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अग्निजा - 3

प्रकरण-3

यशोदा के कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था। वह पहली बार मां बनी थी और साथ-साथ विधवा भी हो गई थी। सुख और दुःख दोनों ही एकसाथ उसके हिस्से में आए थे। इस हादसे से वह निढाल हो गई थी। उसकी भूख-प्यास खत्म हो गई थी। सास की चुभने वाली नजरों का सामना करना उसके बस की बात नहीं थी। झमकू के हिसाब से यमराज या फिर वह ट्रकवाला गुनाहगार नहीं थी। उसका मानना था कि यह नवजात कुलक्षिणी ही जनार्दन की मौत का कारण थी। इन दोनों मां-बेटी ने उसे खा लिया। अब, सास-बहू के बीच जो कुछ नाता बचा था, वह भी समाप्त हो गया। दादी-पोती के बीच रिश्तों की डोर बंधने से पहले ही सबकुछ गुत्मगुत्था हो गया था। भरी जवानी में, प्रसव के समय विधवा हो चुकी और अभी-अभी मां बनी यशोदा के लिए बुढ़िया झमकू के मन में रत्ती-भर भी प्रेम, ममता या फिर सहानुभूति नहीं थी। उसकी ओर टकटकी लगाकर देखने वाली छोटी-सी बच्ची को देखकर उसे चिढ़ होती थी। उस नन्हीं बच्ची का गला दबाने के लिए मानो उसके हाथ मचल रहे थे। जनार्दन के शव के पास अंतिम यात्रा की तैयारी के लिए इक्ट्ठे हुए रिश्तेदार और अड़ोस-पड़ोस के लोगों के लिहाज से झमकू चुपचाप बैठी हुई थी। कुछ कह नहीं रही थी। कुछ बोल भी नहीं सकती थी। लोकलाज और शिष्टाचार की मजबूरी के दबाव में झमकू के भीतर गुस्से अंगारे की तरह सुलग रहा था। उसका शरीर इस गुस्से की ज्वाला में दहक रहा था। जनार्दन की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए पहुंचे यशोदा के मायके वालों से वह एक शब्द भी नहीं बोली। इतना ही नहीं, तो यशोदा की मां लखीमा जैसे ही उसके पास आकर गला फाड़कर रोने को हुई, झमकू बुढ़िया वहां से उठकर अंदर जाकर बैठ गई।  

सब लोग उससे कह रहे थे कि बहू रो नहीं रही, रो नहीं सकती-ये उसकी तबीयत के लिए अच्छा नहीं है। ऐसी हालत में वह अपनी नन्हीं बच्ची को कैसे संभाल पाएगी? उसको रुलाओ। उसके भीतर जमा हिचकियों को रुदन के रूप में बाहर निकालना जरूरी है। यदि वह भीतर ही भीतर इसी तरह घुटती रही, तो आज पैदा हुई बच्ची अपने बाप के साथ-साथ मां को भी खो देगी। अनाथ हो जाएगी। परंतु, बुढ़िया झमकू किसी की बात सुनने को ही तैयार नहीं थी, और उसे किसी की परवाह भी नहीं थी। 

झमकू को सिर्फ और सिर्फ अपने बेटे को गंवाने का, अब पोते का मुंह कभी न देख पाने का और अपने वंश के खत्म हो जाने का दुःख सता रहा था। छोटे-बड़े, पास-दूर के, जवान-बुजुर्ग सभी उसे समझाते रहे, मनाते रहे, लेकिन बुढ़िया के कानों के परदे तो बंद थे ही, उसने मानो अपने दिल के दरवाजों पर भी ताला जड़ रखा था। उसने उन्हें खोला ही नहीं। नन्हीं बच्ची रोती रहती परंतु उसकी ओर न यशोदा देख रही थी, न झमकू। कोई आसपास होता तो उस वह उस बिचारी को गोद में उठा लेता, चम्मच से पानी या दूध पिलाने का प्रयास करताष परंतु उस नवजात के लिए उसे पीना भी मुश्किल ही हो रहा था। तब, एक दादी मां ने दूध की कटोरी में कपड़े की चिंदी भिगोकर उसके मुंह में धरी। बच्ची उस चिंदी को धीरे-धीरे चूसने लगी। और उसने रोना भी बंद कर दिया। यशोदा अन्यमनस्क स्थिति में मौन होकर बैठी रहती। पति के हार चढ़े फोटो को देखती रहती। न कुछ बोलती थी, न कुछ सुनती। किसी ने उसकी बेटी को उसके पास लाकर सुला दिया। लेकिन यशोदा ने उसकी ओर देखा तक नहीं। किसी ने बच्ची को उसकी गोद में लाकर डाल दिया, परंतु उसने उस बच्ची को किसी काठ के टुकड़े की तरह उठाकर एक तरफ रख दिया और वहां से उठकर दूसरी तरफ बैठ गई।  

