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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 18

 

सोई तकदीर की मलिकाएँ 

 

 

18

 


सूरज हर रोज चढता रहा छिपता रहा । रात आती रही जाती रही । गर्मी आई फिर बरसात आई । वर्षा आई फिर सर्दी दाँत किङकिङाती हुई आई और चली गई । इसी तरह मौसम आते रहे , जाते रहे । जो छोटे बच्चे थे , वे बङे हो गये । जो बङे थे , वे बूढे हो गये । जो बूढे थे , वे परलोक सिधार गये । उनकी जगह नवागतों ने ले ली । इसी तरह दिन सप्ताह में बदले । सप्ताह महीने में और महीने साल में बीत गये । धीरे धीरे करके बीस साल बीतने को आए । भोला सिंह अब पचास का होने को आया था । उससे डेढ साल छोटे गोले ने कब की बेटियाँ ब्याह ली थी और अब दोनों बेटों के ब्याह निपटा कर नाती पोतों वाला हो गया था । और दूसरी चरफ वह दो दो औरतें घर में रख कर भी औलाद के सुख से महरूम था । वह अपनी ऊँची हवेली देखता । दूर दूर तक फैले लहलहाते हुए खेत देखता तो दिल मसोस कर रह जाता । इस सारी जमीन पर क्या एक दिन शरीकों का कब्जा हो जाएगा ? इतनी मेहनत करके जो जायदाद खङी की , क्या एक वारिस के बिना सब लावारिस हो जाएगी । बसंत कौर इतने सब्र , सिदक वाली औरत है । रहमदिल है । सबका भला करती है । किसी को बोल कुबोल नहीं बोलती । जी खोल कर दान पुण्य करती है । उस अकालपुरख ने उसकी सेवा और श्रद्धा भी नहीं देखी । कम से कम उसकी श्रद्धा की कीमत ही डाल दी होती परमेश्वर ने । उसे एक जीता जागता गुड्डा या गुङिया ही सही , तो बख्शा होता ।
और वह केसर गूंगी गुङिया की तरह घर का सारा काम करती है । जो मिल जाए , जितना मिल जाए , उसी में खुश रहती है । कोई गिला नहीं , कोई शिकायत नहीं । न कोई चाह , न कोई डिमांड । दरवेश वृति । इन बीस बाईस सालों में कभी सिर उठाकर नहीं देखा । भगवान उस पर ही मेहरबान हो जाता तो भी वह खुश हो लेता पर अब वह क्या करे । बीतती उम्र के साथ साथ उसकी घबराहट बढ रही है । बुढापे में कौन करेगा उसकी सेवा । कौन खेती संभालेगा । जितना वह इस बारे में सोचता , उतनी ही उसके मन पर छाई उदासी बढती जाती । किसी काम में उसका मन न लगता । जहाँ बैठता , बैठा ही रह जाता । पहली नजर में वह बीमार नजर आने लगा था ।
बसंत कौर उसकी उदासी देखी और महसूस भी की थी । पर किया क्या जा सकता था । अगर बाजार से बच्चे खरीदे जा सकते तो वह टोकरा भर बच्चे खरीद लाती । पर यह तो प्रकृति के हाथ की बात थी । भगवान की देन थी । जिसे दे । वही अमीर है । वह मन मसोस कर रह जाती ।
ऐसे ही एक दिन भोला सिंह बीज खरीदने फरीदकोट गया । गेहूँ की फसल बोनी थी । खेत तैयार हो चुके थे । वह कई दिन से मंडी जाना टाल रहा था । सीरी कई दिन से रोज बीज के लिए कह रहा था और वह हर रोज टालता आ रहा था । आज कोई बहाना नहीं था तो वह सुबह दो परांठे खाकर फरीदकोट के लिए निकल आया । जीप उसने बीज भंडार के सामने उगे पीपल के नीचे लगाई और परना लेकर दुकान में घुसा ही था कि पीछे से किसी ने पुकारा – भोला सिंह भाई ।
