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अग्निजा - 4

प्रकरण 4

इधर, प्रभुदास बापू के घर की शांति न जाने कितने दिनों से खोई हुई थी। समय तो बड़ा कठिन था ही, लेकिन यह कठिन काल कब खत्म होगा इसका उत्तर उन्हें न वैद्यकीय शास्त्र में मिल रहा था, न ज्योतिषशास्त्र में ही। पहले से ही दुःख में डूबे, अपने विचारों में खोए हुए प्रभुदास बापू को आज कुछ अस्वस्थता महसूस हो रही थी। कुछ अशुभ घटने की आशंका उनके मन को डरा रही थी। अपने मन की शंका को दूर करने के लिए उन्हें अपने मन को एक चपत जमाई, “अब भी कुछ अशुभ होना बाकी रह गया है क्या...?” प्रभुदास बापू की यह अस्वस्थता लखीमां भी समझ रही थीं, लेकिन किया क्या जाए, यह उन्हें समझ में नहीं आ रहा था। वह भीतर गईं और दूध-हल्दी लेकर आ गईं। दूध का गिलास प्रभुदास बापू के सामने रख दिया। “रहने दो, कुछ खाने-पीने की इच्छा नहीं है।”

लखीमां की आंखों में चिंता के आंसू आ गए। “आप ही अगर ऐसा करेंगे तो बाकी लोग किसकी ओर ताकेंगे भला, सबको कौन संभालेगा?”

प्रभुदास ने निराश स्वरों में उत्तर दिया, “मैं कौन होता हूं सबको संभालने वाला? भोलेनाथ की इच्छा से ही सबकुछ होता है।”

लखीमां ने कोई शिक्षा-दीक्षा नहीं ली थी, लेकिन व्यावहारिक ज्ञान भरपूर था उनके पास। जीवन की पाठशाला और अनुभव की परीक्षा  में वे हमेशा अच्छे अंक पाती रही हैं। इसी कारण पूरा गांव उनसे सलाह लेता था। सबकी समस्याओं का समाधान सुझाने वालीं लखीमां को अपने परिवार पर पड़ी विपत्ति से बाहर निकलने की राह नहीं सूझ रही था। परिवार के लोगों को किस तरह समझाया जाए, उन्हें ही समझ में नहीं आ रहा था। फिर भी मजबूत थीं। निराशा से घिरे प्रभुदास बापू के सामने हार न मानते हुए बोलीं, “आपको मेरी कसम है यशोदा के पिता, कम से कम इतना दूध तो पी लें।”

प्रभुदास बापू ने दूध का गिलास हाथ में ले लिया, “इस शरीर को अब दूध-हल्दी की जरूरत कहां है? सच कहूं तो आज मन कुछ ठीक नहीं है। लग रहा है कि अभी कुछ और अमंगल और भयंकर घटित होने वाला है।”

लखीमां अपने पति के चेहरे को देखते रहीं। कुछ गंभीर मामला है, यह उनके ध्यान में आ तो गया, लेकिन ऐसा कहकर हाथ-पैर ढीले छोड़ देने से भला कैसे चलेगा? जैसी भी परिस्थिति सामने आएगी, उसका सामना तो करना ही पड़ेगा। “पहले आप जरा इन विचारों से बाहर आइए तो। हमारे जीवन में जो बुरा घटित हुआ है, उससे अधिक बुरा होने के लिए अब क्या बचा है?”

इस प्रश्न के उत्तर में मानो बाहर के दरवाजे के कुंडी जोर-जोर से आवाज करने लगी...ठक...ठक...ठक। पति-पत्नी एकदूसरे की तरफ देखने लगे। प्रभुदास बापू ने आंखें बंद करके भोलेनाथ को याद किया। लखीमां ने उठकर जैसे ही दरवाजा खोला वैसे ही तेज गति से यशोदा ने तेज गति से अंदर प्रवेश किया। मां को सामने देखते ही उससे गले लगकर रोने लगी। उस समय यशोदा को इस बात का भी ध्यान नहीं रहा कि उसने अपनी बेटी को आंचल में बांध रखा है। लखीमां ने कुछ भी नहीं कहा। प्रभुदास बापू को उठते हुए देखकर उन्होंने अपने पति को इशारे से रुकने के लिए कहा। फिर भी प्रभुदास उठ खड़े हुए और अंदर जाकर पानी का गिलास लेकर आ गए। वह गिलास उन्होंने यशोदा के सामने रखा। यशोदा की हिचकियां कम होने के बाद उसके सिर पर ममता का हाथ फेरा, “लो बेटा, पहले थोड़ा पानी पी लो।” यशोदा ने सिर उठाकर अपने पिता की ओर देखा और फिर से रोने लगी। उसी क्षण पीठ पर गठरी की तरह बंधी हुई बेटी भी रोने लगी। स्तब्ध लखीमां का ध्यान उसकी तरफ गया। उन्होंने बेटी को उस गठरी से बाहर निकाला। बच्ची पसीने से तरबतर थी। लखीमां ने बच्ची को ध्यानपूर्वक देखा। वह उसे पहली बार ही इतने ध्यान देख रही थीं। बच्ची को देखकर प्रभुदास बापू के चेहरे पर भी हल्की सी ही सही, प्रसन्नता की झलक उमड़ पड़ी। वह बोले, “दो, उस बच्ची को मेरे पास दे दो...आप यशोदा को संभालो।” प्रभुदास बापू ने बच्ची को अपने हाथों में लिया और वह बैठक की तरफ मुड़ गए। उसकी ओर ध्यान से देखने लगे और बच्ची ने रोना अचानक बंद कर दिया। शांत हो गई। लखीमां ने यशोदा को अपने पास प्रेम से बिठाया और उसकी सारी रामकहानी सुन ली। अपनी आपबीती सुनाते हुए यशोदा की आंखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। सास द्वारा कहे गए ‘कुलक्षिणी, कलंकिनी....’ जैसे शब्द दोहराते हुए तो उसकी आंखों से आंसू और ही तेजी से बहने लगते। 

