Agnija - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

अग्निजा - 2

प्रकरण 2

कितने लंबे-घने, काले रेशम सरीखे चमकदार बाल...जनार्दन के मुंह से ये शब्द सुनने के लिए अधीर हो चुकी यशोदा अपनी प्रसव पीड़ा भी भूल चुकी थी। ‘बेटी होगी तो पति खुश होंगे...पर सास नाराज हो जाएगी, लेकिन कितने दिन आखिर नाराज रह पाएंगी? पोती के प्रेमवश उनकी नाराजगी दूर होने में ज्यादा समय लगेगा नहीं...भगवान पहली बेटी ही देना मुझे। मुझे जन्म देते समय मेरी मां ने जिन कष्टों को झेला, उसकी चुकौती यदि कोई है तो बेटी ही है। मुझे गर्भ में ही मार डालने की या फिर जनमते ही गला घोंटकर मारने की कारगुजारियों का सामना मेरी मां ने अपनी जान को धोखे में डालकर किया था। इसलिए हे भगवान, मेरी मां के नाम पर मुझे पहली बेटी ही देना। उसके बाद मुझे तेरी सब इच्छाएं मंजूर होंगी।’

इतने बरसों का अनुभव गांठ में बांधी हुई दाई को भी आश्चर्य हो रहा था, ‘इस मुई को तीन घंटों से दर्द हो रहा, लेकिन मुंह से जरा भी आवाज नहीं निकाल रही है...प्रसव पीड़ा का नाटक तो नहीं कर रही ना...आजकल की कामचोर बहुएं....’

बाहर बुढ़िया झमकू का धीरज छूटते जा रहा था। एक हाथ में माला लेकर ‘भगवान बेटा ही देना...’ की रट लगा रही थी। गर्भवती के कमरे से कोई आवाज ही नहीं आ रही थी, इस वजह से झमकू जोर से चिल्लाई, “जच्चा-बच्चा दोनों ही मर-खप गए क्या? आवाज सनते ही दाई ने दरवाजा खोला और बोली, “”झमकू दीदी भीतर आइए तो जरा, बहू को दर्द तो हो रहा है लेकिन कितनी धीरज वाली है, जरा देखिए। मुंह से एक आवाज नहीं निकाल रही। जरूर बेटा ही होगा, मेरा मन ऐसा कहता है। ”

झमकू की आंखों में चमक आ गई, “सच कहती हो ना?”

“मैंने क्या अपने बाल धूप में सफेद किए हैं...?”

बुढ़िया ने अपनी साड़ी के आंचल में बंधी दस रुए की नोट निकालकर दाई के हाथ में धर दी, “ऐसे ही शुभ-शुभ बोलती रहो, तुमको खुश कर दूंगी।”

भीतर के कमरे में यशोदा, झमकू, दाई और जन्मने को आतुर बच्चा अपनी-अपनी दुनिया में खोए हुए थे। और इधर घर के बाहर आजू-बाजू के लोग जमा होते जा रहे थे। सबके चेहरों पर दुःख जमा था। क्या किया जाए, किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। पड़ोस की गली के मनुभाई ने अपनी पत्नी जया को इशारे से बुलाया और कहा, “भीतर जाकर देखो कि अभी कितना और समय लगेगा?” जया को भीतर जाने का मन नहीं था। जया की कोई संतान नहीं थी और बुढ़िया झमकू को उसका वहां पर होना बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। परंतु, परिस्थिति ही ऐसी थी कि वह दरवाजा ढकेल कर झमकू के अंदर गई। कोई दिखाई नहीं दे रहा था। अंदर के कमरे से धीरे-धीरे आवाजें आ रही थी। अंदर जाऊं या न जाऊं-जया इसी दुविधा में वहां खड़ी रह गई। 

इधर, मनुभाई ने मोनजीबाबा की ओर देखा। मोनजीबाबा बीड़ी फूंकते खड़े थे। उन्होंने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा। खत्म हो रही बीड़ी को उन्होंने नीचे फेंककर उसे पैर से बुझाया और बोले, “एक तो घर में कोई मर्द जात नहीं, औरतें ही औरतें हैं...और ऐसे समय में बहू को प्रसव वेदना हो रही हैं...जिसको आना होगा वो तो आएगा ही, इस परिस्थिति से निपटना ही होगा...मन्या तेरी बीवी भीतर गई है, वो क्या वहीं रहने के लिए गई है...साला ये औरतें भी न...समय-परिस्थिति को समझती ही नहीं...सही कहते हैं, खुद मरे बिना स्वर्ग नहीं दिखता...चलो भाई ...अब खुद को ही जाना होगा। ”ऐसा कहकर मोनजी बाबा ने आगे बढ़कर जनार्दन का दरवाजा खटखटाया... “झमकू दादी..ओ झमकू दादी...मेरी मां दरवाजा खोल...सुन रही हो क्या....” बड़ी देर तक दरवाजा खटखटाने पर घर के आखरी कोने में बैठी झमकू के कानों तक आवाज पहुंची। 

“ये मरदुआ चरसी...इसको इतनी जल्दी किस बात की पड़ी है..देखूं तो जरा...” कहते हुए झमकू कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर आई। वहीं जया खड़ी दिखाई दी। उसे देखते ही झमकू की त्यौरियां चढ़ गईं। चिढ़कर उसने जया का हाथ पकड़ा और उसे घसीटकर बाहर खींचते हुए बोली, “चल निकल यहां से...” उसको खींचते हुए ही झमकू बाहर आई। सामने ही मोनजीबाबा खड़े हुए थे, “कहां आग लग गई जो इतनी चीख-पुकार मचाए हुए हो?” 

