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पत्थर दिल...

आज रामरतन उपाध्याय जी बहुत खुश थे क्योंकि आज ही उन्होंने वी.डी.ओ.के पद का कार्यभार सम्भाला था और वो अपनी आँफिस की गाड़ी में उन गाँवों का दौरा करने जा रहे थे जो उनके अण्डर में थे,पहले वो सिलकुआ गाँव जाना चाहते थे क्योंकि उस गाँव में एक सालों पुराना मंदिर है जो पत्थरदिल देवी के नाम से जाना जाता है,उन्होंने उस गाँव का बहुत नाम सुना था ,लोंग कहते हैं कि उस देवी के मंदिर से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता ,जो भी उनके द्वार पर जाता है उसकी मुराद जरूर पूरी होती है,रामरतन जी के मन में हमेशा से एक प्रश्न ये उठता था कि देवी तो दयालु होतीं हैं तो उनका नाम आखिर पत्थरदिल देवी क्यों पड़ा?
कुछ ही देर में वें गाँव पहुँच गए और उनकी गाड़ी सरपंच जी के घर के सामने थी,उनका ड्राइवर बोला....
साहब जी!सरपंच जी का घर आ गया,आप यहीं ठहरें ,मैं उन्हें बुलाकर लाता हूँ....
और फिर कुछ ही देर में ड्राइवर सरपंच जी को बुला लाया,सरपंच रामरतन जी को अपने घर के भीतर ले गए,चाय नाश्ता करवाया,चाय नाश्ता करने के बाद रामरतन जी ने सरपंच जी से कहा....
सरपंच जी!क्या आप मुझे पत्थरदिल देवी के दर्शन करवा सकते हैं?
तब सरपंच जी बोले.....
क्यों नहीं...नेकी और पूछ पूछ...!!
और फिर सरपंच जी भी वी.डी.ओ. साहब की सरकारी गाड़ी में उनके साथ बैठकर मंदिर पहुँचे,मंदिर के दर्शन करने के बाद वी.डी.ओ.साहब ने सरपंच जी से पूछा....
सरपंच जी! आखिर इस मंदिर का नाम पत्थरदिल देवी मंदिर क्यों पड़ा?
तब सरपंच जी बोले....
बहुत लम्बी कहानी है साहब!मेरी दादी मुझे सुनाया करतीं थीं।।
आपको एतराज़ ना हो तो वो कहानी आप मुझे सुना सकते हैं,रामरतन जी बोलें...
जी!जरूर!चलिए उस पेड़ के तले जाकर बैठते हैं,फिर मैं आपको पत्थरदिल देवी की कहानी सुनाऊँगा और फिर सरपंच जी इतना कहकर रामरतन जी के साथ बरगद के पेड़ तले बैठकर पत्थरदिल देवी की कहानी सुनाने लगें जो कुछ इस प्रकार थी.....
बहुत पुरानी बात है,तब अंग्रेजों का जमाना था,इस गाँव के जमींदार ठाकुर सूर्यप्रताप सिंह थें,उनके दो बेटे थें,बड़े बेटे का नाम चन्द्रदर्शन सिंह और छोटे बेटे का नाम रविदर्शन सिंह था,दूसरे बेटे को जन्म देते समय उनकी पत्नी का देहान्त हो गया था,उनकी पत्नी के जाने के बाद फिर सूर्यप्रताप सिंह ने दूसरा ब्याह नहीं किया,सूर्यप्रताप सिंह की माँ ने ही दोनों बच्चों को सम्भाला,जब उनके बेटे जवानी की कगार पर थे तो उनकी माता जी भी चल बसीं,सूर्यप्रताप सिंह के पिता सूर्यप्रताप के बचपन में ही डाकुओं के साथ मुठभेड़ में चल बसे थे,अब माँ के चले जाने बाद सूर्यप्रताप जी की गृहस्थी अस्त ब्यस्त हो गई थीं,इसलिए उन्होंने अपने बड़े बेटे चन्द्रदर्शन जो कि उस समय अठारह वर्ष का था उसका ब्याह कर दिया....
