से बोली।।
इसका तात्पर्य है कि आपने मुझे इन्हें रानी बसन्तसेना के समक्ष उपस्थित करने की अनुमति प्रदान कर दी हैं,मुखिया अखण्डबली बोला।।
जी!अनुमति है,केवल आप पर विश्वास है इसलिए,स्वर्णलत बनी सोनमयी बोली।।
जी!आपका अत्यधिक आभार देवी,मुखिया अखण्डबली बोला।।
ऐसा कहकर मुझे लज्जित ना करें,आभार तो आपका है जिन्होंने हमारी सहायता की,स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली।।
जी!तो अब हमें जाना होगा ,रानी प्रतीक्षा कर रहीं हैं,मुखिया अखण्डबली बोला।।
जी!जाइएं!सोनमयी बोली।।
इसके उपरांत सहस्त्रबाहु मुखिया के संग कन्दरा के भीतर चला गया,वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि कन्दरा के बीचोबीच आवरणरहित एक कृत्रिम सरोवर है जहाँ सुन्दर सी वाटिका है,तभी सहस्त्रबाहु ने मन में सोचा कदाचित ये वही मायावी वाटिका है,तभी सहस्त्रबाहु ने अपनी दृष्टि दौड़ाई तो उसे वहाँ एक कृत्रिम स्वर्ण वृक्ष दिखाई दिया,जिस पर कई मयूर बैठे थे,सहस्त्रबाहु अपना ध्यान उस मयूर पर केन्द्रित करना चाहता जिसमें बसन्तसेना के प्राण बसते थे,किन्तु बसन्तसेना ने उसे टोकते हुए कहा....
प्रिय हर्षवर्धन !तुम उस स्वर्ण वृक्ष की ओर ध्यान से क्या देख रहे हो?
कुछ नहीं!देवी! मैं बस ये देखकर रहा था कि स्वर्ण वृक्ष भी होतें हैं इस धरती पर,हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु बोला....
हर्षवर्धन की बात सुनकर बसन्तसेना हँस पड़ी और बोली.....
ये तो कृत्रिम है,मुझे अपनी वाटिका में एक स्वर्ण वृक्ष चाहिए था सो बनवा लिया,
किन्तु!ये मयूर जीवित हैं या ये भी कृत्रिम हैं देवी बसन्तसेना!सहस्त्रबाहु बने हर्षवर्धन ने पूछा।।
मयूर तो जीवित है किन्तु वें इसी वृक्ष पर रहते है,वें इस स्वर्ण वृक्ष को छोड़कर अन्य किसी वृक्ष पर नहीं जाते,बसन्तसेना बोली।।
किन्तु!ऐसा क्यों?हर्षवर्धन ने पूछा।।
वो इसलिए कि मैंने इन्हें आदेश दिया है,बसन्तसेना बोली।।
अत्यधिक आश्चर्य की बात है कि ये मयूर आपका आदेश मानते हैं,हर्षवर्धन बोला।।
हर्षवर्धन!तुम आज रात्रि यहाँ विश्राम करों,ये बिछौना तुम्हारे लिए है,तुम्हारी सुविधा की सभी वस्तुएं यहाँ उपस्थित हैं,तुम जब तक चाहों यहाँ रह सकते हो,बसन्तसेना बोली।।
किन्तु!मेरे भाई-बहन कहाँ रहेगें?हर्षवर्धन ने पूछा।।
हर्षवर्धन!तुम चिन्तित ना हो,मैनें उनके रहने की सुविधा भी करवा दी हैं,बसन्तसेना बोली।।
अत्यधिक आभार आपका देवी!हर्षवर्धन बोला।।
एवं इधर हर्षवर्धन बसन्तसेना के संग झूठे प्रेम का अभिनय करने लगा जिससे कि बसन्तसेना को उस पर पूर्णतः विश्वास हो जाएं और वो अपने इस कार्य में सफलता प्राप्त कर सकें....
