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मानभंजन--भाग(२)

विक्रम सिंह जी के स्वर्ग सिधारने के बाद सारे जमीन जायदाद की सारी जिम्मेदारी अब रूद्रप्रयाग पर आ पड़ी,उसका सारा दिन मुनीम जी के साथ बहीखातों की जाँच करने में ही ब्यतीत हो जाता और वो अब प्रयागी को कम समय दे पाता था,फिर भी प्रयागी बुरा ना मानती और घर-गृहस्थी के कामों में स्वयं को उलझाएं रखती,अब प्रयागी के पिता हरगोविन्द भी ना रहें थें लम्बी बिमारी के चलते उनका निधन हो चुका था,इसलिए प्रयागी के पास मायके में कोई अपना ना रह गया था, वह ही आगंतुकों का अतिथि-सत्कार करती थी,कोई भी मेहमान उसके द्वार से अप्रसन्न होकर नहीं लौटता था, प्रयागी का व्यवहार, बोलचाल, हाव-भाव, सब ही बहुत आकर्षक थे, रूद्रप्रयाग के अतिथि सदैव ही एक-दो दिन अधिक रहते और फिर इस तरह से धीरे-धीरे प्रयागी का मान और यश बढ़ने लगा, उसकी सौम्यता और उसके व्यवहार ने उसे और भी सुंदर बना दिया,उसकी कीर्ति को सब जानते थे,वो अपने धर्म का पालन कर रही थी,सुबह शाम नदी पर स्नान के लिए जाती,मन लगाकर पूजापाठ करती,गृहस्थी सम्भालती,
वह तुलसी चौरे में जलते दीपक के समान थी, मेहमानों के लिए प्रयागी इतना सेवा सत्कार का भाव रखती थी इसलिए रूद्रप्रयाग भी खुश रहता था चूँकि वो प्रयागी को समय नहीं दे पाता था इसलिए वो भी चाहता था कि प्रयागी ब्यस्त रहे, प्रयागी इतनी पवित्र थी कि ऐसा प्रतीत होता है कि पुण्यतोया भागीरथी उस घर के अंदर होकर बहती है,उसके यश के बढ़ने के साथ उसके प्रति लोगों की ईर्ष्या भी बढ़ती जा रही थी,ये खबर दुश्मन गाँव सोनभद्र तक भी पहुँच गई,लोंग प्रयागी की पवित्रता की मिसालें देते थे इसलिए समृद्धिपुर और दुश्मन गाँव सोनभद्र की औरतें बिना देखें ही प्रयागी से ईर्ष्या का भाव रखती थी,प्रयागी थी बहुत ही सुन्दर उस पर गरीब किसान की बेटी और इतनी गुणी,ये बात लोगों को हजम ना होती थी,गांँव के अन्य छोटे जमींदार भी रूद्र और प्रयागी को खुलेआम बदनाम करने का साहस नहीं कर पाते थे, वे सब चुप रहते थे और इसे रूद्रप्रयाग का भाग्य कहते थे,बस एक ही ग्रहण लगा था रूद्र और प्रयागी के जीवन में वो ये कि शादी के पाँच साल बाद भी प्रयागी माँ ना बन सकी थी और ये दुःख उसे मन ही मन खोखला कर रहा था,रूद्रप्रयाग ने बहुत पैसा लगाया लेकिन वही ढ़ाक के तीन पात,शहर के सबसे बड़े डाँक्टर को भी दिखाया तो उसने भी प्रयागी में कोई कमी ना बताई,लेकिन उसने ये भी कहा कि एक बार अपने पति को भी जाँच करवाने को लाओ,हो सकता है कमी उनमें हो,पर प्रयागी इस बात के लिए राजी ना हुई
दुश्मन गाँव सोनभद्र के जमींदार भानुप्रताप सिंह तक भी ये बात पहुँची,वो तो वैसे भी विक्रमसिंह के खानदानी दुश्मन थे,ये बात उन्हें बिल्कुल भी नहीं सोहा रहीं थी,लेकिन करते भी क्या?