सूर्यप्रताप जी थोड़े गरीब घर की लड़की को अपनी बहु बनाकर लाएं थे सोचा था कि गरीब घर की लड़की अच्छी तरह से जिम्मेदारियों को निभाएंगी,बहु का नाम दमयन्ती था,बहु की उम्र उस समय लगभग सोलह साल रही होगी,सूर्यप्रताप जी अपने इस जमींदारी के कार्य से मुक्ति पाना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपनी सारी जमींदारी अपने बड़े बेटे चन्द्रदर्शन को सौंपने की सोची,तब बड़ी बहु दमयन्ती ने अपनी अकल लगाई और देवर रविदर्शन को शहर पढ़ने भेजने की सलाह अपने पति को दी,दमयन्ती सोच रही थी कि ससुर जी तो अब ज्यादा दिनों के मेहमान नहीं है और देवर भी अगर शहर में पढ़ने लगा और वहीं नौकरी करने लगा तो सारी जमींदारी उसकी और उसके पति की होगी।।
दमयन्ती की सलाह पति को अच्छी लगी और पति चन्द्रदर्शन ने पिता सूर्यप्रताप को मशविरा दिया कि रविदर्शन को पढ़ने के लिए शहर भेज दिया जाएं और ठाकुर सूर्यप्रताप जी ये बात मान भी गए,रविदर्शन शहर में पढ़ने लगा,उसे खर्चे के लिए मनमाना पैसा मिलता तो वो कहीं थियेटर देखता तो कहीं सिनेमा देखता,उसने शहर जाकर अब धोती कुरता छोड़कर कोट पतलून पहनना शुरू कर दिया था,अब वो मनमाना पैसा शराब पीने में भी खर्च करने लगा,उसके साथ साथ उसके आवारा दोस्त भी उसका पैसा उड़ाते,कुछ दिनों में उसने बदनाम गलियों का भी रूख कर लिया और वो एक कोठे वाली छबीलीबाई के कोठे पर भी जाने लगा,छबीलीबाई को मनमाना पैसा मिलता तो वो भी रविदर्शन को फाँसकर रखने लगी,अब जब उड़ती उड़ती ये खबर ठाकुर सूर्यप्रताप तक पहुँची तो उन्होंने रविदर्शन को गाँव बुलवाने का सोचा,उन्होंने ये भी सोचा कि जब रविदर्शन गाँव वापस आ जाएगा तो किसी सुन्दर कन्या से उसका ब्याह करवा देगें जिससे उसका उस कोठेवाली से पीछा छूट जाएगा.....
अब रविदर्शन हमेशा हमेशा के लिए गाँव वापस आ गया,बाप से डरता था इसलिए मुँह से चूँ ना निकली और चुपचाप गाँव में रहने लगा,इसी बीच सूर्यप्रताप सिंह जी ने एक सुन्दर सुशील कन्या देखकर रविदर्शन के हाथ पीले कर दिए,बहु विदा होकर घर आ गई लेकिन सुहागरात के दिन रविदर्शन रात भर ना लौटा,जब बाप को पता चला तो वें उसे गालियों की बौछार के साथ घर वापस लिवा लाएं,दूसरे दिन रविदर्शन बहु के साथ कमरें में तो था लेकिन केवल बाप के डर से,उसने बहु का घूँघट तक नहीं उठाया और ना ही उससे बात की.....