इधर हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु अपनी योजना को सफल करने में लगा हुआ था और उधर सुकेतुबाली को अपने अश्वशाला के दोनों सहयोगी रघुवीर एवं श्रवन पर संदेह हो रहा था कि वें दोनों अब तक राजमहल में उपस्थित क्यों ना हुएं?माना कि सोनमयी तो अपने निवासस्थान गई हैं कादम्बरी के मृत्युलोक जाने का समाचार देनें किन्तु ये दोनों कहाँ हैं? एवं इस बात को पूछने हेतु वो अपनी पुत्री नीलमणी के कक्ष में जा पहुँचा,तब नीलमणी बोलीं.....
वें दोनों भी सोनमयी के संग गए हैं,कादम्बरी की मृत्यु से सोनमयी अत्यधिक विक्षिप्त थी वो स्वयं को सम्भाल ना पा रही थी,इसलिए वें भी उसके ही संग गए हैं।।
तुम सत्य कह रही हो ना नीलमणी,सुकेतुबाली ने पूछा।।
जी!पिताश्री!यही सत्य है,नीलमणी बोली।।
अपने पिता के संग विश्वासघात मत करना,नहीं तो इसका फल अच्छा नहीं होगा,सुकेतुबाली बोला।।
मैं भला आपसे झूठ क्यों बोलूँगी? आप मेरे पिता है और सदैव से मैं आपकी छत्रछाया में पली बढ़ी हूँ,मैं और आपके साथ विश्वासघात,मैं ऐसा स्वप्न में भी सोंच नहीं सोच सकती, नीलमणी बोली।।
नीलमणी का ऐसा उत्तर पाकर सुकेतुबाली ने नीलमणी के कक्ष से प्रस्थान किया,किन्तु नीलमणी इस बात से चिन्तित हो उठी की कि उसके पिता को कुछ संदेह तो अवश्य हो गया एवं वें शांत नहीं बैठेगें,अपने गुप्तचरों द्वारा वें सहस्त्र भ्राता एवं वीर की खोज करवाकर ही मानेगें तभी उन्हें संतुष्टि मिलेगी एवं उसके मन में विचार आया कि क्यों ना वो ये सूचना स्वयं ही उसके निवासस्थान कह कर आएं,वो इसलिए वहाँ जाने हेतु रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगी,रात्रि होने पर उसने अपना वेष बदला एवं अपने कक्ष के झरोखें से बाहर निकलकर वो अश्वशाला पहुँची,वहाँ से उसने अपने अश्व को खोला और उस पर सवार होकर वो अपने गन्तव्य को बढ़ चली,रात्रि की यात्रा के उपरान्त वो प्रातःकाल होते होते उस स्थान पर जा पहुंँची एवं उसने भानसिंह को सूचित किया कि उसके पिता सुकेतुबाली को सभी पर संदेह हो गया,यदि उन्हें कोई भी सूचना मिल गई होगी तो ऐसा ना हो कि सभी के प्राणों पर कोई संकट आ खड़ा हो।।
नीलमणी की बात सुनकर भानसिंह कुछ चिन्तित से हुए और उससे बोलें.....
राजकुमारी!अब आप हमारे संग ही रहिए,ऐसा ना हो आपके पिता को भी ये ज्ञात हो गया हो कि आप भी हमारी योजना में हमारे संग है तो आपके पिता आप पर कहीं क्रोधित ना हो जाएं....