ये सोच कर चुप्पी लगा जाते कि कहीं ऐसा ना हो उनका एक गलत कदम उन पर ही भारी पड़े और समाज में जो इज्ज़त है वो गँवानी पड़ जाएं,वें चाहते तो कब का रूद्रप्रयाग को रातोंरात ठिकाने लगवा देते,लेकिन उन्हें पता था कि अगर कुछ भी ऐसा वैसा किया तो सभी के शक़ की सुइयाँ उनकी ओर ही घूम जाएंगी,उनके तीन बेटे और दो बेटियाँ थी,दो बेटें और दो बेटियों की शादी हो चुकी थी,सबसे छोटा वाला अभी ब्याह के लिए बचा था,वो विलायत में वकालत पढ़ने गया था,लेकिन अब कुछ दिनों में ही वापस घर लौटने वाला था,जिसका नाम प्रेमप्रताप सिंह था,वो अपने पिता का बहुत लाड़ला था और उसे जो भी चींज पसंद आती थी वो उसे हासिल करके ही रहता था,उसके इस जिद्दीपन को रोकने के वजाय भानुप्रतापसिंह ने उसे बढ़ावा देकर और भी जिद्दी बना दिया,
प्रेमप्रताप कुछ आशिक मिज़ाज और देलफेंक किस्म का इंसान था,कुछ दिनों में वो गाँव लौटा तो पिता भानुप्रताप सिंह का सीना गर्व से चौड़ा हो गया,गाँव आते ही प्रेमप्रताप की मनमानियांँ चालू हो गईं,प्रेमप्रताप छह फ़ुट लम्बा और गोरा था, उनके चेहरे पर एक कठोरता थी,बड़ी-बड़ी मस्ती-भरी कन्जी आंँखों पर तनी हुई भौहें ,गर्दन ठोस और गठीली थी, जिसके नीचे उसका स्वस्थ और माँसल शरीर देखकर सामने वाली की आंँखें तृप्त-सी हो जाती थीं, वह एक आकर्षक व्यक्तित्व वाला व्यक्ति था, उसकी मूंँछें लम्बी और पतली होने पर भी ऊपर की ओर तनी रहती थीं, गाँव भर की बहु बेटियाँ उसकी वासना भरी निगाहों से बच ना पाती थी,कोई भी अच्छे घर की लड़की उसे पसंद ना करती थी,जब गाँव की किसी लड़की ने उसे घास ना डाली तो थकहार कर प्रेमप्रताप मोतीबाई नाम की तवायफ़ के कोठे पर जाने लगा,
मोतीबाई का सौंदर्य उसकी आवाज़ ने द्विगुणित कर दिया था,रूप के साथ साथ भगवान ने उसे गला भी अच्छा दिया था,वैसे तो वो एक छोटे से गाँव की रहने वाली थी,पर बड़े-बड़े ताल्लुरकेदारों के यहांँ नाच आई थी, दूर-दूर तक उसके मादक शरीर का यश प्रसिद्ध था, आस पास के गाँवों की साधारण सी तवायफों के बीच में वो एक गुलाब का पौधा थी, जिस पर बड़े-बड़े लोग भी हाथ डालने से हिचकिचाते थे, उसकी सलमा सितारों से जड़ी पोशाक, नाक में सोने की बड़ी नथ, नागिन सी बलखाती कमर, ऊपरी होंठ के कोने पर मदहोश करने वाला काला तिल और फ़रेबी बड़ी बड़ी कजरारी आंखें, छरहरा गोरा बदन, नारी-सुलभ बदन का कसाव किसी भी मनुष्य को व्याकुल कर देने के लिए बहुत था,
प्रेमप्रताप के रसिक मिज़ाज से तो हर कोई वाकिफ़ था,वो इसके लिए आत्म-प्रसिद्ध था, एक दिन शाम को प्रेमप्रताप का जी चाहा कि वो मोतीबाई के साथ नदी में नौकाविहार को जाएं,मोतीबाई को इसके लिए मुँहमाँगे दाम मिल रहे थे इसलिए वो मना ना कर सकी,अब नाव पर प्रेमप्रताप और गांँव की सर्वोत्तम तवायफ़ मोतीबाई नौकाविहार में मग्न थे,उनके सामने शराब की बोतल थी और काँच के गिलाब में मोती सोडा मिला-मिलाकर प्रेमप्रताप को शराब पिला रही थी, प्रेमप्रताप की बड़ी बड़ी कन्जी आँखों की पलकें अब मदहोश होकर झपकने लगी थीं, आकाश में सुनहरा सूरज बादलों में छुपने की कोशिश कर रहा था,नदी का पानी चमचमा रहा था और नदी का विशाल प्रवाह जगमगा रहा था,