ये क्रम जारी रहा,दो साल बीत गए रविदर्शन और विन्ध्यवासिनी के ब्याह को लेकिन इन दो सालों में रविदर्शन ने विन्ध्यवासिनी का मुँख ना देखा,दिन में विन्ध्यवासिनी सदैव घूँघट में रहकर ही घर के काम निपटाती तो रविदर्शन को कभी उसका मुँख देखने का मौका ही नहीं मिलता और ऊपर से जब देखो तब रविदर्शन की भौजाई दमयन्ती भी रविदर्शन के विन्ध्यवासिनी के खिलाफ कान भरती रहती कि ये ऐसी है ये वैसी है,क्योंकि दमयन्ती को लग रहा था कि अगर पति पत्नी एक हो गए तो वें अपना हिस्सा माँगने लगेंगें,
ऐसे ही दिन बीत रहे थे कि ठाकुर सूर्यप्रताप सिंह जी का देहावसान हो गया,अब उनके जाने के बाद रविदर्शन पंक्षी आजाद हो चुका था,अब क्या था वो शहर से छबीलीबाई को गाँव ले आया और उसे गाँव के दूसरे मकान में ठहरा दिया,अब रात रात भर महफिलें जमती,नाच गाना होता और जाम से जाम टकराते और एक दिन छबीलीबाई ने रविदर्शन से कह दिया कि वो रविदर्शन की हवेली आकर रहना चाहती है,फिर क्या था रविदर्शन ने उसकी इस इच्छा को पूरा कर दिया और छबीलीबाई हवेली आ गई,उस दिन पूरी हवेली में जश्न का माहौल था,शहर से रविदर्शन के शराबी दोस्त भी आएं, छबीलीबाई की आवभगत में विन्ध्यवासिनी को लगाया गया और विन्ध्यवासिनी बिना किसी नानुकुर के भाग भाग कर सारा काम कर रही थीं......
अब रविदर्शन ने विन्ध्यवासिनी को आदेश दिया कि शराब के जाम उसके दोस्तों और छबीलीबाई के सामने परोसें जाएं,विन्ध्यवासिनी जाम बनाकर सबके पास ला ही रही थी वो घूँघट में थी कि उसकी पायल उसकी साड़ी के नीचे की किनारी में उलझ गई और वो गिर पड़ी,साथ में सारे जाम भी गिर गए,अब रविदर्शन को बहुत गुस्सा आया और उसने विन्ध्यवासिनी का हाथ पकड़कर सबके सामने घर से निकालते हुए कहा....
निर्लज्ज,गँवार औरत तू किसी काम की नहीं,निकल जा मेरे घर से,
इस बीच अब भी विन्ध्यवासिनी का घूँघट ना सरका था,वो केवल रो रही थी उसके आँसू टप टप करके धरती भिगो रहे थे,जब विन्ध्यवासिनी घर से ना गई तो रविदर्शन ने उसे धक्का देकर हवेली से निकाल दिया,साथ में उसका सामान भी फेंक दिया,विन्ध्यवासिनी रात भर हवेली के दरवाजे पर रोती रही और रविदर्शन भीतर जश्न मनाता रहा.....
विन्ध्यवासिनी फिर गाँव से बहुत दूर चलकर एक बरगद के पेड़ के नीचें रहने लगी,धीरे धीरे उसने वहाँ झोपड़ी बना ली,उसके जेठ और जेठानी उसे लेने आएं लेकिन वो वापस ना गई,ऐसे ही कुछ दिन बीते रविदर्शन नदी के किनारे नौकाविहार कर रहा था,उसने एक सुन्दर युवती को वहाँ स्नान करते देखा,उस युवती के केश खुले थे और पानी पड़ने से उसका गीला बदन और भी दमक रहा था,उसकी पतली कमर, गठीला शरीर ,सुन्दर आकर्षक नैन नक्श और उसकी चंचलता ने रविदर्शन का मन मोह लिया,वो उसके पास जाकर बोला.....
कौन हो तुम?क्या कोई अप्सरा हो?
रविदर्शन की बात सुन कर वो बोली....
तुम कौन हो?कोई लफंगा जो एक लड़की को नहाते हुए देख रहा है,लाज नहीं आती।।
मैं तो तुम्हारा उपासक बन गया हूँ ,रविदर्शन बोला।।
अच्छा!चल चल जा यहाँ से,मैं तेरे जैसों के मुँह नहीं लगती और इतना कहकर वो चली गई....
तब पीछे से रविदर्शन चिल्लाया.....
