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अपंग - 63

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कैसी गुहार, इस छोटे से बच्चे की ! क्या इस प्रवाह में बह गए थे दोनों ? जब दोनों को होश आया, वे एक-दूसरे से आँखें नहीं मिला पा रहे थे | कैसे नाज़ुक क्षणों के घेरे में फँस गए थे दोनों ! जिससे वे बचते रहे थे, वही सब कुछ उनकी देहों को थर्रा रहा था | भानुमति रिचार्ड के सीने में मुँह छिपाकर सिसक उठी | अंतर में मीठी ज्वाला के शांत होने की संतुष्टि के साथ मन के भीतर कहीं दूसरे प्रश्न आवरण में सिकुड़े पड़े थे |

रिचार्ड पूरी रात भर सिटिंग -रूम में ही भानु को अपनी बाहों में समेटे जैसे उसे अपने भीतर सिमटाकर पड़ा रहा था| पूरी रात भर वह सो नहीं पाया, इतने शरीरों के साथ संबंध बनाने वाला वह अमेरिकन, भारतीय बंदा एक अजीब सी छुअन से भीग उठा था | पूरी रात भानु के लरजते शरीर को संभालते हुए वह न जाने खुद कितनी बार लरजता रहा था, एक कंपकंपी देह जैसे दूसरी देह का अंग बन चुकी थी |

रिचार्ड किसी से क्या, अपने आप से भी झूठ नहीं बोलना चाहता था | जो कुछ भी उनके बीच अचानक ही हो गया था, वह बड़ी स्वाभाविक स्थिति में हुआ था लेकिन दोनों ही इसके लिए तैयार नहीं थे | रिचार्ड कहाँ अपने आपको भानु और पुनीत से अलग समझता था | वह तो जाने कब से उनका ही एक भाग था | फुलफिल्ड था वह, उनके साथ होने भर से, आत्म-संतुष्ट लेकिन ---?

शुरू में तो नहीं लेकिन जब से भानु की गर्भावस्था में रिचार्ड उसके क़रीब आया था तबसे उसे यह कहाँ याद था कि वह एक अमेरिकन भारतीय है ! यह धीरे-धीरे इस पूरी तरह भारतीय स्त्री के संसर्ग में रहकर जैसे भारत को अपने भीतर महसूसने लगा था |

अब वह अजनबी सुबह थी जब भानु रिचार्ड से आँखें मिला ही नहीं पा रही थी जैसे कोई नव-नवेली दुलहन ! वह बहुत-बहुत संकोची हो उठी थी, रिचार्ड भी लेकिन उनके चेहरे पर एक सुकून था | मन में सुकून तो देह में सुकून |

"भानु, रिलैक्स, आई लव यू, डोंट वरी --आई एम ऑलवेज़ विद यू --"

"जानती हूँ रिच ----" आज पहली बार उसने रिचार्ड को रिच कहकर पुकारा था | वह खुद ही कहकर खिसिया सी गई और फिर उसने अपनी पनीली आँखें झुका लीं | बहका हुआ मन, बहका हुआ तन --जैसे हुआ पूरा जीवन समर्पण ----उसमें बहुत सारे लेकिन, पर, परन्तु, बट थे लेकिन जैसे सभी केवल प्रश्न भर, कोई उत्तर नहीं ----!! पूरा जीवन ही तो प्रश्नों का आवरण ओढ़े घूमता है मनुष्य ! कहाँ पूरी तरह किसी बात का सम्पूर्ण उत्तर प्राप्त होता है ? एक प्यार.मनुहार, स्नेह, नेह--आकर्षण--समर्पण -----

जैनी बहुत समझदार व विवेकी स्त्री थी, सब कुछ समझते हुए भी सदा चुप रहती थी, उसे केवल अपने मालिक की आज्ञा का पालन करना होता था | जैनी ने नॉक करके उन्हें सिटिंग-रूम में कॉफ़ी ला दी थी | वे वहीं सिटिंग-रूम में ही बैठे रहे थे, एक -दूसरे से छिपते, खुलते |आँखें मिलते, चुराते -----

नाश्ते में उसने कई सारी चीज़ें बनाकर टेबल सजा दी थी और पुनीत बाबा को तैयार करके वहाँ ले आई थी लेकिन टेबल पर तीन लोगों का नाश्ता देखकर जो चमक बच्चे के चेहरे पर अचानक ही उभरी थी उसने उसकी नैनी को भी प्यार से गुदगुदा दिया था | बच्चे को चुप देखकर जैनी उसके साथ मस्ती करती, घुमाने ले जाती, जो कहता बनाकर खिलाती लेकिन उसके मन में जो एक पिता की अनुपस्थिति की खाई थी, उसे पाटना उसके वश में नहीं था | वह जैनी के हाथों की कैद से छुटकर सिटिंग रूम की तरफ़ भागा चला आया था |

"ओ ! माई--माई गॉड ---एम आई स्टिल स्लीपिंग ? माई विश इज़ फुलफिल्ड ---ग्रेट ---" पुनीत के चेहरे की रौनक देखकर इतनी देर से अपने आपको सँभालती हुई भानु की आँखें फिर से बरसने लगीं थीं |

पुनीत के चेहरे पर छाई प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था, उसे लगा अब सब कुछ मिल गया है | आँखों में बालपन की शरारत, एक खिलती मुस्कान, उसके शरीर की भाषा --यानि वह इतना बदला हुआ लग रहा था कि रिचार्ड और भानु से भी संभाले नहीं संभल रहा था | भानु ने कभी अपने बेटे की वह तस्वीर नहीं देखी थी | एक आत्मिक संतुष्टि उसे भीतर तक भिगो गई |

इस महत्वपूर्ण आत्मीयत संबंध के बाद भी रुटीन में कुछ बदलाव नहीं आया था | बदलाव आया था तो दिल के उन दरीचों में से कुनमुनी धुप की सुगन्धित छुअन के हर समय अपने पास होने का |वे अचानक ही बहुत-बहुत,  बेहद करीब तो आ गए थे लेकिन रुटीन वही रहा था | रिचार्ड का भी और भानु का भी |

भानु ऑफ़िस पहले की तरह जा रही थी और रिचार्ड पहले की तरह से ही एपार्टमेंट में आता-जाता रहा |

भानुमति को माँ-बाबा के बारे में चिंता बनी रहती और दोनों चर्चा करते कि माँ-बाबा को इस उम्र में किसी की ज़रूरत थी |