नाव अब नौकाविहार करके वापस लौट रही थी,नाव खेने वाले का चप्पू धार काटने में बार-बार इधर जाता उधर जाता, नदी के किनारे घाटों पर लोगों की चहल-पहल थी,लेकिन प्रेमप्रताप का ध्यान उन सभी की ओर ना गया और उसका ध्यान उस ओर गया जहाँ उधर एकान्त में जब प्रयागी नदी में स्नान करने उतरी तो उसे प्रेमप्रताप ने देख लिया, प्रेमप्रताप को वो अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रही थी,वैसे भी प्रयागी का नियम था कि नित्य प्रातः और सायं वह नदी में स्नान के लिए घर से कुछ दूर चलकर इधर एकांत में स्नान करने आती थी, कभी-कभी नदी की धारा में प्रवाहित उसका दीप संध्या के तारे की भांति टिमटिमा उठता था,अचानक प्रेमप्रताप ने उसे देखा तो उसे ऐसा लगा कि जैसे वो कोई स्वप्न देख रहा हो और उसने यहीं पर भूल कर दी, उसकी भूल थी कि वो प्रयागी के सौन्दर्य को देखकर बेकाबू हो गया, सामने वह अत्यन्त सुन्दर नारी, जिसके वस्त्र भीगकर उसके अंगों से चिपककर प्रायः अंगो का स्पष्टिकरण दे रहे थे, प्रयागी आँखें मीचें खड़ी सूर्य को नमस्कार कर रही थी, डूबते हुए सूर्य ने जैसे अपनी भक्ति के प्रति प्रसन्न होकर जो आशीर्वाद उस को दिया था, वह आशीर्वाद अब नदी के जल के साथ मिलकर सिन्दूरी हो गया था,ऐसा लग रहा था कि वो कोई नारी नहीं जल पर उगा गुलाबी कमल थी, प्रेमप्रताप उसे देखकर भौचक्का सा रह गया,उसने आज तक ऐसा गोरा रंग, शरीर का कटाव और ऐसा रूप नहीं देखा था,वो उसे देखते ही भाव विभोर हो उठा,मोतीबाई ये सब देख रही थी उसने प्रेमप्रताप से मुस्कुरा कर कहा...
जानते हो किसकी पत्नी है,घूरना बंद करो अब क्या उसे निगल ही जाओगे?’
प्रेमप्रताप ने पूछा,‘‘तुम जानती हो इसे?
मैं यहांँ किसे नहीं जानती? मोतीबाई बोली...
तो बताओ किसकी पत्नी है?प्रेमप्रताप ने पूछा,
तुम्हारे दुश्मन रूद्रप्रयाग की पत्नी है,मोतीबाई बोली।।
प्रेमप्रताप ने सुना और मोतीबाई के चेहरें की ओर देखा,उसकी दृष्टि दोबारा प्रयागी पर पड़ी उसने देखा कि प्रयागी अब जा रही थी,उसके मन में आशा का संचार हुआ,उसके हृदय की गति अब तीव्र हो चुकी थी और श्वास थम चुकी थी,उसकी आँखों में अब केवल प्रयागी ही समा गई थी,जिसे पाने के ख्वाब अब प्रेमप्रताप ने अपनी आँखों में सजा लिए थे,
अब प्रेमप्रताप की आँखो की नींद और दिल का चैन प्रयागी लूटकर ले गई थी और अब वो अपने प्रेम को प्रयागी के समक्ष प्रकट करना चाहता था लेकिन वो इसके लिए क्या करें ?वो कुछ भी समझ नहीं पा रहा था,तभी उसने फिर से मोतीबाई का सहारा लेने की सोची.....
प्रेमप्रताप की बातें सुनकर मोतीबाई बोली....
पागल हो गए हो क्या?वो एक सती स्त्री है,गाँव भर की औरतें उसकी मिसाल देती हैं,वो एक पतिव्रता नारी है,वो तुम्हारा प्रेम कभी भी स्वीकार नहीं करेगी,
मोतीबाई !तुम समझती क्यों नहीं?मैं उसे चाहने लगा हूँ और वो मुझे ना मिली तो मैं पागल हो जाऊँगा,प्रेमप्रताप बोला।।
तुम उसके पति को जानते हो ना! तुम्हारे और उसके खानदान के बीच दुश्मनी है,कहीं रूद्रप्रयाग को कुछ पता चल गया ना तो यहाँ गोलियाँ चल जाऐगी और मैं ऐसा हरगिज़ नहीं चाहूँगी,मोतीबाई बोली।।
मैं तुम्हें रूपयों से तौल दूँगा,बस तुम उस तक मेरी ये चिट्ठी किसी भी तरह पहुँचा दो,प्रेमप्रताप ने भीख माँगी..
