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डार्विन हर कोई बन सकता है


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प्रश्न : डार्विन का सिद्धांत क्या है ?
उत्तर : चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन, (1809 to 1882) ने क्रमविकास (evolution) के सिद्धान्त का आविष्कार किया. इससे से पहले लोग यही मानते थे कि सभी जीव-जंतु ईश्वर ने बनाये हैं, और ये जीव-जंतु हमेशा से इसी रूप मे ही रहे हैं, यानी वे हजारों साल पहले भी ऐसे ही थे, जैसे आज दिखाई देते हैं.

परन्तु डार्विन के क्रमविकास के सिद्धान्त की खोज के बाद पुरानी मान्यता की जगह, विकासवाद की नयी धारणा ने अपना स्थान स्थापित कर लिया.
क्रमविकास के सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति क्रमिक परिवर्तन द्वारा अपना विकास करती है. उनका मानना था, कि विशेष प्रकार की कई प्रजातियों के पौधे, जीव, जंतु पहले एक ही जैसे थे, लेकिन दुनिया की अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों में जीवित बचे रहने के संघर्ष के चलते, उनकी रचना में बदलाव होता चला गया, इस वजह से एक ही जाति के पौधे, जीव, जंतुओं की कई प्रजातियां बन गईं.


डार्विन के सिधांत के अनुसार, कहीं भी रहने वाले लोगों में किसी ना किसी रूप में विविधता होती है, जेसे किसी की आँख, कान, नाक छोटी है, व् किसी की बड़ी. और हर एक गाँव, शहर, द्वीप, एक सिमित आबादी को संभाल सकता है, यानी पालन पोषण कर सकता है. यदि जनसंख्या बेहिसाब बढने लगे, तो अपने क्षेत्र में रहने के लिए लोगों में प्रतियोगिता होगी.

जो सबसे फिट होंगे वे ही बचेगें, बाकी या तो समाप्त हो जायेंगे या उनको वहां से दुसरी जगह जाना पड़ेगा, और उनमें नई जगह की जरूरतों के अनुसार परिवर्तन आता चला जाएगा. जब ऐसा हजारों साल चलता है, तो नये जीव जंतु अस्तित्व में आ जाते हैं.


डार्विन ने बताया है, बंदर को मनुष्य का पूर्वज माना जाता है, व् स्थान व् समय की जरूरतों के अनुसार उनका विकास होता गया व् वे क्रमिक विकास द्वारा धीरे धीरे परवर्तित हो कर मानव बन गये, यानी डार्विन के सिद्धांत के अनुसार सभी जीव अपने पूर्वजों से आते हैं, उनका ही विकसित रूप हैं.


डार्विन जब एच. एम. एस. बीगल जहाज जो प्रक्रति विज्ञान शोध के लिए जा रहा था, तो रास्ते में जहां-जहां जहाज रुका, डार्विन वहां के जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, पत्थरों-चट्टानों, कीट-पतंगों को जांचता-परखता और उनके नमूने जमा करता था, जो उसको इंग्लैंड भेजने होते थे. वे जिस भी द्वीप पर जाते थे, तो वहां पेड़, पोधों, जानवरों के नमूनों में, उन्हें एक चीज हमेशा समान दिखाई देती थी, कि वहां के पत्थरों मे पाए गए हजारों साल पहले के *जीवाश्मो में, और उस जगह के वर्तमान के जानवरों में एक तरह की समानता होती थी.
तो उन नमूनों के विश्लेषण से उन्हें यह रहस्य पता चला की वे जानवर जैसे आज दिखते है, उनके शरीर का ढांचा हजारों साल पहले जीवाश्मों पर पाए गए जानवरों के ढांचे के सामान था, चाहे उनका आकार अलग हो. डार्विन को इससे यह अहसास हुआ कि किसी भी जगह मे, आज के रहने वाले जीवों का उसी जगह पर लाखों साल पहले रहने वाले जीवों से जरूर कोई रिश्ता है.

* जीवाश्म: ये पानी के बहाव द्वारा मिट्टी और बालू से एकत्रित होने और दीर्घ काल बीतने पर शिलाभूत होने से बने हैं. इन में जो भी जीव फँस गए, वो भी शिलाभूत हो गए. ऐसे शिलाभूत अवशेषों को जीवाश्म कहते हैं. जीवाश्मों की आयु स्वयं उन स्तरों की, जिनमें वे पाए जाते हैं, उनकी आयु के बराबर होती .*"


इसी तरह उन्होंने देखा अलग अलग द्वीपों पर पाई जानी वाली चिड़ियों की चोंच के आकार में फर्क था, किसी की चोंच छोटी थी किसी की बड़ी. उन्होंने देखा कुछ द्वीपों पर खाने के लिए बीज थे, और कुछ पर फूल. जिन द्वीपों पर खाने के लिए बीज थे, वहां चिड़िया की चोंच छोटी और मजबूत थी. जिन द्वीपों पर खाने के लिए फूल थे वहां चिड़िया को खाने के लिए फूल के भीतर जाना पड़ता था, वहां लंबी चोंच वाली चिड़िया थी.


समय के साथ जब द्वीप दूर हुए तो जहां बीज थे, वहां वो चिड़िया जिसकी चोंच औरों के मुकाबले छोटी और थोड़ी मज़बूत रही होगी, उसे खाने को मिला होगा. और जिस चिड़िया की चोंच कमजोर रह गई होगी, वह भूखी मर गई होगी. इस कारण से मजबूत चोंच वाली चिड़िया ने अगली पीढ़ी मे जब जन्म दिया होगा तो उसके बच्चों की चोंच भी अपनी मां की भांति, मजबूत रही होगी.

ऐसा क्रम जब हजारों सालों तक चलता रहा होगा, तो धीरे-धीरे, उस जगह से कमजोर चोंच वाली चिड़िया लुप्त हो गई होगी और वातावरण के अनुकूल रहने वाली मजबूत चोंच वाली चिड़िया की नयी प्रजाती अस्तित्व में आती चली गई होगी, यानी अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों में जीवित बचे रहने के संघर्ष के चलते उनकी रचना में बदलाव होता चला गया. इस तरह प्रकृति क्रमिक परिवर्तन द्वारा अपना विकास करती रहती है, यही क्रमिक परिवर्तन सभ्यताओं के साथ हुआ व् वेदों ने इसे संकलित किया.