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भग्नावशेष

आदित्य को समझ नहीं आ रहा था कि जो कुछ उसने देखा क्या वह सत्य था? जिस भव्य मूर्ति को वह बरसों से अपने दिल-दिमाग में सहेज कर बैठा था, वह इस प्रकार क्षणभर में खण्डित होगी, उसने साचा न था। देखा जाये तो इस स्थिति के लिये वह खुद भी जिम्मेदार था, क्या जरूरत थी दफ़न हो चुके अहसासों को पुनर्जीवित करने की ? उस दिन अनुज के ड्राइंगरूम में बैठ उसका इंतजार करते समय मेज पर पड़ी पत्रिका के पन्ने पलटते-पलटते अचानक एक कविता के नीचे लिखने वाले के नाम पर निगाहें थम गईं। दो-तीन बार पढ़ा, ‘अन्तिमा’, हां इसी नाम से तो लिखती थी, और इस पर कितनी देर बहस हुई थी। नाम के नीचे कुछ अता-पता नहीं था। क्या मालूम वह है या कोई और, पर लेखन की शैली, शब्द विन्यास सब अन्तिमा का ही लिखा प्रतीत हो रहा था। अनुज इस पत्रिका का नियमित सदस्य था और संपादक से उसकी अच्छी मित्रता थी, अतः उसे अन्तिमा का फोन नंबर लेने का इसरार कर लौट आया।

आदित्य की बैंक की नौकरी की पहली पदस्थापना घर से तीन सौ किलोमीटर दूर इस शहर में हुई थी। रहने के लिये एक कमरे की आवश्यकता ही उसे अन्तिमा के घर तक ले गई थी। बैंक के हैड कैशियर मनोहर जी उसे साथ ले गये थे। उनके मौहल्ले में एक मकान की दुछत्ती में एक कमरा था। उस घर में केवल मां बेटी रहती थीं।

“मौसी, यह आदित्य हैं, हमारे बैंक में नये आये हैं, मनोहर जी ने सकुचाते हुए आदित्य का परिचय मकान-मालकिन से करवाया“, अगर आप कमरा किराये पर इन्हें दें तो मेहरबानी होगी।“

उन्होंने उसे सिर से पांव तक देखा, उन्हें चेहरे, हाव भाव से सभ्य लगा। उस समय आदित्य पच्चीस वर्ष का नौजवान था।

“मेरी बेटी काॅलेज गई है, उसके आने पर उससे सलाह कर बताती हूँ।“ मनोहर जी को लगा था कि आदित्य का काम बन जायेगा। बाद में अन्तिमा ने आदित्य को बताया था कि उसे कमरा किराये पर देने के लिये उसके और मां के बीच बहुत विवाद हुआ था। अन्तिमा किसी अजनबी को कमरा देकर अपनी निज़ता में व्यवधान नहीं चाहती थ, जबकि मां ने मनोहर जी पर भरोसा जताया कि वे किसी अच्छे किरायेदार की ही सिफारिश करेंगे। दूसरे, उसके दिवंगत पिता की पारिवारिक पेंशन से उन्हें घर के दैनिक खर्चों में बहुत कठिनाई होती है। कमरे में जाने का रास्ता बाहर से ही है और सबसे बड़ी बात यह थी कि घर में एक पुरुष रहने से दोनों महिलाओं को नैतिक संबल भी और तब सहयोग भी मिलेगा। और तक अन्तिमा ने मां की बात मान ली। अगले रविार को आदित्य अपने कुछ जरूरी सामान के साथ आ गया। खाना ढ़ाबे पर खाता था, पर मां ने एक लोहे का पलंग, मेज-कुर्सी और दो-चार बरतन उसके कमरे में पहुंचा दिये। फिर अकसर शाम को बैंक से लौटने पर आदित्य उनके साथ चाय भी पीने लगा था। वह भी उनके छोटे-मोटे काम कर देता था। धीरे-धीरे उसने अन्तिमा और उसकी मां पर अपना विश्व जमा लिया था। परिचय धनिष्ठता में कब परिवर्तित हो गया पता ही नहीं चला। उसे पढ़ने का शौक था और वह अकसर बैंक की लाइबे्ररी से पुस्तकें ले आता, जिसे बाद में अन्तिमा भी पढ़ने लगी थी।