अब तो मोतीबाई अडिग ना रह सकी और प्रेमप्रताप की बातों से पिघलकर चिट्ठी पहुँचाने का वायदा कर बैठी,लेकिन मोती भी नहीं समझ पा रही थी कि जब ये चिट्ठी प्रयागी के हाथों पड़ेगी तो इसका अंजाम क्या होगा,लेकिन फिर भी वो एक रोज़ शाम को नदी किनारे प्रयागी से साधारण से कपड़ो में मिली,प्रयागी तो वैसे भी मोतीबाई को नहीं जानती थी,इसलिए वो उससे बड़े अपनेपन से मिली,एक दो रोज तक मोतीबाई प्रयागी से से ऐसे ही मिलती रही फिर तीसरे रोज़ बोली....
बहन!ये चिट्ठी तुम्हारे किसी चाहने वाले ने लिखी है,वो तुमसे प्रेम करने लगा है,
ये क्या कहती हो बहन?मैं सुहागिन हूँ,मैं तो उसे जानती भी नहीं जिसने ये चिट्ठी लिखी है,प्रयागी बोली।।
तो क्या तुम उससे मिलना चाहोगी?मोतीबाई ने पूछा।।
नहीं!हरगिज़ नहीं,मैं किसी पराऐ पुरूष से नहीं मिलना चाहती,प्रयागी बोली।।
बस,एक बार उसकी बात का मान रख लो,फिर उसके बाद उससे मिलने को ना कहूँगी,मोतीबाई बोली,
अब प्रयागी इनकार ना कर सकी और दूसरे दिन उससे मिलने का वायदा करके चली गई.....
लेकिन जब दूसरे दिन नदी के घाट पर प्रेमप्रताप और मोतीबाई पहुँचे तो प्रयागी वहाँ ना आई,प्रेमप्रताप नदी के घाट पर रात भर प्रयागी का इन्तजार करके बैठा रहा,मोतीबाई को वापस लौट जाने को कहा और मोतीबाई चली गई ,फिर वो वहीं रात को घाट पर ही सो गया,सुबह हुई तो प्रयागी स्नान करने घाट पर आई,तब तक प्रेमप्रताप जाग चुका था,उसने प्रयागी से कहा.....
सुनिए...मुझे आपसे कुछ कहना था,
मैं किसी पराए पुरूष से बात नहीं करती,प्रयागी बोली।।
मैं तो आपसे केवल ये पूछना चाह रहा था कि शाम को आप मिलने क्यों नहीं आई,मैं आपका इन्तजार रात भर करता रहा,प्रेमप्रताप बोला।।
अच्छा!तो वो तुम ही जो मुझसे मिलना चाहते थे,प्रयागी ने उसकी सूरत की ओर देखते हुए पूछा।।
जी!वो अभागा मैं ही हूँ,प्रेमप्रताप बोला।।
अभागे क्यों?प्रयागी ने पूछा,
वो इसलिए कि आप मुझसे मिलने नहीं आईं....प्रेमप्रताप बोला,
मेरे लिए घर की दहलीज़ लाँघना असम्भव है,मेरी आत्मा गँवारा नहीं करती ऐसा काम करने के लिए,प्रयागी बोली।।
लेकिन मैं आपसे प्रेम करने लगा हूँ,प्रेमप्रताप बोला।।
प्रेमप्रताप ने इतना कहा तो अब प्रयागी के लिए असहनीय था और उसने एक जोर का झापड़ प्रेमप्रताप के गाल पर धरते हुए कहा.....
लाज नहीं आती तुम्हें,उम्र में मुझसे छोटे होकर ऐसी बातें करते हो,मैं किसी की सुहागिन हूँ,कोई बाजारू औरत नहीं,खबरदार!जो आज के बाद मेरा रास्ता रोका तो मुझसे बुरा कोई ना होगा,
इतनी बेरहम मत बनिए,कुछ तो ख्याल कीजिए मेरी भावनाओं का,अगर आपने मेरा प्रेम स्वीकार नहीं किया तो मैं सच कहता हूँ मर जाऊँगा,प्रेमप्रताप बोला।।
अपनी बकवास बंद करो और जाकर किसी अच्छी लड़की से ब्याह करके उसे प्यार करो,मेरा पीछा छोड़ो,प्रयागी बोली।।
मैं अब किसी और से प्रेम नहीं कर पाऊँगा,क्योंकि मैनें अपना सारा प्यार आप पर लुटा दिया है,प्रेमप्रताप बोला।।
फिर से वही बकवास,प्रयागी बोली।।
ये बकवास नहीं प्रेम है और एक दिन मैं ये साबित करके रहूँगा,तब आपको मेरे प्यार पर भरोसा करना ही होगा,प्रेमप्रताप बोला।।
ये इस जन्म में तो नामुमकिन है,प्रयागी बोली।।
मैं मुमकिन करके दिखाऊँगा, इतना कहकर प्रेमप्रताप वहाँ से चला गया और प्रयागी उसे जाते हुए देखती रहीं....


