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अग्निजा - 8

प्रकरण 8

काल का पहिया तो आगे ही आगे बढ़ता रहा, लेकिन यशोदा को सुख-शांति, सुरक्षा इनमें से कुछ भी हासिल नहीं हुआ। मन का संतोष भी नहीं। वह हमेशा डर के साये में ही जीती रही। अपने बारे में और केतकी के लिए भी उसे असुरक्षा ही महसूस होती रही। रणछोड़ दास के मन में उसके और बेटी केतकी के प्रति जरा भी स्नेह और ममता नहीं है, यह उसे बड़ी जल्द ही मालूम हो चुका था। वह केवल उसकी रात के खेल का साधन है, उसकी जब इच्छा होती, उसे तैयार रहना ही पड़ता था। अपनी इच्छा-अनिच्छा, तबीयत नरम-गरम हो, या थकान की उसे कोई चिंता नहीं रहती थी। रणछोड़ दास को केवल और केवल उसके शरीर में ही रुचि है, यह जानकर यशोदा को बहुत दुःख हुआ। दिन में तो वह उसकी ओर देखकर हंसना तो छोड़ ही दें, चार शब्द बोलने को भी तैयार नहीं रहता था। केतकी को देखकर तो उसके चेहरे के भाव ही बदल जाते थे। उसकी आंखों से नफरत की ज्वाला भड़कने लगती थी। ऋतु-चक्र के चार दिनों में तो घर के सारे सदस्य उससे नाराज रहते थे। कुछ करना नहीं, किसी चीज को हाथ नहीं लगाना, सिर्फ शांति बहन के ताने सुनते रहना।

यशोदा को लगने लगा था कि उसका जो हो, सो हो लेकिन केतकी के सुख के लिए उसने जो कदम उठाया था, वह गलत साबित हुआ। बूमरैंग की तरह वापस उलट गया। इससे तो अच्छी तो वह बिना बाप की ही थी। बिना कारण की सुखी जीव को दुःख में डाल दिया। नाना के घर में वह कितनी आनंद में थी। यशोदा दिन-भर खटती रहती। शांति बहन उसे एक घड़ी आराम नहीं करने देती थी। हर काम में उसकी गलती निकालती। ताने मारती थी। उल्टी-सीधी बातें सुनाती। आते-जाते उसके मायके की बुराई करती थी। यशोदा मन ही मन कुढ़ती रहती थी। केतकी कभी खाली जमीन पर तो कभी फटी-पुरानी गोदड़ी पर अकेली पड़ी रहती थी। हमेशा भूखी, रोती रहती। भूल से भी यदि गोदड़ी गीली हो जाए तब तो उसकी खैर नहीं। जयश्री तो आते-जाते बिना वजह उसे मारती रहती थी। पैशाचिक आनंद के मामले में तो उसमें अपने पिता के गुण पूरे उतरे थे। 

यशोदा की गृहस्थी टेलीविजन के किसी हिंदी सीरियल की तरह उबाऊ और दुःखदायी था। और सास शांतिबहन तो वास्तव में किसी सीरियल की दुष्ट सास को लजा दे, ऐसी-ऐसी कारस्तानियां करती थी। यशोदा गैस पर चाय चढ़ाए तो उसमें ढेर सारी शक्कर डाल देती, तो कभी उसमें गिलास भर पानी डाल देती। और जब चाय अच्छी न मिले तो रणछोड़ दास सुबह-सुबह गुस्सा करता, कभी हाथ भी उठा देता। कभी शांति बहन सब्जी में अधिक नमक, मिर्च या जीरा झोंक देती तो कभी दाल में। इस वजह से रणछोड़ दास जब कभी चाय पीने या खाना खाने बैठे तो यशोदा के प्राण संकट में आ जाते। क्योंकि शांति बहन ऐसा कुछ न कुछ अवश्य कर देती थी, जिसकी सजा यशोदा को भुगतनी पड़ती थी। यशोदा को जनार्दन की याद आती। वह उसके हाथ के बने भोजन को कितने प्रेम से खाता था, खाते-खाते झमकू बुढ़िया से नजर बचाकर उसकी तारीफ भी करता था, कभी इशारों से, तो कभी आंखें मिचकाकर हंसते हुए प्रशंसा कर देता था। एक दिन उसके हाथों से बनी दाल-ढोकली उसे इतनी पसंद आई कि वह खुश होकर यशोदा के लिए शाम को मिठाई का डिब्बा और गजरा लेकर आ गया। दाल-ढोकली की याद आते ही यशोदा को लगा कि क्यों न जनार्दन का पसंदीदा व्यंजन यहां भी बनाकर देखा जाए। हो सकता है उसे खाकर रणछोड़ दास खुश हो जाए। उस रविवार दोपहर को यशोदा ने उसकी थाली में दाल-ढोकली परोसी और रणछोड़ दास ने गुस्से में भरकर उसकी ओर देखा। थाली जोर से दूर ढकेली और उठकर उसने यशोदा का सिर पकड़कर दीवार पर दे मारा। दांत पीसते हुए बोला, “पूरा खाना दाल, चावल, रोटी सब्जी बनाना जान पर आता है क्या? एक रविवार को ही घर में आराम से खाना खाने का समय मिलता तो है तो इस आलसी औरत को न जाने क्या-क्या सूझता है। मां, तुम इसको समझा दो। ” 