जहां आदित्य सभ्य, वाकपटु और अच्छे व्यक्तित्व का स्वामी था, वहीं अंतिमा का धवल चांदनी सा रंग, सुघड़ देह यष्टि, यूनानी नासिका और बड़ी-बड़ी काली आंखों पर धनेरी रेशमी पलकें उसके चेहरे को दर्शनीय बनाती थीं। एक दिन अन्तिमा ने शर्माते हुए एक डायरी उसके सामने रखी,

“आदित्य, देखो हमने कुछ लिखा है, पर पढ़ कर हंसना मत।

“हम क्यांे हंसेंगे, हम खुद क्या बहुत बड़े लेखक हैं ?“, मुस्कुरा दिया वह, “छोड़ दो यहीं, पढ़ लेता हूँ।“ पढ़ने पर लगा, अच्छा लिख लेती है। तब आदित्य ने ही समझाया कि यूं लिखने से बेहतर है किसी पत्रिका में भेज दे। दिनभर लाइब्रेरी से पत्रिकाओं में ढूंढ़ “कर उनके पते लिख लाया था और फिर उनके बीच एक नयी“ बहस शुरू हो गई कि रचना अपने नाम से भेजे या छद्म नाम से।

“तुम इसे अपने नाम से ही भेजो ताकि शहर वालों को पता चले कि महान लेखिका अन्तिमा जी यहां रहती है।“ आदित्य ने नाटकीय अंदाज में कहा और वह खिलखिला कर हंस पड़ी, आदित्य मंत्र-मुग्ध सा देखता रहा।

“नहीं, तुम्हें पता है प्रसिद्ध उपन्यासकार अपने वास्तविक नाम से नहीं लिखते।“ पर इस पर दोनों की सहमति नहीं बनी, और वैसे भी अन्तिमा उसके किसी आदेश को नहीं टालती थी। मां को आदित्य बहुत पसंद था और किसी भी पितृविहीन विवाह योग्य पुत्री की मां की तरह वह भी अच्छे जमाता की तलाश में रहती थी। उसकी बैंक की स्थायी नौकरी बड़ी योग्यता थी। अतः वह दोनों के साथ समय बिताने पर कोई आपत्ति नहीं करती थी।

आदित्य और अन्तिमा के हृदय में प्रेम के बीज प्रस्फुटित हो चुके थे। उसने अन्तिमा को बताया था कि उसकी एक बड़ी बहन उर्मी अभी अविवाहित है। छोटा कद और साधारण शक्ल-सूरत के कारण उसके विवाह में विलम्ब हो रहा है, जब तक उसका विवाह न हो तब तक वह अपने बारे में माता-पिता से बात नहीं कर सकता। उस साल अन्तिमा यूनिवर्सिटी में फिर एक नये पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लेती। एक दिन आदित्य को बाऊजी का संदेश मिला कि उसकी बहिन के रिश्ते के लिये आगरा से एक परिवार आ रहा है, अतः वह दो दिन के लिये घर आ जाये। शनिवार को जब वह दोपहर को कमरे पर आया तो अन्तिमा कमरा साफ कर रही थी,

“अन्तिमा, मैं घर जा रहा हूँ, दो दिन के लिये“

“नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे“ साधिकार बोली थी कल छुट्टी है, और मुझे तुम्हें अपनी नयी कविता सुनानी है।“