प्रयागी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वो अब क्या करें?अपने पति रूद्रप्रयाग से इस बात को बताएं या ना बताएं,वो बड़ी कश्मकश में जकड़ी हुई थी,कभी कभी जीवन हमारे आगें ऐसी परिस्थिति लाकर खड़ी कर देता है कि उस परिस्थिति को सम्भाल पाना मानव के वश में नहीं होता,यही प्रयागी के साथ हो रहा था,
और उधर प्रेमप्रताप की दशा भी अच्छी नहीं थी,उसे प्रयागी के व्यवहार से गहरा आघात पहुँचा था, प्रेमप्रताप अपने प्रेम को प्रयागी द्वारा धिक्कारने के बाद जब वापस लौटा तो उसके मन में क्रोध की लपटें धू-धू करके जल रही थीं,वो नहीं जानता था कि ये निर्मल प्रेम नहीं प्रयागी के प्रति केवल वासना थी,जिसे बुझाने के लिए वो अब केवल विलास चाहता था,इसलिए उसने मोतीबाई का द्वार खटखटाया,उसने मोती को गले से लगाया और बोला......
वो नहीं मानी,अब मैं कहाँ जाऊँ?क्या करूँ?
कोई बात नहीं,आप यहाँ तसल्ली से बैठकर कुछ देर आराम कीजिए,मोती बोली।।
नहीं,मुझे आराम नहीं करना,मैं उसे और उसकी बातों को भूलना चाहता हूँ,प्रेमप्रताप बोला।।
तो फिर एक ही रास्ता है उसे और उसकी बातों को भुलाने का,मोतीबाई बोली।।
वो क्या?प्रेमप्रताप ने पूछा,
शराब....और केवल शराब,इसमें डूबकर अच्छा भला इन्सान भी अपने होश खो बैठता है,आप उसमें डूबकर सबकुछ भूल जाऐगें,मोतीबाई बोली।।
लेकिन मैं उसे भूलना नहीं चाहता,मुझे उससे मौहब्बत हो गई है,प्रेमप्रताप बोला।।
लेकिन उसकी कड़वीं बातो को तो भूलना चाहते हैं ना!तो फिर आपको शराब का सहारा लेना ही पड़ेगा,मोतीबाई बोली।।
ठीक है तो मोतीबाई आज तुम मुझे इतना पिलाओ कि सिवाय उसके मुझे कुछ भी याद ना रहें,प्रेमप्रताप बोला,
फिर क्या था,मोती ज़ाम पर ज़ाम बनाकर प्रेमप्रताप को देती रही और वो पीता रहा,इतना पीने के बाद भी शराब पीने की तृष्णा अभी पूरी नहीं हुई थी और प्रेमप्रताप बोला.....
मोती अभी और एक ज़ाम बनाओ मेरी जान!
मोतीबाई भी ज़ाम पर ज़ाम बनाकर प्रेमप्रताप को देती रही और वो नशे में झूमने लगा, उसने मदहोश होकर मोती के गले में हाथ डालकर आंँखें बंद किए हुए कहा,
प्रयागी! तुम बहुत सुन्दर हो, मैनें आज तक तुम जैसी स्त्री नहीं देखी,
मोतीबाई समझी नहीं, प्रेमप्रताप बड़बड़ाता रहा,वो और भी कुछ बोला....
आज की रात कितनी अच्छी है और तुम मेरे संग हो,तुम ऐसे ही मेरे पास आ जाया करो, किसी को कानों-कान ख़बर नहीं होगी,अगर किसी ने तुमसे कुछ कहा तो मुझे बताना,मैं उसकी चमड़ी उधेड़ दूँगा,प्रेमप्रताप ना जाने क्या कह रहा था और मोतीबाई को कुछ-कुछ समझ में आ रहा था,मोती ने सुना और उसे आश्चर्य से देखती रही, प्रेमप्रताप बड़बड़ाते उसकी गोदी में सो गया था, वह मन ही मन चिन्तित हुई,उसने उसका मन रखने को कह दिया.....