जी!तो अब मैं क्या करूँ?नीलमणी ने पूछा।।
आप हमारे संग ही रहें,आपको अपने राजमहल वापस लौटने की कोई आवश्यकता नहीं है,भानसिंह बोले।।
जी!जैसा आपका आदेश हो,मैं वैसा ही करूँगी,नीलमणी बोली।।
इसके उपरान्त नीलमणी वापस राजमहल नहीं लौटी,प्रातःकाल हो चुकी थी परन्तु अभी तक नीलमणी नहीं लौटी थी,जब ये सूचना सुकेतुबाली तक पहुँची तो उसका सन्देह पक्का हो गया कि हो ना हो कि रघुवीर एवं श्रवन कोई गुप्तचर थे एवं कोई ना कोई रहस्य ज्ञात करने मेरे राज्य में आएं थे,उनके संग नीलमणी भी मिली हुई है तभी तो वो भी कहीं चली गई हैं,हो सकता वो भी उन्हीं के साथ ही हो,ये तो बहुत बड़ा संकट आ खड़ा हुआ है मुझ पर,अब मुझे उन सभी के विषय में ज्ञात करना होगा कि वें सभी कहाँ हैं एवं कौन सी योजनाएं बना रहे हैं,ये सब सोचकर सुकेतुबाली अत्यधिक सतर्क हो गया एवं अपने गुप्तचरों को उसने उन सभी की खोज में भेजा एवं शीघ्र ही सभी के विषय में जानकारी एकत्र करने को कहा,वें सभी अपने अपने कार्यों में लग गए एवं शीघ्र ही अपने काम में सफल भी हुए,जब सुकेतुबाली को ज्ञात हुआ कि वें रघुवीर,श्रवन नहीं सहस्त्रबाहु एवं वीरप्रताप थे एवं संग में उनकी बहन थी,परन्तु जो कादम्बरी थी वो कौन थी?ये सभी विचार सुकेतुबाली के मस्तिष्क में आवागमन कर रहे थे कि ये सहस्त्रबाहु और वीरप्रताप आखिर हैं कौन?जो मेरे राज्य में वेष बदलकर रह रहे थे,कहीं मेरे कोई शत्रु तो नहीं जो मुझसे प्रतिशोध लेने हेतु यहाँ मेरे रहस्यों को ज्ञात करने आएं थे,किन्तु किस बात का प्रतिशोध लेने वें यहाँ आएं थे,ये मेरी समझ से परे हैं,मुझे इस रहस्य को भी ज्ञात करने हेतु कुछ और गुप्तचरों को वहाँ भेजना होगा,इस सोच-विचार के उपरान्त सुकेतुबाली ने पुनः कुछ और गुप्तरों को और भी गहराई से सभी रहस्यों को उजागर करने हेतु भेजा......
और उधर बसन्तसेना हर्षवर्धन को अपने प्रेम के द्वारा वश में करने का प्रयास करने लगी और हर्षवर्धन की तो यही मनसा थी इसलिए वो स्वयं ही बसन्तसेना के प्रेम द्वारा उसके वश में होने लगा,अब बसन्तसेना को विश्वास हो चला था कि हर्षवर्धन को उससे प्रेम हो चला है,बसन्तसेना के इस भ्रम को हर्षवर्धन ने टूटने नहीं दिया,वो भी उससे निरन्तर प्रेमभरा वार्तालाप करता रहा,ऐसे ही दो दिन बीत गए,हर्षवर्धन ने उस मयूर को ध्यान से देख लिया था जिसकी केवल एक ही आँख थी,वो बस अवसर ही ढूढ़ रहा था एवं उधर वीर,सोनमयी ,ज्ञानश्रुति भी सहस्त्रबाहु के कहें अनुसार एक योजना बना रहें थें,अत्यधिक प्रयासों के उपरांत उस योजना को सफल बनाने हेतु वें प्रयास में जुट गए ,उस योजनानुसार चन्द्रसेन बने ज्ञानश्रुति ने अपना वेष बदला,सोनमयी अपने संग कुछ वस्त्र लाई थी ,उन वस्त्रों को ज्ञानश्रुति ने धारण कर लिया,जो कि योजना का ही भाग था.....
तभी सैनिकों का मुखिया अखण्डबली बसन्तसेना के समक्ष एक सूचना लेकर पहुँचा और उससे बोला.....
