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पेज 3 समाज सेवा

डाॅ प्रभात समीर

' जीवन विहार ' नाम की इस कॉलोनी में जाने के लिए पक्की सड़क से मुड़कर थोड़ा सा कच्चा रास्ता पार करना पड़ता था । इस कॉलोनी में एक ही ऑफिस के लगभग 30-40 घर बने हुए थे।अधिकांश लोग इसे 'ऑफिसर्स फ्लैट्स' के नाम से ही जानते थे। घरों को घेरे हुए एक चारदीवारी थी, जिसके गेट पर बने हुए केबिन में बैठे सिक्योरिटी गार्ड जब आते-जाते लोगों को सैल्यूट मारते थे तो काॅलोनी की अहमियत और भी बढ़ जाती थी ।

खाली समय का सदुपयोग करने के लिए फ्लैट की महिलाओं ने कॉलोनी के नाम पर ही ' जीवन विहार महिला क्लब ' नाम से एक संस्था भी बना रखी थी, जिसमें पति और परिवार की जानकारी लेने - देने के अलावा, बैठे-ठाले दाल, सब्जी़, जूता, कपड़ा से लेकर हीरे जवाहरात बाइक और कारों तक की इकाॅनामी पर चर्चा होती रहती थी। इसके अलावा छोटी- मोटी जो भी सामाजिक गतिविधियां रहतीं,लोकल समाचार पत्रों और ऑफिस से निकलने वाली पत्रिका में उनकी ऐसी न्यूज़ बनती कि महिलाओं की सक्रियता और उनके निःस्वार्थ सेवा भाव के सभी कायल हो जाते ।कुल मिलाकर कागज़ी स्तर पर क्लब ने काफी शोहरत पा रखी थी ।

ऑफिसर्स के स्थानांतरण होते रहते । नये आते, पुराने चले जाते। उसी हिसाब से क्लब की सदस्यों में भी बदलाव होते रहते थे ।

इस क्लब के कुछ नियम- कानून थे, जिसका सभी सदस्य बड़े मन से अनुपालन करतीं । मसलन अध्यक्ष का पद हमेशा ऑफिस के सबसे बड़े अधिकारी की पत्नी ही संभालतीं। इस पद के लिए किसी भी तरह की दक्षता या कार्यकुशलता की आवश्यकता नहीं थी। बॉस की पत्नी होना भर अध्यक्ष पद के लिए पर्याप्त था । उपाध्यक्ष, सचिव, उपसचिव, कोषाध्यक्ष जैसे पदों के लिए चुनाव की प्रक्रिया थी, जिसका उपयोग कभी किया नहीं जाता था। इस विषय में भी अध्यक्ष की पसंद और नापसंद को ही प्राथमिकता दी जाती थी । इस तरह एक तीर से दो शिकार हो जाते थे। पदाधिकारियों के चयन की बागडोर बॉस की बीबी के हाथ में रहती तो उनका अहं संतुष्ट होता, दूसरे समर्थन और विरोध की प्रत्यक्ष प्रक्रिया से बचे रहकर ऑफिसर्स की पत्नियों में आपसी सद्भाव बना रहता ।

नए सत्र में क्लब समिति का फिर से गठन हो चुका था मिसिज़ भंडारी ने अध्यक्ष पद ग्रहण करते ही मिसेज़ शर्मा, मिसेज़ अग्रवाल मिसेज़ गुप्ता और मिसिज़ डे को अलग-अलग पद दे दिए थे । इसके अलावा मिसिज़ सिन्हा, मिसेज़ सुब्रमण्यम, मिसेज़ उपाध्याय, मिसिज़ सक्सेना उनकी विशिष्ट सलाहकारों में थीं। भंडारी पहले दिन के ही अपने अध्यक्षीय भाषण में कह चुकी थीं कि वह अपने क्लब को और भी निखारना चाहती हैं । कैसे ? यह स्पष्ट नहीं था।

उस दिन भी क्लब की मीटिंग थी । अध्यक्ष कुछ उखडा़ सा महसूस कर रही थीं। उन्हें खुश करने के लिए स्वेटर के नए डिजा़इन, नई रेसिपी उनकी पसंद का गाना सुनाने जैसे कई प्रस्ताव सामने आए, तभी अध्यक्ष ने कहा -

'आज कुछ करने का मन नहीं बन पा रहा ।चलें, कुछ समाज सेवा करें।'

कहकर अध्यक्ष स्वयं पर ही मुग्ध हो उठीं। क्लब को और निखारने की योजना उन्हें साकार होती दिखाई दी ।