ठीक है!मैं आया करूँगी तुमसे मिलने,
लेकिन फिर दूसरे दिन उसने देखा कि प्रेमप्रताप और भी ज़्यादा पीकर आया है, उसके मुंँह से टूटे-फूटे बोल निकल रहे हैं,उसे स्वयं से आश्चर्य हुआ कि कैसी है यह स्त्री प्रयागी जिसके रूप पर मुग्ध होकर प्रेमप्रताप की तृष्णा दिनबदिन अधिक भड़कती जा रही है,उसे उसके स्त्रीत्व से ईर्ष्या हुई,उसके रूप से ईर्ष्या हुई...
इसी तरह कई दिन बीत गए थे और पहले से बदनाम प्रेमप्रताप दिनबदिन और बदनाम होता जा रहा था, किसी दिन वह पीकर नशे में धुत्त नाली में पड़ा मिलता तो कभी तवायफ़ों के गलों में हाथ डाले बीच बाज़ार जाते हुए मिलता,कई आदमी उसने बिना मतलब के ही पिटवा दिए थे केवल शराब के नशे में ,जिन्होंने उससे ये पूछा कि तुम्हें क्या हो गया है?,प्रयागी उसके दिल-ओ-दिमाग में रच बस चुकी,बस दिन-रात चौबीसों घंटे वो नशे में ही डूबा रहता था,मोतीबाई के पास जब भी जाता तो उससे प्रयागी से मिलने की इच्छा जाहिर करता, इसलिए वो भी उससे कनाव काटने लगी थी,वो नहीं चाहती थी कि रूद्रप्रयाग की गृहस्थी बर्बाद हो,क्योंकि वो कभी रूद्रप्रयाग को मन ही मन चाहा करती थी.....
मोतीबाई जब बहुत छोटी थी तब उसे कोई अप्सरी जान के कोठे पर बेच गया था,अप्सरी उस समय अकसर जमींदारों की महफिलों की रौनक हुआ करती थी और वहाँ नाच गाना करने जाती थी,धीरे धीरे मोतीबाई बड़ी होने लगी तो अप्सरी जान मोतीबाई को भी महफिलों में ले जाने लगी,वो इसलिए कि जमींदारों के साथ कैसे पेश आना,कैसे उन पर अपना जादू चलाना है ये सीखने के लिए,क्योंकि आगें चलकर मोतीबाई को भी तो यही काम करना था,इस तरह रूद्रप्रयाग का पन्द्रहवा जन्मदिन था,जमींदार विक्रम सिंह ने बहुत बड़ा जश्न मनाने का फैसला किया और नाच गाने के लिए अप्सरी को भी बुलवाया,
अप्सरी जान अपने साज वादकों के साथ हवेली में पहुँची,साथ में मोतीबाई भी गई थी,मोतीबाई भी पन्द्रहवीं पार करने के बाद माशाल्लाह कयामत लगती थी कयामत,कईयों ने तो उसकी बोली भी लगा दी थी,लेकिन अप्सरी ना मानी थी वो कहती अभी लड़की की उम्र कच्ची है,वो उसे अपनी तरह एक मशहूर तवायफ़ बनाना चाहती थी,अभी महफिल सजने में वक्त था इसलिए अप्सरी अपना श्रृगांर करने में लगी थी,मोतीबाई को भीतर अच्छा नहीं लग रहा था इसलिए वो हवेली के बगीचें में घूमने लगी,जल्दबाजी में वो अपने पैर में जूतियाँ पहनना भूल गई,उसने ध्यान नहीं दिया और बेरी के पेड़ के नीचें खड़ी होकर पके बेरों को देखने लगी,उसे बेर खाने का मन हुआ तो उसने एक पत्थर उठाकर पेड़ पर फेंका,कुछ कच्चे पक्के बेर नीचे गिरे तो वो उन्हें उठाने में ब्यस्त हो गई और तभी बेरी का एक काँटा उसके पैर में जा चुभा,
वो वहीं चीख पड़ी,पास में एक पत्थर पड़ा था और वो उस पर जाकर बैठ गई,दर्द के मारें उसके आँसू निकल रहे थे लेकिन उसकी हिम्मत ना पड़ रही थी कि वो अपने पैर में चुभे हुए काँटे को निकाल दे,तभी वहाँ शेरवानी पहने हुए रूद्रप्रयाग आया,उसने जैसे ही मोतीबाई को देखा तो पूछा....
तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रही हो?