“जाना होगा, बाऊजी का आदेश है, उर्मी दी को देखने एक परिवार आ रहा है।“

“और लोग हैं न घर“ अन्तिमा को उसे एक दिन भी देखें बिना अच्छा नहीं लगता था।

“नहीं, मेरा जाना जरूरी है, और फिर मैं मां-बाऊजी से हमारी बात भी करूंगा न!“ आदित्य ने अंगुली से उसका चेहरा ऊपर उठाया जो शर्मा से रक्ताभ हो गया था। और बड़ी-2 आंखों पर काली रेशमी पलकों ने झुक कर छाया कर दी।

आदित्य ने उर्मी दी के रिश्ते के लिये आने वाले अतिथियों को संतुष्ट करने के लिये अच्छी व्यवस्था की। मिठाई, फल के साथ सबको देने के लिये नेग के लिफाफे भी तैयार कर लिये ताकि उनकी स्वीकृति होते ही बिना देरी किये भावी वर का तिलक कर दिया जाय। लड़का ठीक था, परिवार भी अच्छा था, उन्होंने देखा कि आदित्य बहुत विनम्रता से उनकी आवभगत कर रहा हे, वे उसके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। उर्मि से परिवार की महिलाओं ने कुछ प्रश्न पूछे। विदा लेने से पहले उन्होंने अपना निर्णय सुनाया कि उन्हे उर्मी पसन्द है पर वे चाहते है कि आदित्य उनकी पुत्री, जो बी.ए. पढ़ी है से विवाह कर ले, एक तरह से यह उनकी शर्त थी। आदित्य ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया। तब वे उसकी बहिन से अपने पुत्र के विवाह करने में असमर्थता व्यक्त कर चले गये। उर्मि ने गुस्से में अंदर वाले कमरे में जाकर जोर से दरवाजा बंद कर लिया।

““वो जमाने गये, जब भाई-बहिनों के लिये जान भी दे देते थे।“ मां ने आंखों पर साड़ी का पल्लू रख रोने का अभिनय किया “इन्हें क्या पता कि जब जवान बेटी घर में बैठी हो तो मां-बाप के दिल पर क्या गुजरती है, ये तो वहां बैठै मौज उड़ा रहे हैं, क्या पता वहां कोई पसंद कर ली हो“, दुःख से भीगे शब्द धीरे-धीरे कटु होते जा रहे थे, बड़ी मुश्किल से यह रिश्ता सिरे चढ़ रहा था।“ आदित्य की आंखों के सामने अन्तिमा का चेहरा घूम गया, नहीं, वह उसके साथ धोखा नहीं करेगा।

“कोई बात नहीं उर्मी की मां“, बाबूजी चुप न रह सके, “जहां इतने साल बैठी रही बेटी घर में, वहां दो चार साल और सही, फिर ये ही ढूंढ़ लायेंगे अपनी बहिन के लिये कोई दुहाजू।“ उर्मी दी ने उससे बात नहीं की, पर मां ने कभी रो कर कभी नाराज होकर, अपनी पुत्री के सुख के लिये उसे इस विवाह के लिये मजबूर कर दिया। तय हुआ कि शीघ्र ही उर्मी के विवाह के साथ आदित्य की भी घुड़ चढ़ी कर दी जाय।

ईश्वर ने औरत को एक गजब की शक्ति दी है कि वह अपने साथ कुछ गलत घटित हो रहा है भांप लेती है। अन्तिमा को भी आदित्य के वापस लौटने के बाद उसके व्यवहार में कुछ परिवर्तन दिखाई दिया, उसे आभास हो गया था कि वह उससे बेवजह दूरी नहीं बना रहा, पर उसने कुछ पूछा नहीं। जिस दिन उसने अन्तिमा की मां को सूचना दी कि उसका स्थानान्तरण उसके अपने शहर में हो गया है उस रात छत पर अंधेरे में भी अन्तिमा के जबरन रूलाई रोकने से कांपते शरीर को देख लिया था। वह उसके पास गया, कंधे पर हाथ रखा तो झटके से हाथ हटा आंसुओं से भर्रायी आवाज में, “बस कुछ मत कहना“ कह हाथ चेहरे के सामने तान दिया। और हाथ में पकड़ी डायरी के पन्ने फाड़कर उछाल दिये। फिर उसके सामान लेकर जाने तक मां-बेटी बाहर नहीं आई। अन्तिमा को उससे ऐसे विश्वासघात की उम्मीद नहीं थी। गजब की आत्माभिमानी थी, उसने फिर कभी उससे संपर्क साधने की कोशिश न की।