- 'समाजसेवा कॉलोनी से बाहर जाकर....' कुछ एक को अच्छा नहीं लगा। सुझाव तो अध्यक्ष का, इसलिए विरोध की गुंजाइश नहीं थी मिसेज़ शर्मा ने करीब के सरकारी हॉस्पिटल में चलने की सलाह दी-

'- फल वगैरह बांट देंगे ,हालचाल पूछ लेंगे....बढ़िया न्यूज़ भी बन जाएगी।'

- 'अस्पताल वह भी सरकारी ! आज तक तो किसी सरकारी अस्पताल में कदम नहीं रखा, अब चल दें और 1-2 बीमारी और मोल ले आएं!' मिसिज़ अग्रवाल को हौस्पिटल का सुझाव बहुत बचकाना लगा।

-'सरकारी-वरकारी रहने दो।कोई ढॅंग की जगह....' मिसिज़ अग्रवाल को औरों का भी समर्थन मिला।

कॉलोनी के पीछे थोड़ी दूरी पर भीख मांगने और कूड़ा -कबाड़ बीनने वालों ने कुछ एक झुग्गियां बना ली थीं । कबाड़ के सामान के साथ ही उनमें मर्द और औरत ठुॅंसे रहते थे । छोटे-छोटे बच्चे सुबह -सवेरे ही कूड़ा बीनने, भीख मांगने जैसे कामों के लिए निकल पड़ते थे। सर्दी-गर्मी, धूप, बारिश का उन पर विशेष असर नहीं पड़ता था। वे झुग्गियों से बाहर ही बने रहते थे । उनका तो खेलना -कूदना ,खाना- पीना, सोना- जागना सब खुले में ही हो जाता था ।

मिसिज़ गुप्ता ने प्रस्ताव रखा -

' झुग्गी - झोपड़ी तक चलते हैं, ज़्यादा टाइम भी नहीं लगेगा । फो़टोग्राफर को भी वहीं बुला लेंगे... ।'

तभी समवेत सर सुनाई दिया--

-'न, न जाहिल गॅंवारों के बीच में नहीं ।'

-'गंदे भी रहते हैं । सिर भन्ना जाएगा।'

-' चोरी -चकारी भी सीख रखी है।'

ऐसे स्तरहीन प्रस्ताव के लिए सभी ने मिसिज़ गुप्ता को बड़ी हिकारत से देखा।

समय कम था।शाम होते तो ऑफिस वालों की गाड़ियों का आना-जाना शुरू हो जाता था । महिलाओं को अपनी गृहस्थी की चिंता होने लग जाती थी, लेकिन समाज सेवा की बात अध्यक्ष के मुॅंह से निकली थी, इसलिए पूरी भी होनी थी । तभी सुनाई दिया-

-'नारी निकेतन! अपनी बहनों के बीच में?'

-' अपनी बहनें! मालूम भी है इन लोगों के कितने तमाशे रहते हैं ?

-कितनों के तो वहा पुलिस -थाना, कोर्ट कचहरी के लफड़े रहते हैं। भले लोगों का तो वहा कोई काम ही नहीं है....'

-' मैडम, क्लब में जो भी हो कूल हो, टेंशन नहीं...'

इस बात से अध्यक्ष को भी सहमत होना ही पड़ा कि उन जैसी संभ्रांत महिलाओं को नारी निकेतन वगैरह के पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए। फिर पौधे लगाने का सुझाव आया -

-'पौधे लगा लें बाहर चलकर?'

-' कुछ दिन पहले तो पौधे लगाकर फ़ोटो खिंचवाए हैं ।'

कुछ एक सदस्यायों को ऐसे ही बैठे -बैठे योजनाएं बनाने, बिगाड़ने में भी खूब मज़ा आ रहा था। तभी अध्यक्ष ने अपना अंतिम निर्णय सुना दिया-

-' बाल दिवस करीब है आज किसी अनाथ आश्रम में चलते हैं।'

किसी नये आईडिया के लिए अब न समय था और नअध्यक्ष के निर्णय के बाद कुछ कहने की गुंजाइश।

आख़िरकार महिलाएं कॉलोनी से निकलकर कच्चे रास्ते पर आ गईं। फ़ोटोग्राफ़र वगैरा का दायित्व भंडारी साहब का रहता था, उन्हें फोन कर दिया गया ।

