Dani ki kahani - 30 books and stories free download online pdf in Hindi

दानी की कहानी - 30

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शाम का समय था | दानी बरामदे में और बच्चे बागीचे में ,हर रोज़ की तरह से |

" चलो ,आज पड़ौस के पेड़ से चीकू तोड़ेंगे --" बच्चों  में फुसफुसाहट हो रही थी |

"दानी को पता चल गया न तो बस -----"

"तुम बहुत डरपोक हो --भला दानी को कौन बताएगा ?"

"हम हर बार यही तो सोचकर शरारत करते हैं कि दानी को पता ही नहीं चलेगा --"

"हाँ--पर होता क्या है ? हर बार  तो दानी को पता चल ही जाता है |"

"ये कोई चुगलख़ोर हमारे बीच में ही पल रहा है ---" सबसे छोटी टुन्नी ने अपनी गर्दन कुछ ऐसे हिलाई जैसे वह न जाने कितनी समझदार हो |

सारे बच्चों को छोटी टुन्नी की बात में दम नज़र आया |

"सच्ची ! बात तो बड़े पते की कही है टुन्नी ने ---आख़िर हमारे बीच में से कौन हो सकता है जो अपने ही दोस्तों के पेट में छुरी मार रहा है ?" बड़े भैया असीत की आँखें सभी छोटों  के चेहरों पर गोल-गोल घूमने लगीं |

टुन्नी रानी इतराकर अपने कॉलर ऊपर करने लगी |

'मैं तो हमेशा ही पते की बात कहती हूँ' ,उसने सोचा और अपने मन में हमेशा की तरह कलाबाज़ियाँ खाने लगी |

"हम कुल मिलाकर कितने बच्चे हैं ?"एक उनमें से बोला |

"हम तो हर बार ही ज़्यादा-कम होते रहते हैं ---" किसी ने कहा |

"हाँ,देखो जैसे आज 12 नं वाला जय नहीं आया | कभी कमल नहीं आता तो कभी स्वाति ,कभी सारे मुहल्ले के बच्चे इक्क्ठे हो जाते हैं --|"

"यानि --हर बार कोई कम ,कोई ज़्यादा होते ही रहते हैं | "

हाँ.यही तो होता है इस घर में | इसके कई कारण हैं | एक तो दानी का ज़बर्दस्त आकर्षण सभी बच्चों के मन में रहता था | वे सभी बच्चों को उनकी पसंद की कहानी सुनाकर  खुश करती रहतीं | दूसरा ,इस घर का बगीचा इतना बड़ा था उसमें सारे बच्चे खूब खुलकर खेल सकते थे | आसपास के बंगलों में रहने वाले बच्चों की माएँ बच्चों को सड़क पर खेलने के लिए मना करती थीं इसीलिए सारे बच्चे इस घर में उधम मचाते | दानी को भी शोर-शराबा सुनना अच्छा लगता था |

माता-पिता देर में आते थे इसलिए यह घर सबके लिए सब प्रकार से सुरक्षित व आनंदपूर्ण रहता था |

दानी का पूजा  का समय होने वाला था ,वे अंदर जाएँ ,उतनी देर थी |सारे बच्चे तैयार बैठे थे ,दानी अंदर जाएँ और बच्चे पड़ौस के घर की खिड़की पर  चढ़कर ऊपर जाएँ और उनके किचन - गार्डन से ऊँचे पेड़ से कच्चे आमों को तोड़कर ले आएँ | दानी को पता चलता तो बहुत नाराज़ होतीं |

सारे बच्चे सोच में थे कि उस दिन दानी को पूजा नहीं करनी थी क्या ? वह जा क्यों नहीं रहीं थीं , दिया-बत्ती का समय हो गया था | दानी थीं कि बड़े आराम से बरामदे की आराम कुर्सी पर बैठी झूल रही थीं | उन्हें बच्चों का प्रोग्राम पता लग चुका था |

सारे बच्चों की आँखों में जैसे प्रश्न सैलाब बनकर फूट रहे थे ,आख़िर दानी के मन तक उनकी प्लानिंग कैसे पहुँच जाती है ?

"अच्छा ,एक बात बताओ बच्चों ----" दानी ने अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे ही कहा |

इस समय दानी बात पूछ रही हैं यानि --भगवान जी की घंटी अभी देर में बजेगी !बच्चों के दिल की हलचल और भी बढ़ गई ,उन्होंने एक-दूसरे के चेहरों पर दृष्टि घुमाई | सबके मुँह में पड़ौसियों के पेड़ के आमों का स्वाद जैसे भरा पड़ा था |

"क्या --यार ----"बच्चे भुनभुन करने लगे | दानी आख़िर दानी थीं ,सब समझ रही थीं |

अब दानी ने सबके आगे एक प्रश्न परोसा ;

" जानते हो  ,घर की मुर्गी दाल बराबर का क्या अर्थ होता है ?"

दानी ने सबके चेहरों पर अपनी दृष्टि घुमानी शुरू की |

एक तो सबका मन उन खट्टे-मीठे, रसीले आमों में पड़ा है ,दूसरे दानी इस समय यह बेकार का प्रश्न पूछकर सबका मूड खराब कर रही हैं | सभी मन में सोच रहे थे |

" जी दानी, इसका मतलब है कि घर में मुर्गी बन नहीं सकती तो दाल को ही मुर्गी समझ लेना चाहिए ----" एक तीसमारखाँ बोला |

सब उसके इ को देखकर इसलिए प्रसन्न होने लगे कि चलो ,अब तो जान छूटेगी लेकिन दानी तो ठठाकर हँस पड़ीं और बोलीं ;

" सबके सब बुद्धू हो ----"

"अपने घर में फ़ार्म से आम नहीं आते क्या ?" दानी ने पूछा |

वहाँ तो पूरे मुहल्ले के बच्चे थे ,सबके घर में तो दानी के फार्म के आम आते नहीं थे |

"और यहाँ से वे आम तुम सबके घर जाते हैं कि नहीं ?" दानी ने फिर से एक और प्रश्न दागा |

यह बात बिलकुल सही थी ,हर  मौसम में दानी पूरा टोकरा भरकर आम मुहल्ले में बँटवाती थीं |

"मैं कहना चाहती हूँ कि अपने घर में जो चीज़ है ,वह चाहे कितनी भी बढ़िया क्यों न हो। तुमको चोरी के खाए हुए आम ही स्वादिष्ट लगते हैं | जबकि जानते हो कि उस घर के लोग  कितनी गंदी तरह से अपने माली से तुम्हें बेज़्ज़त करवा देते हैं और माली से कुत्ते छुड़वा देते हैं | "

"तो बच्चों,अपने  में जो है ,वह बहुत अच्छा है ,पर्याप्त है | इसलिए किसी दूसरे की चीज़ को अपने से अधिक अच्छी समझकर ,उसकी और लालच से न देखो ---समझे ?" दानी ने बच्चों  को समझाया और मुस्कुराते हुए संध्या-आरती करने चल दीं |

बच्चे समझ चुके थे कि उन्हें अपने पास की चीज़ की कीमत समझनी चाहिए न कि दूसरों की चीज़ पर लार टपकानी चाहिए |

 

डॉ. प्रणव भारती