लखीमां को पूरी बात समझ में आ गई। उनका व्यावहारिक ज्ञान कह रहा था, “कोई बात नहीं, झमकू बुढ़िया पर भी तो दुःख का पहाड़ टूट पड़ा है...दुःख और गुस्से के कारण उन्होंने ऐसा बर्ताव किया होगा...ऐसे संकट के समय कोई कमजोर मनःस्थिति का व्यक्ति न करने वाला काम भी कर बैठता है...लेकिन बाद में दिमाग ठंडा होने पर उसे अपने किए पर पछतावा भी होता है...तुम चिंता मत करो...उन्हें भी अपना सूद तो प्यारा होगा ही न...? समय की चोट, समय के साथ ही कम होती है...अजी, सुनते हैं...?” प्रभुदास बापू ने बिना सिर उठाए ही कहा, “जैसी भोलेनाथ की इच्छा....आप कुछ देर शांत रहें। यशोदा को कुछ खाने के लिए दें। तब तक मैं इस नन्हीं से बातें करता हूं...ए बेटा...मुझसे बात तो करो...”

यशोदा का जी भर आया, “जब से जन्म हुआ है, तब से पहली बार किसी ने इतने प्यार से उसे गोद में लेकर बात की होगी... बदनसीब...इससे अच्छा होता कि इस दुनिया में आई ही न होती।”

लखीमां ने उसके मुंह पर हाथ रखा। “ऐसा नहीं कहते. यदि हम औरतें ही ऐसा कहने लगीं तो ये दुनिया ही नष्ट हो जाएगी...वह अपना नसीब लेकर आई है न...?”

यशोदा चिढ़कर बोली, “कैसा नसीब, कौन-सा नसीब? ये आई और वे चले गए...मुझसे घर-द्वार छूट गया...इससे अच्छा तो....” लक्ष्मीमां ने यशोदा के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया। “अब इसके आगे ऐसा कुछ कहा या वैसा विचार भी अपने मन में लाया तो मेरा मरा मुंह देखोगी।” यशोदा ने अपनी मां की तरफ देखा और फिर उसके गले लगकर रोने लगी। जब वह थोड़ी शांत हो गी तो लखीमां बोलीं, “तुमको इस उम्र में भी मां के गले लगने की इच्छा होती है, तो उस छोटी सी बच्ची को क्या लगता होगा इसका विचार तुमको नहीं करना चाहिए? वह बिचारी कुछ बोल नहीं सकती, फिर भी मन ही मन में तो कुढ़ती होगी। तुम्हारे इस तरह के बर्ताव का भला क्या मतलब है? कुछ समझ में आ रहा है?”

इतना सुनते ही यशोदा मानो गहरी नींद से चौंककर जागी और प्रभुदास बापू के पास दौड़कर गई, उनके हाथ से छोटी को उठा लिया। उसके निष्पाप चेहरे को देखती ही रही। आंखों से फिर आंसू बहने लगे। रोते-रोते ही उसने बेटी के माथे, गाल और हाथ-पैर को चूमना शुरू कर दिया...रोते-रोते ही कहने लगी, “मुझे माफ कर दो...मेरी मां मुझे माफ कर दो...ऐसा पाप फिर मेरे हाथों से कभी न हीं होगा...” ऐसा कहते-कहते वह छोटी को लेकर अंदर के कमरे की दौड़ गई। प्रभुदास बापू ने लखीमां को इशारा किया तो वह भी उसके पीछे-पीछे अंदर गईँ। यशोदा ने पहली बार अपनी बेटी को अपनी छाती से लगाया था। मुंह में अमृतधारा लगते ही छोटी भी मानो अकाल से बाहर निकल कर उस सहस्त्रधारा का पान करने लगी...लखीमा दरवाजे से लगकर खड़ी होकर उस दृश्य को देखती रहीं। यशोदा की आंखों से ममता का सैलाब बह रहा था और हाथ छोटी के सिर पर फिर रहा था...लंबे, घने, रेशमी काले और चमकदार बालों को मां के प्रेम का पहला-पहला स्पर्श मिल रहा था...  

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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