मैं मोती,यहाँ बेर तोड़ने आई थी और देखो ना मेरे पैर में काँटा चुभ गया,मोतीबाई रूआंसी होकर बोली।।
ओह....तो ये बात है लाओ मैं तुम्हारे पैर का काँटा निकाल दूँ,रूद्रप्रयाग बोला।।
नहीं!मुझे दर्द होगा,मोतीबाई बोली।।
काँटा नहीं निकलेगा तो नासूर बन जाएगा,रूद्रप्रयाग बोला।।
नहीं...मैं नहींं निकलवाऊँगी काँटा,मोतीबाई बोली।।
अरे..निकालने दो ना!कसम खा के कहता हूँ तुम्हें बिल्कुल दर्द नहीं होगा,रूद्रप्रयाग बोला।।
और फिर मोतीबाई काँटा निकलवाने को राजी हो गई,रूद्रप्रयाग ने उसके पैर का काँटा निकाल दिया,अब मोतीबाई लँगड़ाकर चल रही थी,इसलिए रूद्र ने अपनी जूतियाँ उतारकर उसे पहन लेने को कहा,मोतीबाई ने जूतियाँ पहनी तो बोलींं....
ये तो बड़ी हैं....
कोई बात नहीं,कम से कम तुम्हारे पैर में काँटे तो नहीं चुभेगें,रूद्रप्रयाग बोला,
लेकिन तुमने अभी तक अपना नाम नहीं बताया,मोती ने पूछा।।
मैं...मैं...रूद्रप्रयाग सिंह,आज मेरा जन्मदिन है,रूद्र बोला।
और फिर दोनों में बातें होतीं रहीं,शाम को महफिल सँजी,अप्सरी ने मुजरा पेश किया और मोतीबाई जब रूद्रप्रयाग की जूतियों के साथ कोठे वापस लौटी तो अपना सुकून भी वहीं हवेली में छोड़ आई,उसे रूद्र पहली ही नज़र में पसंद आ गया था,वो उसे अपना दिल दे बैठी थी,रूद्र उसकी पहली नज़र का मासूम प्यार था,इसके बाद फिर कभी वो रूद्र से नहीं मिली,बस कभी कभार उसने उसे छुप छुपकर देखा था,उससे मिलकर कहती भी क्या कि वो एक तवायफ़ है,इसलिए उसने आज तक रूद्र से मिलने की कोशिश भी नहीं की,उसने सुन रखा था कि रूद्र एक चरित्रवान इन्सान है,इसलिए वो उससे मिलकर उसके चरित्र पर दाग नहीं लगाना चाहती थी....
शाम ढ़ल चुकी थी, प्रयागी ने अनमने मन से रात का खाना पकाया और मेहरी को खाना परोसकर देते हुए बोली.....
आज मैं ना खाऊँगी,तू खाना खाकर बर्तन माँज दे और अपने घर चली जा,
क्यों ना खाओगी मालकिन?जी अच्छा नहीं है क्या?मेहरी ने पूछा।
ना मन कुछ अच्छा नहीं रहता आजकल,प्रयागी बोली।।
मैं भी कुछ दिनों से देख रही हूँ कि आप ना तो ठीक से खातीं हैं और ना हँसती बोलतीं हैं,मेहरी बोली।।
कहा ना जी अच्छा नहीं है,तू खाना खा ले और बरतन धोकर अपने घर चली जा,वें आऐगें तो मैं उन्हें खिलाकर खा लूँगी,प्रयागी बोली।।
ठीक है,जैसी आपकी इच्छा,और फिर इतना कहकर मेहरी खाना खाने लगी.....
प्रयागी तो घोर चिन्ता में डूबी थी,इसलिए जाकर बिस्तर पर पड़ रही,मन में विचारों का तूफान सा आया था,वो सोच रही थी कि वो प्रेमप्रताप वाली बात अपने पति को बताएं या नहीं,लेकिन बहुत सोचने के बाद उसने फैसला कर लिया कि वो आज उनसे सब कह देगी,मेरा तो कोई दोष नहीं,मैं थोड़े ही प्रेमप्रताप को चाहती हूँ जो उन्हें ये बात बुरी लगेगी,
और फिर जब आधी रात को रूद्रप्रयाग लौटा तो तब तक प्रयागी सो चुकी थी,उसने किवाड़ो की साँकल खटखटाई,तब जाकर प्रयागी की आँख खुली,उसने फौरन किवाड़ों के पास जाकर पूछा...
कौन..कौन है?
मैं!दरवाजा खोलो,रूद्रप्रयाग दरवाजों के पीछे से बोला,
प्रयागी ने किवाड़ खोलते ही रूद्र से पूछा.....