दोपहर का समय था ,कच्चा रास्ता खाली और सुनसान पड़ा था । महिलाऐं गपशप करती हुई चली जा रही थीं । तभी मिसिज़ भंडारी किनारे रखे कचरादान से टकरा गईं । हाथ में लगा उनका रुमाल और मिनी पर्स भी कचरेदान में जा गिरा। बॉस की बीवी के टकरा जाने से हलचल मच गई। भंडारी संभल चुकी थी फिर भी एक- दो ने आगे बढ़ कर उन्हें सॅंभालने का अभिनय किया। भंडारी ने कूड़ेदान में झाॅंककर अपने पर्स को देखा ,साथ में मिसिज़ शर्मा भी झुकीं। कुछ हिलता हुआ दिखाई दिया। गौर से देखा एक नन्हा हाथ हिला था। बहुत धीमी, बारीक रोने की आवाज़ कचरेदान के किनारे को छू कर लौट जाती हुई भी सुनाई दी। भंडारी चीखीं-'बच्चा!'

-'बच्चा'!कहां है बच्चा?'

तब तक बच्चे की नियति से बेपरवाह एक सदस्या ने मिसेज़ भंडारी का पर्स उठाते हुए कहा- -'बच्चा तो जैसे मैडम का पर्स बचाने को ही यहाॅं पड़ा है, ज़रा भी गंदा नहीं हुआ ।'

और महिलाएं भी कचरेदान तक पहुंच चुकी थीं। एक नन्ही जान सूखे होठों पर मक्खियों का झुंड समेटे हुए दया और ममता के इंतज़ार में पड़ी थी। दो-चार चींटियां भी उसके बदन पर रेंग रही थीं। लग रहा था कि बच्चा तभी वहाँ रखा गया था ।

 

कचरेदान से बदबू का तेज़ भभका उठा। महिलाओं ने नाक पर रुमाल रख लिए। कुछ एक छिटककर दूर जा खड़ी हुईं। कुछ संवेदनशील महिलाओं ने अपना साड़ी, कपड़ा बचाते हुए कचरेदान में फिर से झाॅंककर देखा। सभी के लिए समय का बहुत महत्व था और समय था कि व्यर्थ निकलता जा रहा था। महिलाओं की ऑंखों में प्रश्न तैर रहे थे। कुछ थीं, जो वहाँ रुके रहने का औचित्य ही नहीं समझ पा रही थीं । कुछ एक बच्चे को लेकर चिंतित दिखाई दीं । सचिव ने अध्यक्ष से पूछा -' बच्चे का क्या करना है ?' -'अनाथाश्रम पहुंचा दें?'

-' यही ठीक रहेगा।'

-' ठीक तो रहेगा, लेकिन उठाएगा कौन ?'

दोपहर का समय था । बाइयाॅं, सफ़ाई कर्मचारी काम निपटा करके जा चुके थे । मिसिज़ भंडारी का नौकर भी साहब का लंच लेकर चला गया था। होता भी तो बच्चा उठाना, वह भी गंदगी से !उसकी शान के खिलाफ ही रहता।

काॅलोनी से आगे रास्ता बंद था, इसलिए कच्चे रास्ते पर लोगों का आवागमन न के बराबर रहता था। रास्ता खाली पड़ा था। महिलाओं को अब बच्चे पर बहुत तरस आ रहा था ।बार-बार मुंह से 'उफ़', 'हाय', 'बेचारा', 'कर्मजला' जैसे शब्द निकल रहे थे । एक-दो सदस्याएं अपने आप को बड़ा असहाय महसूस करते हुए कह रही थीं-

-' अपने यहां तो छुआछूत का ही बहुत चक्कर है बच्चे को हाथ भी लगाया तो .....'

एक-दो धीरे से बोलीं -

-'इतना समय बर्बाद किया जा रहा है, बच्चा भी कहीं बचने वाला है क्या?'

तभी सुनाई दिया -

-'यह ज़रूर झुग्गी- झोपड़ी में से किसी का काम होगा।

बच्चे को छोड़कर सभी उसकी जन्मदात्री को कोसने में जुट गईं ।'पाप' ,'अनैतिक', 'अवैध' जैसे शब्द बोलती हुई महिलाएं शर्मसार हुई जा रही थीं । अधिकांश महिलाएं बच्चे का नाम लेने से भी घबरा रही थीं।

भंडारी और मिसेज़ शर्मा ने फिर झाॅंका । बच्चे के शरीर पर चीटियों की संख्या बढ़ गई थी।शायद रोने के लिए खोले गए मुॅंह के अंदर मक्खियों ने झुंड बना लिया था । भंडारी बच्चे को कैसे भी करके बाहर निकाल लेना चाहती थीं, लेकिन आज तो कोई महिला उनका आदेश मानने को तैयार ही नहीं थी। पुलिस को फ़ोन कर देने का विचार भी मिसिज़ भंडारी के ही मन में आया,लेकिन पचड़े में पड़ने को कोई तैयार नहीं था । भंडारी पसोपेश में पड़ी हुई थीं, तभी सुनाई दिया -

- ' खड़े रहकर बेकार में फजीहत होगी, निकल लेते हैं।'

भंडारी की भी शायद यही इच्छा थी, लेकिन कर्तव्य विमुख नहीं कहलाना चाहती थीं, बोलीं -

-'बच्चे को ऐसे छोड़कर....?'