शांति बहन ने एकदम भोली बनने का नाटक करते हुए शिकायती स्वर में कहा, “मुझसे पूछे तब तो बताऊंगी न कि तुमको दाल-ढोकली बिलकुल पसंद नहीं। लेकिन इस महारानी को तो मुझसे कभी कुछ भी पूछने की गरज ही महसूस नहीं होती। उसका पति कमाता है। उसको जो अच्छा लगे, पकाए। मैं क्यों उसके आड़े आऊं? इसके अलावा, दिन भर अपनी बेटी में ही इतनी खोई रहती है कि उसे पास मेरे साथ बात करने के लिए समय ही कहां रहता है? बिचारी जयश्री की तरफ भी मुझे ही देखना पड़ता है। उस बच्ची का निरीह चेहरा मुझसे बिलकुल देखा नहीं जाता... ”

केतकी को प्यार और जयश्री की उपेक्षा की शिकायत सुनकर रणछोड़ दास के तन-बदन में आग लग गई। वह रसोई घर की ओर भागा और बेलन लेकर आया उसी से यशोदा को किसी जंगली की तरह मारने लगा। यह सब देखकर केतकी रोने लगी। यह देखकर रणछोड़ दास बेलन लेकर ही उसकी ओर दौड़ा। परंतु यशोदा बीच बचाव में उतर गई। वह केतकी के ऊपर झुक गई और रणछोड़ दास बेलन टूटते तक यशोदा की पिटाई करते रहा। 

घड़ी दोपहर के चार बजा रही थी, लेकिन यशोदा उठकर खड़ी नहीं हो पाई। अब ऐसा रोज-रोज होने लगा था। यशोदा की हालत दिनोंदिन अधिक खराब होते जा रही थी। कई बार उसके मन में आत्महत्या का विचार भी आता था लेकिन फिर केतकी के बारे में सोचकर वह अपने आपको संभाल लेती थी। 

जयश्री और केतकी बड़ी हो गईं। जयश्री को अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिला दिलवाया गया, केतकी की पढ़ाई के बारे में कोई बात ही नहीं करता था। यशोदा ने शांतिबहन के कान पर यह बात डाली, लेकिन उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। यशोदा ने रात को डरते-डरते रणछोड़ दास के सामने यह विषय उठाया तो उसने गुस्से में उसका हाथ मरोड़ा और हाथ वैसे ही पकड़कर करवट बदल कर सो गया। हाथ छूटने की बजाय वह और अधिक मुड़ता चला गया। यशोदा के मुंह से दर्द के मारे चीख निकल गई। रणछोड़ दास ने तेज आवाज में उसे चेतावनी दी, “दो बातें ध्यान देकर सुनो और हमेशा के लिए याद रखो। उस हरामी लड़की की तुलना मेरी जयश्री के साथ कभी मत करना और उस लड़की के खर्च के लिए मेरी तरफ से एक कौड़ी भी नहीं मिलने वाली। इसलिए उसकी पढ़ाई वढ़ाई के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता। ”

यशोदा ने जैसे-तैसे कहा, “यदि वह पढ़ेगी ही नहीं तो उसका आगे कैसे होगा?बड़ी होकर वह क्या करेगी?”

“भीख मांगेगी नहीं तो और कुछ करेगी, मुझे उससे कोई लेना-देना नहीं।”

“मेरी बात मानिए, उसे कम से कम सरकारी स्कूल में तो जाने दें...मैं आपके पैर पड़ती हूं..भीख मांगती हूं।”

“ठीक है...भेजो उसको किसी ऐरी-गैरी स्कूल में....पर हां, उसके कपड़े या पुस्तकों के लिए मुझसे कुछ मत मांगना....बात रहा हूं...उसके लिए तुम अपने बाप के पास से लेकर आओ, जो लाना हो....”

जशी को राहत मिली। वह अपने हाथ के दर्द को भूल गई, लेकिन रणछोड़ दास ने उसे उसी समय बिस्तर पर ढकेल दिया। 

“ऊंगली दी तो पहुंचा मत पकड़ना....कभी भी नहीं....ध्यान रखना।” इतना कहकर वह यशोदा पर झुका। संतुष्ट होने के बाद किसी जानवर जैसी आवाज में खर्राटे भरते हुए सो गया। उसकी आवाज में यशोदा के सिसकने की आवाज दब गई। 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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