Ishq a Bismil - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

इश्क़ ए बिस्मिल - 16

कुछ देर के लिए ख़ामोशी छा गई थी। ज़मान साहब उसके जवाब के इंतजार में थे। अरीज की नज़र फ़र्श पर टिकी हुई थी। उसने सर उठाकर कहा था “मैं अपने बाबा से बहुत प्यार करती थी इसलिए नहीं के वह मेरे बाबा थे बल्कि इसलिए कि वह बहुत अच्छे इंसान थे। बहुत नर्म दिल थे और अपनी ज़ुबान के पक्के। वह कभी भी किसी बात पे वादा नहीं करते थे इसलिए नहीं कि वह निभा नहीं सकते थे बल्कि इसलिए कि उनकी आम लफ़्ज़ों में कहीं बात भी पत्थर की लकीर जैसी होती थी। अगर उन्होंने कुछ कह दिया है तो वह हर हाल में उसे कर गुजरेंगे, तब ही तो उन्होंने एक लड़की से मुहब्बत की तो उसे निभाने के लिए पीछे अपना सब कुछ छोड़ दिया।“ उसके होंठों पर हंसी थी मगर आंखें भीग गए थे। वह थोड़ी देर के लिए चुप हुई थी फिर उसने कहा था।
“ मुझे लगता है इसके पीछे या तो परवरिश थी या फिर उनका ख़ून और आप ने अभी अभी मुझे बताया आपकी परवरिश और मेरे बाबा की परवरिश साथ साथ हुई थी और ख़ून भी एक ही खानदान का है। इस तरह तो आप भी मेरे बाबा जैसे ही हुए और मुझे अपने बाबा पर पूरा भरोसा था अगर वह मुझसे कहते के अंधे कुएं में कूद जाओ तो मैं कूद ने में एक लम्हा भी नहीं लगाती क्योंकि वह कभी मेरे लिए कुछ बुरा सोच ही नहीं सकते थे, उस कूंए में मेरे लिए कुछ भलाई ही होगी।“ वह चुप हुई थी और ज़मान ख़ान को अपना जवाब मिल गया था।
वह बहुत खुश हुए थे जैसे अरीज ने उन पर बहुत बड़ा एहसान किया हो।
अरीज ने उठ कर पैकिंग की थी। कुछ निशानियां अपने मां और बाबा की अपने साथ ले ली थी। इसी घर में उसकी मां ने दम तोड़ा था। उन्होंने आख़री सांस इसी घर में ली थी अरीज को यह घर छोड़कर जाने का दिल नहीं कर रहा था मगर वह यहां रह भी नहीं सकती थी, उसे जाना ही था, इसलिए वह बार बार इस घर के दरों दीवार को देख रही थी, उन्हें महसूस कर रही थी जैसे वह उस से कुछ कहना चाहते हों।
उसने अज़ीन को निंद से उठाकर तैयार किया और उसे लेकर ज़मान ख़ान से साथ घर से निकल गई। अड़ोस-पड़ोस से मिल कर घर की चाबी मकान मालिकन को सौंप कर गाड़ी में बैठ गई और भीगी आंखों से उस घर को, उस मोहल्ले को और श्यामनगर को अलविदा कह दिया।
वह और अज़ीन पीछे बैठे थे और ड्राइवर के साथ ज़मान ख़ान बैठे थे। वह काफ़ी कशमकश में लग रहे थे। कलकत्ता पहुंचते ही उन्होंने ड्राइवर को टीपू सुल्तान मस्जिद में गाड़ी रोकने को कही थी। ड्राइवर ने वैसा ही किया था। वह अरीज और अज़ीन को ड्राइवर के साथ गाड़ी में छोड़कर खुद मस्जिद के अंदर चले गए थे। मस्जिद में उन्होंने अपने मोबाइल से किसी को काॅल लगाई थी और उसे भी मस्जिद में बुलाया था। उसके बाद उन्होंने इशा(रात) की नमाज़ अदा की थी। नमाज़ के बाद उन्होंने रो- रो कर अल्लाह की बारगाह में दुआ की थी। अरीज यही सोच रही थी कि ज़मान ख़ान इशा की नमाज़ अदा कर रहे होंगे और की नमाज़ थोड़ी लम्बी होती ही है इसलिए वह पुरसुकून थी।