आदित्य भी उस शहर में फिर पैर रखने की हिम्मत न कर सका। उर्मी की विदाई के अगले दिन आदित्य की नववधू भारी जरी की गुलाबी साड़ी पहन मां-बाऊजी के पैर छू रही थी।

कुछ दिन तक तो वह अन्तिमा के प्रति एक अपराध बोध से ग्रसित रहा, फिर धीरे-धीरे अपनी पत्नी के शारीरिक आकर्षण में खो गया। दो वर्ष बाद एक गुद्गुदे बच्चे का पिता भी बन गयां नयी गृहस्थी का चाव थोड़ा शिथिल पड़ने पर अंतिमा के साथ बिताए पल याद आ जाते। शोभना, आदित्य की पत्नी सुघड़ देहयष्टि के साथ व्यवहार कुशल भी थी, पर वह उसके साथ सहज नहीं हो पाती थी, कहीं उसके मन में एक कसक थी कि उसने अपनी बहिन, उर्मी की खातिर मजबूरी में उसे अपनाया है। वक्त बीत रहा था, आदित्य की जिन्दगी बिना किसी हलचल के व्यतीत हो रही थी। समय और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उसके दिलो दिमाग से अन्तिमा, अपने पहले प्यार की इबारत को सिर्फ धंुधला ही नहीं, लगभग मिटा दिया था।

अनुज के घर पत्रिका में एक कविता पढ़ कर लेखिका के रूप में अन्तिमा का नाम पढ़कर लगा मानो शान्त झील के पानी में किसी ने पत्थर मार दिया हो। छः दिन बाद अनुज ने उस लेखिका का फोन नं. लिखवाया। फोन नंबर उसी शहर का था। पच्चीस वर्ष बहुत होते हैं। क्या वह अब भी उसी मकान में रहती होगी ? अब तक तो विवाह कर अपनी गृहस्थी में रम गई होगी। अब भी गोल चेहरे पर तिरछी मांग निकालती होगी जो उसके चेहरे को और भी लुभावना, बचकाना बना देती थी। वह पहले शोभना को अक्सर टोकता था,

“शोभना तुम हमेशा सीधी मांग क्यों काढ़ती हो?“ तिरछी से अपनी उम्र से छोटी दिखोगी।“ और शोभना न चाहते हुए भी उसकी पसंद का ध्यान कर तिरछी मांग निकालने लगी थी।

फोन का चोंगा दो बाद हाथ में लेकर वापस रख दिया। कैसे बात करे ? पहचानेगी भी या इंकार कर देगी, पता नहीं घर में कौन-कौन है। अगर फोन उसके पति ने उठाया तो अपना परिचय क्या देगा, ऐसी ढ़ेरों आशंकाएं मन में थीं। पर फिर दिल दिमाग पर हावी हो गया। उस तरफ घंटी बजी, पर किसी ने उठया नहीं, एक बार और नंबर घुमाया, इस बार उधर से ‘हैलो’ वही आवाज, निश्चय ही अन्तिमा है, “किससे बात करनी है ?“ दिल धड़क उठा।

“क्या अन्तिमा जी से बात कर सकता हूँ ?“

“हां, बोल रही हूँ, आप कौन ?“ उधर से रूक-रूक कर आवाज आई, शायद उसने भी आदित्य की आवाज पहचान ली थी।

