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अग्निजा - 9

प्रकरण 9

 रणछोड़ दास की क्रूरता, शांति बहन की कारस्तानियां, जयश्री की परेशानियां और यशोदा की अमर हो चुकी लाचारी और दुर्बलता के कारण बिचारी केतकी का बचपन ही खो गया था। रोज-रोज का अपमान, भूखे रहना, अकेले रहना, रोते रहना, आते-जाते मार खाना, खेलकूद-सुख-शांति से वंचित रहना-इन सब बातों की अब उस नन्हीं सी जान को आदत हो चुकी थी। जयश्री को प्रायवेट ट्यूशन लगवाई गई थी, लेकिन केतकी जब होमवर्क करने बैठती तो उसकी खैर नहीं। रणछोड़ दास उसकी पुस्तके छीन कर कहीं ऊपर रख देता था। वह पढ़ाई करने बैठी नहीं कि शांतिबहन उसको कोई न कोई काम बता देती। काम न हो तो जानबूझकर पानी गिराकर उसे पोछा लगाने के लिए कह देती। जयश्री उसकी पुस्तकें छुपा देती। उसका होमवर्क फाड़ देती। केतकी की निर्विकार आंखें जब भगवान शंकर की तस्वीर की ओर जातीं तो उनमें हल्की सी चमक आ जाती। नाना का प्रेम, नानी का दुलार और चाचा की ममता उसकी आंसू भरी आंखों के सामने आ जाता। उन यादों से उसकी आंखों में कब आंसू बहने लग जाते ये केतकी को खुद भी समझ में नहीं आता था। 

एक दिन केतकी अपनी मां के गले लगकर खूब रोई, रोती ही रही। यशोदा ने धीमे से पूछा, “क्या हुआ बेटा?कुछ चाहिए है?” केतकी के मुंह से जैसे-तैसे शब्द निकले... “नाना के घर जाना है...” यशोदा को भी मायके जाने की बड़ी इच्छा होती थी लेकिन रणछोड़ दास और शांति बहन कभी भी इजाजत नहीं देते थे। दोनों आपस में धीरे-धीरे बात करते रहते कि एक बार यदि इसे वहां जाने दिया, और यदि इसने वहां जाकर यहां की सारी बातें बता दीं और यदि उन्होंने इसे वापस नहीं भेजा तो...? रणछोड़ दास के काम का बहाना, कभी जयश्री अकेले रह जाएगी, कभी शांतिबहन की झूठी बीमारी और बुढ़ापा...इन सभी कारणों की वजह से यशोदा के मायके जाने की इच्छा हमेशा ही मारी जाती थी। 

उस दिन भी यशोदा ने डरते-डरते धीरे से पूछा, “केतकी को अपने नाना की बड़ी याद आ रही है, हम दोनों चार दिनों के लिए जाकर आएं क्या?” इतना सुनते ही रणछोड़ दास ने पास में रखा हुआ तांबे का लोटा आईने पर दे मारा और हल्ला-गुल्ला करने लगा, “मां, यहां आकर देखो जरा...इसे मेरी नजरों से दूर ले जाओ।” शांति बहन दौड़ते हुए आईं। बेटे की नाराजगी देखकर यशोदा को आंखें फाड़कर देखने लगीं। “बेचारे को दो घड़ी तो आराम करने दे...सुख से रहने दे... आते साथ तेरी झंझट शुरू हो जाती है...अब क्या नया नाटक किया है तूने...? ”

यशोदा का हाथ पीठ के पीछे मरोड़ते हुए वह बोला, “ इसी से पूछो। उस हरामी लड़की को हम हमारे घर में संभालकर रख रहे हैं, खाने-पीने को दे रहे हैं, पढ़ा रहे हैं...फिर भी उसे अपने नाना के घर जाना है... शांति बहन ने नाटक चालू कर दिया। “सच कहें तो इन दोनों को हम तीनों जरा भी पसंद नहीं हैं...मायके में ही रहना था तो शादी करके हमारे सिर पर ये बोझा क्यों लेकर आ गई? तुम जाओ...मैं बुढ़िया करूंगी घर के काम जैसे-तैसे....मैं मर जाऊं तो भी वापस मत आना...जब तक मन करे, मायके में रहना...” 

रणछोड़ दास भी बोलने लगा, “मन भरने का सवाल ही नहीं उठता...फिर तो हमेशा के लिए ही वहां रहना होगा...सुबह ही निकल जा...अपना बोरिया-बिस्तर अभी बांधना शुरू कर दे...बाप के घर में खाने के लाले हैं...और बेटी को मायके जाने की पड़ी है...जाओ...दोनों वहीं जाकर मरो...फिर लेकिन मुझे मुंह मत दिखाना...” इतना कहकर रणछोड़ दास दरवाजे को एक जोरदार लात मारकर बाहर निकल गया। 

शांतिबहन यशोदा की तरफ देखती रहीं। “तुम आई हो तबसे मेरे बेटे का पैर घर में नहीं टिकता। दिन भर काम करके थक जाता है बेचारा, लेकिन घर में उसको दो घड़ी आराम नहीं मिलता। तुम दोनों को घर में लाने की दुर्बुद्धि मुझे कहां से हुई भगवान जाने...” इतना कहकर शांति बहन आगे बढ़ीं, वहीं पर उन्हें दरवाजे के पीछे अवाक खड़ी केतकी दिखाई दी। उन्होंने उसका हाथ खींचकर भीतर किया और बोलीं, “इस अभागिन के लक्षण देखो.... छुपकर सुन रही थी सब ...खून ही वैसा है...और ले जाओ इसको मायके....और न बिगड़ गई तो मेरा नाम शांति नहीं...”