आज बहुत देर लगा दी...
हाँ!किसी ने खाने पर बुला लिया था,वहीं रुक गया था,तुमने खाया या नहीं,रूद्र ने पूछा।।
मन नहीं था इसलिए नहीं खाया,प्रयागी बोली।।
तो तुम जाकर खा लो,फिर तुम्हें एक मज़ेदार बात बतानी है,रूद्र बोला।।
कहा ना जी नहीं है,खाने के लिए जिद ना करो जी!,मुझे तुम बात बताओ कि क्या है?प्रयागी बोली।।
अच्छा!ठीक है जी नहीं करता खाने का तो ना खाओ,रूद्र बोला।।
अच्छा!तुम पहले बात तो बताओ,प्रयागी ने पूछा.....
तब रूद्रप्रयाग बोला....
तो सुनो वो हमारे खानदानी दुश्मन का बेटा प्रेमप्रताप है ना!उसकी हालत आजकल बहुत खराब चल रही है,लोगों से सुनकर आ रहा हूँ कि वो आजकल किसी के प्रेम में पड़ गया था और जिसके प्रेम में वो पड़ा था,उसने मना कर दिया ,इसलिए बेचारा अब मारा मारा फिरता है,सुना है कि मोतीबाई के कोठे पर पड़ा रहता है,आजकल वो ही उसे सहारा दे रही है,
उस लड़की का पता चला ,जिसे वो चाहता है,प्रयागी ने रूद्र से पूछा।।
कमबख्त़! यही पता चल जाता तो क्या बात थी?रूद्रप्रयाग बोला।।
तो मैं बताऊँ कि वो कौन है?प्रयागी बोली।।
तुम्हें पता है कि वो कौन है?रूद्र ने पूछा।।
हाँ! मुझे पता है,प्रयागी बोली।।
लेकिन तुम उसे कैसे जानती हो?रूद्र ने पूछा।।
क्योंकि!वो मुझे ही चाहता है और मेरे मना करने पर ही उसकी ये दशा हुई है,प्रयागी बोली।।
ये सुनकर एक पल को रूद्र सन्न रह गया और बोला....
ये क्या कहती हो?वो तुम्हें चाहता है....
मैं बहुत दिनों से तुम्हें ये बात बताना चाह रही थी लेकिन डरती थी,प्रयागी बोली।।
तो आज क्यों बताई?रूद्र ने पूछा।।
आज मैने तुम्हें ये बात बताने का फैसला कर लिया था,प्रयागी बोली।।
वो तुम्हें चाहता है ये मुझे पता ही नहीं था,रूद्र बोला।।
तो अब मेरी समस्या का समाधान करो,मैं उससे कैसे पीछा छुड़ाऊँ समझ नहीं आता,प्रयागी बोली।।
तुम ऐसा करो,उससे जाकर कहो कि मैं भी तुम्हें चाहती हूँ,रूद्र बोला।।
ये क्या कह रहे हो तुम?तुम्हें होश तो हैं ना!वो पराया पुरूष है और मैं तुम्हारी ब्याहता,प्रयागी बोली,
तो क्या हुआ?तुम्हें तो उससे प्यार करने का नाटक करना है,जब ऐसा लगने लगे कि वो तुम्हें चाहने लगा है और तुम्हारे बिन जी नहीं सकता तो उसे सच्चाई बताकर उसका दिल तोड़ दो,रूद्रप्रयाग बोला।।
ये नहीं हो सकता,मैं हरगिज़ ये ना करूँगीं,प्रयागी बोली।।
मेरे लिए इतना ना करोगी,रूद्र बोला,
इससे तुम्हें क्या मिलेगा?प्रयागी ने पूछा।।
बदला....बदला मिलेगा मुझे,रूद्रप्रयाग बोला।।
ये बदला लेने का तरीका सही नहीं है,प्रयागी बोली।।
इश्क़ और जंग मेँ सब जायज होता है,रूद्र बोला।।
लेकिन मेरा जी नहीं मानता,प्रयागी बोली।।
तो अपने जी को मनाकर ,मेरा ये काम करो,रूद्रप्रयाग बोला।।
मुझे सोचने का कुछ वक्त दो,प्रयागी बोली।।
जितना सोचना है सोच लो,लेकिन जवाब हाँ में आना चाहिए,रूद्र बोला.....
और फिर रूद्र की बात सुनकर प्रयागी एक अजीब ही दुविधा में फँस गई.....
क्रमशः.....
सरोज वर्मा.....