“मैं, आदित्य“ उधर सन्नाटा छा गया।

“बात नहीं करोगी ?“

“अब क्या बात करनी है ?“ स्वर में कुछ नाराजगी थी, “फोन नंबर कहां से लिया?“

तुम्हारी कविता पढ़ी थी, पत्रिका में, अच्छा लिखने लगी हो।“

“यही कहने के लिये फोन किया है तो धन्यवाद।“

“रूको, रूको, फोन बंद मत करना, मैं तुमसे माफी मांगना चाहता हूँ,“

“किस बात की ?“

“मैंने तुम्हारे साथ विश्वासघात किया है, शर्मिंदा हूँ।“

“अब इन बातों का क्या मतलब है ? मैं भूल चुकी हूँ सब कुछ“ भरसक रूलाई रोकने का प्रयत्न किया था अन्तिमा ने। फोन कट गया था। तीन-चार दिन बाद फिर फोन किाय, इस बार घंटी बजते ही फोन उठा लिया, शायद उसे भी फोन का इंतजार था। कुछ देर इधर-उधर की बातें की। पता चला उसने विवाह नहीं किया, इस खबर से आदित्य के मन में खुशी हुई कि कोई उसके प्यार में अब तक डूबा हुआ है। क्या वह किसी के जीवन में इतनी अहमियत रखता है ? धीरे-धीरे दोनों फिर पहले वाले अंदाज में लौट आये। लिखना जारी है और एक सरकारी स्कूल में पढ़ाती है, कमरा अब भी खाली है, पर आदित्य के बाद किसी को नहीं दिया। अब भी उसे साफ कर आती है। उसका एक पत्र आया था बैंक से, अब तक रखा है।

आदित्य के जीवन में मानो फिर से बसंत खिल गया हो। शोभना इन दिनों उसके व्यवहार में एक अजीब सा बदलाव देख रही थी, कभी हंसता, कभी मुस्कुराता, कभी कोई गीत गुनगुनाता, दर्पण के सामने खुद को निहारता। कई दिन से शोभना की बनाई दाल-सब्जी में कोई नुकस न निकाला। आदित्य को खुद पर आश्चर्य हो रहा था, बैंक में किसी ग्राहक पर नहीं झल्लाया था। क्या सच में प्यार दुनिया बदल देता है ?

“आदित्य, अब यह फोन पर बात करना उचित नहीं है“ अन्तिमा की आवाज खोखली थी, तुम अपने परिवार में खुश हो, मैं भी अपनी जिन्दगी से संतुष्ट हूँ।“

“अच्छा चलो, एक बार मिल लेते हैं“ आदित्य बहुत उत्साहित था।

“क्या करोगे मिलकर, मैं अब वो अन्तिमा नहीं हूँ।“

“मेरे लिये तुम हमेशा वही रहोगी, बस एक बार मिलकर तुमसे माफी मांगना चाहता हूँ, एक बोझ है दिल पर।“ आदित्य को लगता था कि वह फिर वही गलती दोहरा रहा है।, लेकिन अपने को रोक नहीं पाता। वह एक रूमानी माहौल में लौट आया था। शायद यहीं स्थिति अन्तिमा की भी रही होगी। बरसों से सूखे रेगिस्तान में ज्यों बरसात की पहली बूंदें बरसी हों। उसे आदित्य ने मिलने के लिये मना लिया था। अगले रविवार को उसके शहर में मिलना तय हुआ।

“अन्तिमा, एक शिवरात्री पर जिस शिवमन्दिर में हम तुम दोनों साथ गये थे, वहीं पर तुम्हें चार बजे मिलूंगा। उसी बैंच पर।“ किसी नवयुवक की तरह बेताबी जताते उसे कुछ शर्म सी आई। परन्तु पच्चीस वर्ष बीत जाने के बाद अन्तिमा से मिलना उसे अजीब सा आनन्द आ रहा था। “सुनो, नीले रंग की साड़ी पहनाना, तुम पर बहुत खिलती है“ बिना देखे ही उसने अन्तिमा की झुकी हुई पलकों के नीचे आरक्त हो चुके कपोल देख लिये थे।