लगभग आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद एक कीमती चमचमाती हुई गाड़ी उनके गाड़ी के पास रूकी थी और उसमें से एक बहुत ही हसीन नौजवान मर्द ग्रे कलर के सूट में बाहर निकला था। अरीज ने गाड़ी को देखा मगर उस से निकलते हुए आदमी की शक्ल को नहीं देख पाई क्योंकि उसने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था, वह अपने ही ख़्यालों में गुम थी।
“बाबा सब ख़ैरियत? आपने मुझे इतनी urgently बुलाया?” उमैर फ़िक्र मन्द था। ज़मान ख़ान ने उसे जितनी जल्दी हो सके कहकर टीपू सुल्तान मस्जिद बुलाया था।
“फ़िक्र की कोई बात नहीं और है भी। मुझे समझ नहीं आ रहा है तुम से कैसे कहूं? ज़मान साहब बहुत परेशान दिख रहे थे। उनकी इस बात पर उमैर भी घबरा गया था।
“क्या बात है बाबा?” उमैर ने उनके कन्धे पर हाथ रखा था।
“मैं अगर तुम से कुछ कहूंगा या फिर मांगूंगा तो क्या तुम मुझे दोगे?” वह बच्चों की तरह पहली पूछ रहे थे। उमैर को बहुत हैरानी हुई थी उनकी बात पर।
“बाबा आपको मुझ से कुछ मांगने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि अब तक आपने ही मुझे सब कुछ दिया है, मैं कौन होता हूं भला आपको कुछ देने वाला।“ उमैर ने सच कहा था। अब तक जो कुछ भी उसे मिला था तो वह सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वह ज़मान ख़ान का बेटा था।
“तब तुम यह मानते हो कि अब तक मैंने तुम्हें सब कुछ दिया है, तो क्या आज जो मैं तुम से मांगूंगा तो तुम मुझे इनकार नहीं करोगे?” वह उसे इम्तिहान में डाल रहे थे। उमैर को उसके बाबा की तबीयत पर शक हो रहा था। उसने उन्हें कुछ देर बड़ी ग़ौर से देखा। वह काफ़ी संजीदा दिख रहे थे।
“बोलो उमैर?” उसे चुप देख कर उन्होंने उससे कहा था।
“हां बाबा। मैं इनकार नहीं करूंगा।“ उसने बड़े यक़ीन से कहा था। उसके बाबा आख़िर उस‌ से क्या मांगते सब कुछ तो उन्हीं का था। जायदाद, दौलत की उमैर को हवस नहीं थी। मां बाप की ख़िदमत से वह इन्कार करने वाला बन्दा नहीं था।
“मैं तुम्हारा निकाह करवाना चाहता हूं।“ उमैर को अपनी कानों पर यक़ीन नहीं हुआ था। यह कौन-सा वक़्त था और कौन सी जगह यह बात करने के लिए। वह सिर्फ़ 25 साल का था कोई 35 साल का नहीं कि उसके बाबा को उसकी शादी की फ़िक्र सताने लगती। पिछले साल ही तो उसने office जोइन किया था।
“मुझे समझ नहीं आ रहा बाबा। आप क्या कह रहे हैं?” उसने नासमझी में एक फीकी मुस्कान लेकर कहा।
“मैं तुम्हारा निकाह करवाना चाहता हूं उमैर, अपनी पसंद की लड़की के साथ और अभी, इसी वक़्त, इसी मस्जिद में।“ ज़मान ख़ान ने एक एक लफ्ज़ बहुत ठहर ठहर कर कहा था ताकि उमैर को अपने कानों पर यक़ीन आ जाए कि उसने जो सुना है वह कुछ ग़लत नहीं सुना है।
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