कुछ सदस्यायों ने बांह पकड़कर उन्हें खींचा और बहुत ममता से कहा-

- ' इतनी टेंशन लेंगी तो बीमार पड़ जाएंगी, हटें आप यहां से....'

मिसिज़ वर्मा ने तब तक कचरेदान में झांककर देखा । बच्चे का हल्का सा हाथ हिला मानो इन्सानों के बीच में आने के लिए अभी भी बहुत आतुर हो, लेकिन उसके इस आमंत्रण को स्वीकार करने का साहस किसी में भी नहीं था । कचरेदान में पड़ा कागज़, कपड़ा, लोहा, प्लास्टिक जैसा कबाड़ भी बच्चे से कहीं अधिक कीमती था, जिसे बीन-बीनकर कुछ लोग झोलों में भरकर ले जाने वाले थे। एक अकेला वह इन्सानी जिस्म अवैध और अमान्य था। बच्चे ने सबके सामने ही दम तोड़ दिया।

-'बच्चा तो गया! ज़रा मकोड़ों की लाइन तो देखो उस पर!' किसी सदस्या ने राहत की साॅंस लेकर कहा।सुनते ही लगभग महिलाएं दूर छिटक लीं मानो कूड़ेदान से बच्चे का प्रेत निकलकर उनसे चिपक लेगा ।महिलाओं की स्थिति बिगड़ने लगी थी । कुछ एक को उल्टी सी आ रही थी । वहाँ से चुप निकल लेना ही ठीक था । मिसिज़ वर्मा को बहुत तरस आ रहा था कंधे पर पड़ी पतली सी शाल को उन्होंने उतारा और बच्चे पर डालने लगीं ।पास खड़ी सदस्यायों ने उन्हें खींचा और बिफ़र उठीं-

-'कोई पहचान मत छोड़ो, निकल लो यहां से...'

समाज सेवा के लिए निकली महिलाएं तेज़ी से चलकर पक्की सड़क पर आ गईं । कुछ देर दर्शन उन पर हावी रहा । कुछ ने हाथ जोड़कर अपने परिवार के शुभ और मंगल के लिए ईश्वर से प्रार्थना की,कुछ ने बच्चे की सद् गति के लिए,उसके अगले अच्छे जन्म के लिए भी हाथ जोड़े । वातावरण कुछ देर बड़ा बोझिल रहा फिर सब कुछ सामान्य हो गया ।

महिलाएं अब बच्चे को भूल चुकी थीं गपशप और हंसी -मजा़क में रास्ता अच्छा कट गया।

अनाथालय पहुंचकर क्लब की सदस्यायों ने बड़ी करुणा और दया के साथ बच्चों के साथ फोटो खिंचवाईं। मिसिज़ भंडारी ने पत्रकारों को एक छोटा सा इंटरव्यू भी दे डाला । अनाथ बच्चों के लिए बचपन से ही कुछ ना कुछ करते रहने के अपने जज़्बे का ज़िक्र करना वह नहीं भूलीं। अन्य महिलाओं ने भी अनाथ बच्चों के लिए अपने सहयोग और योगदान का भरपूर आश्वासन दिया।

दूसरे दिन स्थानीय समाचार पत्रों ने 'जीवन विहार क्लब' की सदस्यायों की भरपूर प्रशंसा की। फल,मिठाई बाॅंटते हुए, आश्रयदाता के रूप में बच्चों के सिर पर हाथ रखे हुए सभी सदस्यों के बड़े स्टाइल में खिंचवाई गई फ़ोटो भी अखबारों में दिखाई दीं। उनकी भावी योजनाओं की भी सराहना की गई । शीर्षक था 'जीवन विहार क्लब के बढ़ते कदम' ।

ठीक नीचे बिना शीर्षक का एक अनुच्छेद था। किसी नवजात के कचरे के डिब्बे में मिलने की ख़बर थी। इस तरह बच्चे का अस्तित्व अखबार में एक फिलर में समा कर रह गया था ।

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