तेरहवीं के बाद मेहमान धीरे-धीरे वापसी की राह पकड़ने लगे। आखिर हर किसी का अपना जीवनचक्र है, जो किसी के दुनिया से चले जाने से रुकता तो नहीं है। चौदहवें दिन घर में सिर्फ झमकू, यशोदा, नवजात बालिका और घर-भर में पसरा हुआ दुःख ही बाकी रह गया। न तो सुबह किसी ने रोटी खाई, न दोपहर को खाना पकाया गया। झमकू बुढ़िया ने अपने भीतर धधक रहे दुःख, नाराजगी और क्लेष के ज्वालामुखी का सामना करने के लिए हाथ में जपनी ले ली और यंत्रवत उसके मुंह से जो शब्द निकल रहे थे वे थे, “बेटा ही देना भगवान...बेटा ही देना ...” अचानक वस्तुस्थिति का आभास होते ही बुढ़िया दुःख के आवेग में रोने लगी। उसके रोने की आवाज इतनी अधिक थी कि मुंडेर पर बैठे कबूतर भी घबराकर पंख फड़फड़ाते हुए दूर उड़ गए। बुढ़िया का प्रलाप बढ़ते ही जा रहा था। उसके शोर से छोटी घबराकर जाग गई और रोने लगी। सास का दुःख यशोदा से देखा नहीं गया। एक मां के ह्रदय का दुःख शायद एक मां ही समझ सकती है। वह उठकर अपनी सास के पास गई। उसके पैरों के पास बैठ गई। सास को सांत्वना देने के लिए उसे अपने पास खींचना चाहती थी, उसी क्षण मानो झमकू को बिजली का करंट लगा हो, झटका देकर उठ गई, “ दूर हो जा...दूर...मेरे पास भी मत आना कलमुंही...कुलक्षिणी कहीं की....तू और तेरी बेटी...दोनों ने मिलकर मेरे बेटे को खा लिया.... ”

यशोदा ने कोई उत्तर नहीं दिया, लेकिन वह वहीं पर अपनी सास के सामने रोते हुए खड़ी रही, “आप चुप हो जाइए पहले।” वह दौड़ते हुए अंदर गई और पानी का गिलास ले आई। सास के सामने गिलास रखते ही झमकू ने उसके हाथ से गिलास लेकर उसे फेंक कर मारा। यशोदा के सिर से खून की धार बहने लगी। “मेरे पास आई तो ठीक नहीं होगा....किसी न किसी की जान जरूर जाएगी...बता देती हूं...” 

“लेकिन मां, मेरी बात सुनिए तो सही...अब इस दुःख की घड़ी में ...इस घर में...हम ही तो....”

“मुझे इस घर में तेरे कदम नहीं चाहिए...अपनी गठरी बांध..और यहां से निकल जा...और उस पापिन को भी अपने साथ ले जा... ”

“लेकिन, मां मैं जाऊं कहां...?”

“कहीं भी जा....किसी कुएं में गिरकर जान दे दे...ट्रेन की पटरियों पर जाकर सो जा...मेरे बेटे को ट्रक ने उड़ा दिया ऐसे ही किसी ट्रक के नीचे आकर मर जा...पर मेरी आंखों से दूर हो जा...जा ...जाकर मर जा...”

“मां, मैं घर के सारे काम करूंगी....कपड़े-बर्तन साफ करूंगी...आपको संभालूंगी...इनकी आत्मा को भी शांति मिलेगी...”

“आत्मा को शांति? ठहर....” ऐसा कहते हुए बुढ़िया भागकर अंदर गई और कैरोसिन का डब्बा और माचिस लेकर बाहर आई...बुढ़िया की शकल, उसकी भागदौड़ और बातचीत करने का लहजा देख-सुनकर यशोदा तो डर ही गई...

“अभी के अभी यहां से निकल जा... नहीं तो तीनों में से किसी एक को मरा हुआ पाएगी...” इतना कहकर झमकू ने अपने सिर पर कैरोसिन का डब्बा उलट लिया। यशोदा ने बुढ़िया के पैर पकड़ लिए। 

“बस करिए मां, बस करिए...मैं चली जाती हूं...तुरंत....” यशोदा दौड़ते हुए अंदर गई और छोटी को किसी कठरी की तरह उठाकर दोनों हाथ जोड़ते हुए बाहर निकल गई। उसकी आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी। रोते-रोते ही वह जनार्दन के फोटो के पास गई, उसी समय झमकू चिल्लाई, “कम से कम मरने के बाद उसको शांति मिलने दे...उसकी फोटो को हाथ मत लगाना...कलंकिनी निकल जा यहां से...कुलक्षिणी....”

दोनों की चीख-पुकार सुनकर अड़ोसी-पड़ोसी भागकर आ गए। दरवाजा धकेल कर भीतर घुसते ही वहां का दृश्य देखकर उन्हें भी धक्का लगा। किसी की तरफ भी न देखते हुए यशोदा तुरंत बाहर निकल गई...आगे क्या? इस प्रश्न का विचार किए बिना ही वह तेज कदमों से आगे बढ़ती चली जा रही थी। इन सब झंझावातों से पूरी तरह बेखबर छोटी बच्ची को ठंडी हवा का स्पर्श सुखद लग रहा था....उसके लंबे, घने, काले रेशमी चमकदार बाल हवा के साथ उड़ते जा रहे थे...

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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