चैन चुराकर जा रही हो नाम तो बताती जाओं...
तब वो लड़की बोली...
रंगीली.....रंगीली....नाम है मेरा....
कल मिलोगी,रवि ने पूछा....
वो बोली,पता नहीं.....
फिर क्या था,रंगीली तो रोज ही स्नान के लिए वहाँ आती थी,रवि भी आने लगा और आखिरकार रवि ने रंगीली का दिल जीत ही लिया,अब उसने छबीलीबाई को भी गाँव से निकाल दिया था,वो तो बस रंगीली के प्यार में ही डूब गया और रंगीली भी रविदर्शन को बहुत चाहती थी,अब रविदर्शन ने रंगीली के सामने शादी का प्रस्ताव रखा और रंगीली ने स्वीकार भी कर लिया,उसने रवि से दूसरे दिन अपने घरवालों को उसी नदी के किनारे लाने को कहा,क्योंकि वो बहुत गरीब थी और एक झोपड़ी में रहती थी...
जब दूसरे दिन रविदर्शन अपने भाई भाभी के साथ वहाँ पहुँचा तो भाभी ने जब रंगीली को देखा तो दंग रह गई लेकिन बोल कुछ ना पाई....
तब रंगीली रविदर्शन से बोली....
मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती रवि!
लेकिन क्यों रंगीली?रवि ने पूछा।।
क्योंकि मैं तो पहले से ही तुम्हारी ब्याहता हूँ,मैं रंगीली नहीं विन्ध्यवासिनी हूँ,तुमने मुझे ठुकराया था,मैं तुम्हें ठुकराती हूँ और इतना कहकर वो वहाँ से चली गई......
अब रवि को अपनी गलतियों पर पछतावा हो रहा था लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था,विन्ध्यवासिनी हमेशा हमेशा के लिए उसके जीवन से जा चुकी थी और उसी ने उसे अपनी जिन्दगी से निकाला था.....
रविदर्शन को इस बात से इतना गहरा आघात लगा कि उसने बिस्तर पकड़ लिया,उसकी बीमारी देखकर उसका भाई चन्द्रदर्शन विनती लेकर विन्ध्यवासिनी के पास गया कि घर लौट आओ,रवि को तुम्हारी जरूरत है,लेकिन विन्ध्यवासिनी ना लौटी और फिर एक दिन आखिर रवि इस दुनिया को छोड़कर चला ही गया,विन्ध्यवासिनी के पास हवेली का नौकर रवि के मरने की खबर लेकर पहुँचा वो तब भी ना गई.....
बस रोती रही बिलखती रही लेकिन हवेली ना गई अपने पति के अन्तिम दर्शन करने,रविदर्शन के अन्तिम संस्कार के बाद भी विन्ध्यवासिनी के जेठ चन्द्रदर्शन उसे लेने आएं लेकिन वो ना गई,उसके बाद वो जोगन बन गई,बस मीरा की तरह इकतारा लेकर भजन गाती रहती,कोई भी उसके द्वार आता तो उसे आशीष देती,जिसे भी वो आशीष देती उसकी मुराद पूरी हो जाती ,धीरे धीरे वो इतनी प्रसिद्ध हो गई कि लोंग दूर दूर से उसके द्वार पर आने लगें,लोगों ने उसे पत्थरदिल देवी के नाम से मशहूर कर दिया,उसके दुनिया से जाने बाद लोगों ने पत्थरदिल देवी के नाम से उसका मंदिर बनवा दिया.....
उसे पत्थरदिल इसलिए लोंग कहते थे कि वो अपने पति के पास ना लौटी थी,लेकिन वो पत्थरदिल भी अपने पति के कारण ही हुई थी,उसके पति ने उसका दिल तोड़कर उसे पत्थरदिल बनाया था,
ये कहते कहते सरपंच जी रुक गए और रामरतन जी की आँखों में नमी थी पत्थर दिल देवी की कहानी सुनकर.....

समाप्त.....
सरोज वर्मा.....