देवी! कन्दरा के बाहर एक युवती आई है,वो कहतीं है कि वो ही हर्षवर्धन की धर्मपत्नी है एवं अपना नाम वो कादम्बरी बताती है....
क्या कहते हों? सेनापति अखण्डबली!हर्षवर्धन की धर्मपत्नी भला यहाँ कैसें आ सकती हैं वो भी इतनी शीघ्र?उसे कन्दरा के भीतर भेजो,बसन्तसेना बोली।।
सेनापति शीघ्र ही कादम्बरी को कन्दरा के भीतर लाकर बोला.....
ये है हर्षवर्धन की पत्नी।।
ओह....तो तुम हो हर्षवर्धन की पत्नी,दिखती तो भली हो परन्तु इतनी भी सुन्दर नहीं जितना कि हर्षवर्धन,बसन्तसेना बोली।।
मुझे ये ज्ञात नहीं करना कि मैं सुन्दर हूँ या नहीं,सर्वप्रथम ये बताओ कि मेरे पति कहाँ हैं?कादम्बरी बना ज्ञानश्रुति बोला।।
मैं कदापि नहीं बताऊँगी कि तुम्हारे पति कहाँ हैं?बसन्तसेना बोली।।
क्यों नहीं बताओगी?मैं तुम्हारे प्राण ले लूँगी,कादम्बरी बोली।।
तुम्हें इतना हिंसक होने की आवश्यकता नहीं है,तुम अपने पति से ही क्यों नहीं पूछ लेती कि वो तुम्हें प्रेम करते हैं या नहीं?बसन्तसेना बोला।।
तो मेरे समक्ष बुलाओं उन्हें,मैं उन्हें भलीभाँति जानती हूँ कि उनके हृदय में मेरा ही वास है,कादम्बरी रोते हुए बोली।।
इसके उपरान्त हर्षवर्धन को कादम्बरी एवं बसन्तसेना के समक्ष उपस्थित किया गया,तब कादम्बरी को देखकर हर्षवर्धन कुछ आश्चर्यचकित हुआ एवं इसके उपरांत मुस्कराया किन्तु एकाएक शांत हो गया,तब कादम्बरी ने हर्षवर्धन से कहा...
हे!स्वामी!आप ही इस कुल्टा को बताएं कि मैं आपकी प्राणों से भी प्यारी पत्नी हूँ,आप मुझे अत्यधिक प्रेम करते हैं एवं मैं ही आपके कोमल हृदय में वास करती हूँ।
कौन कहता है कि तुम मेरी पत्नी हो?मैं तो तुम्हें जानता ही नहीं,तुम असत्य कहती हो,मैं तो केवल अपनी प्रिय बसन्तसेना से ही प्रेम करता हूँ,वो ही मुझे मेरे प्राणों से प्रिय है,हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु बोला।।
ये आप क्या कहते हैं स्वामी?ये सुनने से पूर्व मैं मृत्यु को प्राप्त हो जाती तो अच्छा होता है,हे!प्रभु!अब मैं कहाँ जाऊँ?मरने के अलावा मेरे पास अब और कोई मार्ग नहीं रह गया है,जिस पत्नी का पति उसे त्याग दें तो वो सिवाय आत्महत्या के उसके पास और कोई मार्ग शेष नहीं बचता और इतना कहते हुए कादम्बरी अपने कानों पर हाथ रखकर भागते हुए कन्दरा से बाहर निकल गई......
बसन्तसेना ये सब देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुई और हर्षवर्धन से बोली...
ओह.....हर्षवर्धन! मेरे हर्षवर्धन ,आज से मैं तुम्हारे लिए पूर्णतः समर्पित हूँ,मुझे तुम पर पूर्ण विश्वास है कि तुम मुझसे ही प्रेम करते हो।।
हाँ!देवी!बसन्तसेना!आप ही मेरे लिए सर्वोपरि हैं,हर्षवर्धन बोला।।
ये सुनकर बसन्तसेना हर्ष से झूम उठी......

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....