उस रात रणछोड़ दास बहुत शराब पीकर घर आया। नशे में ही रास्ते में कहीं गिरने की वजह से ही शायद उसके हाथ-पैर और माथे पर खरोंच के निशान दिखाई दे रहे थे। खून भी निकल रहा था। उसे उस हालत में देखकर शांति बहन ने रोना शुरू कर दिया। लेकिन मां के पास ठहरने की बजाय वह सीधे बेडरूम में चला गया। केतकी के सामने ही कमर में बंधा हुआ चमड़े का बेल्ट निकाल कर यशोदा को मारना शुरू कर दिया। यशोदा के मुंह से चीख निकल गई। “साली...रां....मुंह से जरा भी आवाज मत निकालना....नाटक करने की जरूरत नहीं...” इतना कहकर उसने अपनी गंदी शर्ट की गठरी बनाकर उसके मुंबह में ठूंस दिया। और फटाफट चाबुक से मारने लगा...इतनी देर चुपचाप देखते हुए खड़ी केतकी रोते-रोते जमीन पर गिर गई। रणछोड़ दास ने यशोदा के मुंह से कपड़ा निकाला और बेल्ट को केतकी के गले में लपेटते हुए बोला, “इस हरामी को नाना के पास जाना है क्या? लाओ, उससे अच्छा है इसे उसके बाप के पास भेज देता हूं...” यशोदा दौड़ते हुए आकर उसके पैरों पर गिर पड़ी। “उसको छोड़िए...उसे जाने दें...मुझे नहीं जाना मायके...”

रणछोड़ दास ने पैरों से यशोदा का सिर उठाया। उसकी चोटी पकड़ी और बोला, “इसके आगे यदि मायके जाने का नाम भी लिया तो, पहले इस लड़की का गला दबाऊंगा और उसके बाद खुद रेल की पटरी पर जाकर सो जाऊंगा...उसके बाद तुम अपने बाप के घर जाकर दिवाली मनाना...हमेशा के लिए।”

यशोदा ने हाथ जोड़े, रोते-रोते बड़ी देर तक बिनती करती रही। तब कहीं जाकर रणछोड़ दास ने केतकी के गले से पट्टा हटाया। उसके बाद वह केतकी के साथ गंदे खेल खेलने लगा। यशोदा डरते-डरते ही उससे दूर हुई और केतकी का हाथ पकड़कर उसे कमरे से बाहर किया। अंदर आकर उसने दरवाजे की कुंडी लगाई और वहीं गिर पड़ी। कुछ क्षण बाद ही रणछोड़ दास ने उसे आवाज लगाई, “ अरे, इधर आ...मेरे पैरों से बूट निकाल...” यशोदा जैसे-तैसे उठ खड़ी हुई। उसने रणछोड़ दास के पैरों से बूट निकाले और उन्हें बाहर रखने के लिए चल पड़ी, उतने में रणछोड़ दास पीछे से चिल्लाते हुए आदेश दिया, “ऐसे नहीं...दोनों बूट अपने सिर पर रखकर ले जाओ।” यशोदा ने चुपचाप उसके कहे मुताबिक किया...इसके बाद रणछोड़ दास एक के बाद ऐसे ही गंदे-गंदे आदेश देता रहा, और यशोदा के सामने उनका पालन करने के अलावा कोई चारा ही नहीं था। एकाध काम करते हुए घिन भी आती तो केतकी का चेहरा सामने रखकर वह उसे सहन करते हुए चुप रही। करीब-करीब पूरी रात ही यशोदा असहाय होकर उसके सारे अत्याचार चुपचाप सहन करती रही। रणछोड़ दास आज जानवर से भी बदतर हो गया था। वह बड़बड़ा रहा था, “ साला सौ रुपए की बोतल में इतना मजा मिलता होगा, तो वो पैसे कम ही कहना होगा...” इतने में उसका ध्यान यशोदा की ओर गया। उसे महसूस हुआ कि यशोदा की हिचकियां कम हो गई हैं। शायद उसे नींद लग गई है। उसने उसे जोर-जोर से हिलाया, “ऐ कुलक्षिणी, उस बाप की तुझे याद आ रही है और यहां तेरा बाप कब से भूखा है, इसकी चिंता तुझे है? जा उठ, कुछ गरमागरम बनाकर ला... ” यशोदा बड़ी तकलीफ से उठकर खड़ी हुई। “अभी रात के तीन बज रहे हैं, अभी खाना खाएंगे क्या?” रणछोड़ दास ने उसे एक धक्का मारा। “ मेरा घर है, मेरा जब मन करेगा, मैं तब खाना खाऊंगा...तेरे बाप का क्या जाता है?” यशोदा रसोई घर की ओर बढ़ी तो वह अट्टहास करते हुए बोला, “सुन...वो क्या कहते हैं...हां...दाल ढोकली बनाना...वैसे तो मुझे वह बिलकुल पसंद नहीं...लेकिन आज तेरे हाथ की दाल-ढोकली मुझे अच्छी लगेगी...जा भाग और बनाकर ला तुरंत...”

और यशोदा जब रात को साढ़े तीन बजे दाल ढोकली बनाकर लाई तब रणछोड़ दास खर्राटे भर रहा था।  

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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