मोनजीबाबा यानी शेरदिल इंसान...गांव में लोग उन्हें मुंहफट के रूप में ही जानते हैं। उसकी जीभ मानो तलवार की धार...लेकिन इस समय झमकू को सामने पाकर उसकी भी बोलती बंद हो गई थी...उसको खबर सुनाने के लिए उसको शब्द ही नहीं सूझ रहे थे, “झमकू दादी..अब आपको कैसे बताऊं...मैं कह रहा था कि....”

इतने में ही भीतर से यशोदा की चीख सुनाई पड़ी। बुढ़िया झमकू वापस अंदर दौड़ गई। अंदर पहुंचते-पहुंचते ही उसके कानों में बच्चे की रोने की आवाज पड़ी। “हे ईश्वर, मेरी लाज रखना....हे भगवान बेटा ही होना चाहिए...” कहते-कहते ही वह अंदर भागी। दाई सिर झुकाकर अपना काम कर रही थी। “मुई, अब मुंह खोलकर अब कुछ बोलेगी भी कि नहीं..” दाई को चुप पाकर झमकू ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसकी ओर गुस्से से देखा। “लक्ष्मी आई है, लक्ष्मी..परी जैसी....घने-लंबे बाल...” झमकू की आंखों में आंसू आ गए। “पत्थर आया है बोलो, पत्थर गले पड़ा है... तू तो कुछ बोल ही मत कलमुंही...बड़ी आई कह रही है परी जैसी दिखती है...इतना सब कहने पहले तेरी जीभ क्यों न गल गई...यह खबर सुनाने से पहले उसका गला क्यों नहीं दबा दिया...गाड़ दे उसको...जा मेरी मां...मेरा इतना काम कर दे...”

यशोदा और बच्चे की ओर बिना देखे ही बुढ़िया झमकू बाहर की ओर भागी और वहां रखी हुई खटिया पर सिर पकड़कर बैठ गई। “पोते का मुंह देखे बिना ही मेरी मौत बदी है मेरे नसीब में...नहीं तो यह पत्थर न पैदा होता...” वह बड़बड़ाते जा रही थी। 

इतने में दरवाजे के पास आवाजें सुनाई देने लगीं। दरवाजे को धीरे से धकेल कर मोनजीबाबा, मनुभाई और कुछ लोग दबे पावों से अंदर आए। उन सभी को देखकर झमकू का सिर और चकराया। “इतनी हड़बड़ी में सब लोग क्यों आ गए...अंदर से किसी के मरने की खबर अभी नहीं आई है...क्या काम है जल्दी से बताओ...”

मोनजीबाबा झमकू के एकदम पास आ गए, “ऐसा है झमकू दादी, भगवान की इच्छा के आगे किसी का जोर नहीं चलता...जो आया है उसे एक न एक दिन जाना ही पड़ता है...”

झमकू गुस्से में भरकर एकदम खड़ी हो गई, “अरे, भीतर बेटी पैदा हुई है...बेटी...और अभी वो मरी नहीं है....तुम इतनी जल्दी रोना-धोना मचाने क्यों आ पहुंचे...”

इतने में भीतर से बच्चे के रोने की आवाज आई। मनुभाई झमकू के पैरों के पास बैठ गए। उनकी आंखों में पानी देखकर झमकू को अचरज हुआ। “अरे मन्या, ये कैसी ऊटपटांग बातें कर रहा है तू...आज अफीम कुछ ज्यादा हो गई है क्या...”

मनुभाई ने बुढ़िया के दोनों हाथ कसकर पकड़े, “मां, यशोदा को दर्द शुरू होने की खबर पाते ही घर के लिए निकला था....”

“हां ...बिचारा...पर बेटी देखकर कितना दुःखी होगा...”

“उसकी साइकिल को एक ट्रक ने टक्कर मार दी...और वह वहीं पर...जनार्दन हम सबको छोड़कर निकल गया...हमेशा के लिए... ”

बुढ़िया झमकू चौंककर एकदम से फिर उठ खड़ी हुई, “फालतू बकवास मत कर...मोनजीबाबा इस मन्या से कहें ...इस तरह का मजाक न....”

“ये मजाक नहीं है...झमकू...” मोनजीबाबा बोले और झमकू गश खाकर वहीं पर गिर पड़ी। 

रोने-धोने की आवाज सुनकर अंदर अर्धजागृत अवस्था से बाहर निकलती हुई यशोदा ने आंखें खोलीं। उसके पास ही छोटी-सी गुड़िया जैसी बच्ची हात-पैर चला रही थी। खिड़की से आ रही हवा के साथ ही उसके काले-लंबे रेशमी बाल धीरे-धीरे उड़ रहे थे...प्रसव वेदना के बावजूद यशोदा के चेहरे पर हंसी बिखर गई... ‘आने के पहले से ही अपने पिता की बातें सुनने लगी हो तुम तो.... देखना, आते ही होंगे वे...आते ही सबसे पहले तुम्हें प्यार से उठा लेंगे। तुम्हें मेरे पास रहने ही नहीं देंगे।’

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

................