शोभना को जरूरी काम से दो दिन के लये शहर से बाहर रहने की सूचना देते समय माथे पर थोड़ा पसीना आया, लेकिन उसने अपने को संभाल लिया। बस ने उसे दो बजे ही अड्डे पर उतार दिया। वहीं पर मुंह धोकर बालों में कंघी फिरा ली। पैदल ही मंदिर की ओर चल दिया। शहर बहुत बदल गया था। मंदिर में पहुंच उसी बैंच पर बैठ गया। शहर से दूर होने तथा दोपहर का समय होने के कारण इक्का-दुक्का लोग ही थे। अचानक उसके मन में ख्याल आया कि क्यों न उसे इंतजार करते हुए देखा जाये। वह बैंच से कुछ दूरी पर एक बड़े पेड़ के मोटे तने के पीछे छुप गया। हां, यहां से दिखाई देगी।

ठीक चार बजे मन्दिर के मुख्य द्वार पर एक नीली आकृति उभरी, आदित्य को अपनी धड़कन खुद ही सुनाई देने लगी। आकृति धीरे-धीरे चलकर उसी बैंच की ओर आ रही थी। हां, अन्तिमा ही थी। सके सामने से निकल कर उस बैंच पर बैठ गई। आदित्य का दिल धक से रह गया, क्या यह वही अन्तिमा है ? विधाता ने अदृश्य कूची चलाकर सारी तस्वीर बदल दी थी। घने काले केश खिचड़ी होकर विरलता से कन्धों तक एक रबर में बंधे थे। शायद गठिये की शुरूआत थी, तभी चाल में कुछ टेढ़ापन आ गया था। आंखों पर मोटे लैंस का चश्मा था जिससे आंखे बाहर की ओर निकली नजर आ रही थीं। नीली साड़ी कसकर बांधने से टखनों के ऊपर चढ़ गई थी। कमर के नीचे का हिस्सा स्थूल होकर दोनों तरफ फैल गया था। पैरो में सरकारी अध्यापिका की तरह बंद बूट पहने थी। उसने ठीक कहा था, अब वो ‘वो’ अन्तिमा नहीं रही। पर उसे अहसास हुआ कि वह भी तो अब वो आदित्य नहीं है, उसे देखकर अन्तिमा भी ऐसे ही निराश हो जायेगी? उसके पेर मानो धरती से चिपक गये थे। अन्तिमा थोड़े-थोड़े अन्तराल के बाद कलाई उठाकर घड़ी देख लेती थी। थोड़ा समय और बीता, हल्का अंधेरा उतर आया था। उसने निराश होकर आखिरी बार मंदिर के द्वार की तरफ देखा फिर घुटनों पर हाथ रख खड़ी हो गई और मन्धर गति से चलती हुई बाहर निकल गई।

उसके जाते ही आदित्य मन्दिर के पिछले दरवाजे से बाहर निकला और बस अड्डे पहंुच गया। घर पहुंच कर दरवाजे पर लगी घन्टी पर हाथ रख जोर से दबा दिया। शोभना लगभग दौड़ती हुई आई, दरवाजा खोल आश्चर्य से उसे देखा। आदित्य उसे खामोशी से घूरता रहा।

“क्या बात है, तबीयत ठीक है ? ऐसे क्या देख रहे हो ?“ शोभना घबरा गई।

“तुम हमेशा तिरछी मांग क्यों काढ़ती हो ? क्या उन्नीस-बीस साल की लड़की हो ? तुम्हारी उम्र की औरतों को सीधी मांग काढ़नी चाहिये।“

और शोभना अवाक् उसे देखती रही।

 

आशा पाराशर

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