भोला सिंह को लगा कि किसी ने आवाज दी पर वह इसे अपने मन का वहम समझ कर आगे बढने ही वाला था कि आवाज दोबारा सुनाई दी ।
भाई , भोला सिंह ।
अब शक की कोई गुंजाइश नहीं थी । वह पलटा । सामने कम्मेआना गाँव का चरणसिंह अपने भाई शऱण सिंह के साथ उसकी ओर बढा चला आ रहा था ।
सत श्री अकाल भाई । चरण सिंह ने भोले को गले से लगा लिया ।
सत श्री अकाल ।
हम तुम्हें तब से पुकार रहे हैं जब तुम पीपल के नीचे जीप लगा रहे थे । तुम आगे ही आगे चले जा रहे थे । बङी मुश्किल से हाथ आए ।
सुना नहीं भाई । अगर सुन लेता तो वहीं रुक जाता ।
बीज खरीदने आए हो ।
हाँ भाई । क्यारे जुते पङे हैं । सोचा आज ले ही आऊँ , वक्त से लग जाएंगे तो चार दाने घर आ जाएंगे । तुम लोग भी बीज लेने आए हो ।
हमने क्या लेने भाई , चार किल्ले पैली है । बीस किलो बीज ले लिए । लौटने लगे थे कि तुम दिखाई दे गये ।
चल पहले कहीं बैठ कर चाय पीते हैं ।
हाँ , वाकयी बङे दिन बाद मिले हो । चलो दो घङी मिल कर बातें करेंगे ।
चल भाई ।
वे लोग जीप में सवार हुए और भाइए की हट्टी पर आ गए ।
तीन चाय , आधा किलो बरफी , एक प्लेट पकौङे ले आओ ।
लङके ने बैंच और मेज पर कपङा मारा और सामान लाने चला गया ।
भाई , एक बात कहूँ । आप बीमार हो क्या ? बङे कमजोर दिख रहे हो ।
ठीक हूँ भाई
लग तो नहीं रहे । चेहरा बिल्कुल उतरा हुआ है ।
ऐसे ही लग रहा होगा । दस बारह मील जीप चलाकर आया हूँ न ।
चल नहीं बताना तो मत बता पर एक बात तो है कि कुछ तो है जो तुझे खाए जा रहा है ।- चरण सिंह ने पकौङों की प्लेट अपनी ओर सरकाते हुए कहा ।
भोला सिंह ने एक गोभी का पकौङा उठाया । मुँह तक ले गया कि आँखें नम हो आई । चरण सिंह ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था ।
शरण सिंह ने उसे यूं उदास देखा तो उठ कर उसके कंधे पर हाथ रख दिया – भाई जी अपने से कह देने से दुख हल्का हो जाता है । कह डालिए । क्या परेशान कर रहा है आपको ?
भाई तीन सौ एकङ जमीन है । दो दो ट्रैक्टर हैं । कार है जीप है । तीन गाय , दो भैंस । इतनी बङी हवेली है पर खेलनेवाला कोई नहीं । बुढापा आ रहा है । सब सुख मिले पर औलाद नसीब में नहीं है । दिन रात चिंता रहने लगी है ।
यार बूढे हो तेरे दुश्मन । गाँव है तो जल्दी शादियाँ हो जाती हैं वरना शहर में लङके पढते रहते हैं । पढते पढते चालीस साल के हो जाते हैं तब शादी के बारे में सोचते हैं । पैंतालीस साल में बच्चों के बारे में सोचने की शुरुआत करते हैं । आपकी उम्र कौन सा ज्यादा हुई है । एक इशारा करो , लोग अपनी लङकियां लेकर दरवाजे पर लाईन लगा लेंगे । मर्द तो सत्तर साल तक भी जवान होता है । आप तो अभी पचास के भी नहीं हुए ।
तब तक चाय खत्म हो चुकी थी । भोला सिंह ने लङके को बुलाकर पैसे दिए । दोनों भाई उठ खङे हुए ।
चलते हैं भाई । हमारी बात सोचना जरूर ।
दोनों भाई गले मिले और बसस्टैंड चल दिए । भोलासिंह ने घर के लिए एक किलो बर्फी बंधवाई और जीप पर सवार होकर चल पङा ।

बाकी कहानी फिर ...