another scope in Hindi Short Stories by prabhat samir books and stories PDF | एक और दायरा

Featured Books
  • અસવાર - ભાગ 3

    ભાગ ૩: પીંજરામાં પૂરો સિંહસમય: મે, ૨૦૦૦ (અકસ્માતના એક વર્ષ પ...

  • NICE TO MEET YOU - 6

    NICE TO MEET YOU                                 પ્રકરણ - 6 ...

  • ગદરો

    અંતરની ઓથથી...​ગામડું એટલે માત્ર ધૂળિયા રસ્તા, લીલાં ખેતર કે...

  • અલખની ડાયરીનું રહસ્ય - ભાગ 16

    અલખની ડાયરીનું રહસ્ય-રાકેશ ઠક્કરપ્રકરણ ૧૬          માયાવતીના...

  • લાગણીનો સેતુ - 5

    રાત્રે ઘરે આવીને, તે ફરી તેના મૌન ફ્લેટમાં એકલો હતો. જૂની યા...

Categories
Share

एक और दायरा

डाॅ.प्रभात समीर

मामा फोन पर कह रहे थे-

‘तूने अगर अपनी मामी के ख़त और उसकी कसम के सहारे मुझे ब्लैकमेल न किया होता तो मैं यहाँ तीन महीने तो क्या तीन घन्टे भी न बिताता।’ उनका गुस्सा किसी तरह भी कम होने पर नहीं आ रहा था। मामा यानी मेरी माँ के मुँहबोले भाई।

माँ की अंगुली पकड़कर मैंने जो उनके घर में जाना शुरू किया तो आज तक भी वह क्रम वैसा ही बना रहा। मामा और मामी के रिश्ते को परिभाषित करने के लिए त्याग, स्नेह और समर्पण जैसे शब्द भी कम पड़ते थे। मामी मामा की मामूली सी नौकरी को लेकर जितनी गर्वित रहती थींं, उनके रिटायरमेंट को लेकर उससे भी ज़्यादा अभिभूत थी। रिटायरमेंट के दिन पहनाई गई फूलमालाओं को ज्यों का त्यों गले में डाले, दो-चार उपहार हाथ में लिए हुए मामा जब मामी के सामने जाकर खड़े हुए तो वह उनकी नज़र उतारने को दौड़ीं, फिसलीं और चोट खा गईं।

उस दिन उनका गिरना उनके स्वास्थ्य के लिए एक बहाना बन गया। दर्द की तेज़ लहरों से बिलबिलाती हुई मामी की अन्दरूनी चोटों की खोज में जुटे डाक्टरों ने उनके अंदर पनपती डाइबिटीज़, हाई बी.पी., आर्थराइटिस जैसी कई और बीमारियों को भी ढूँढ निकाला।

मामी की शारीरिक अक्षमताएँ बढ़ने लगीं। मेरा दिल यह सोचकर डूबने लगा कि उन दोनों का 35-40 साल का इतना उदाहरण योग्य रिश्ता कहीं ऊब, खीज और विरक्ति के रास्ते से गुज़रता हुआ कोई भयंकर रूप न पकड़ ले, लेकिन इन बदले हुए हालातों ने उन दोनों को और भी करीब लाकर खड़ा कर दिया।

मामा का दिन मामी को योग और प्राणायाम के सहारे स्वस्थ कर लेने के संकल्प से शुरू होता। किताबों के शौकीन मामा कुछ-कुछ पढ़कर मामी को सुनाते। मामी शायद बहुत कम समझ पातीं लेकिन सुनने में पूरा सहयोग देतीं। गपशप, शेर-ओ-शायरी, किस्सागोई के साथ-साथ ताश, लूडो, कैरम चलते। टी.वी. सीरियल और समाचार चैनलों को लेकर खूब नोक-झौंक होती। बात-बात पर खिलखिलाती मामी और ठहाके लगाते मामा को ज़िन्दगी जीने के लिए चौबीस घन्टे भी कम नज़र आते।

मैं अक्सर कहती -

‘मेरे अधिकार में होता तो आप दोनों को पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण सब एक साथ दिलवा देती। मामा कहते-

‘तू तो अपनी मामी को ऑस्कर दिलवा दे। इससे बड़ी एक्ट्रेस तो इस ज़मीन पर पैदा ही नहीं हुई। देखा नहीं, अपने सारे दर्द छिपाकर सिर्फ खिलखिलाती है।’

मामी पर योग, प्राणायाम, दवाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनके घुटने और गुर्दे भी जवाब दे गए। चिन्ता और तनाव से घिरी मामी ने मुझे कई पत्र लिख डाले। वह बार-बार लिखतीं-’लाडो,मैं अपाहिज और असहाय हो गई हॅॅॅूँ फिर भी मरना नहीं चाहती। ये जो तेरे मामा हमारे सात जन्मों के रिश्ते का हक़ एक ही जन्म में अदा करते जा रहे हैं, मेरे मरने से ऐसा टूटेंगे कि कोई सँंभाल नहीं पाएगा।’

मामी का नाम सन्तोष था। उन्होंने यहाँ तक लिख डाला कि मेरा वश चलता तो किसी मिट्टी की सन्तोष में प्राण फूँककर यहाँ बिठा जाती और चैन से मरती।

ये पत्र मामी की मौत के सन्देशवाहक थे। मरने से पहले मामी ने अपनी अंतिम इच्छा मामा के सामने रख दी, कहा-- ‘इस बार दीपावली कुछ अलग ढंँग से मना लें।’ अपने बेटे-बहू के साथ मिलकर मामा ने अनूठे आयोजन सोच डाले, लेकिन मामी थीं कि दीपावली की सुबह बिस्तर से ही नहीं उठी।

मामी की इच्छा पूरी न कर पाने का बोध लिए हुए मामा सदमे में आ गए। रोज़ी-रोटी के लिए रात-दिन संघर्ष करते हुए बेटे, बहू के पास मामा के लिए समय ही नहीं था। मामा के पास समय ही समय था, लेकिन मामी की इच्छा पूरी न कर पाने के आपराधिक बोध    और उनके चले जाने के क्षति बोध ने उन्हें तोड़कर रख दिया था। अकेलेपन और उदासियों के अजगरी रूप ने उन्हें अशक्त कर डाला था।

मैं फोन करती, वह घुमा फिराकर एक ही बात कहते- ‘एक खरोंच मेरे मन में है कि तेरी मामी के लिए कुछ न कर सका।’

खरोंच कहाँ वह तो नासूर था जो रिसता ही चला जा रहा था।

आखिर मैंने ही एक निर्णय ले डाला। मेरी बात सुनकर उन्हें ऐसा लगा मानो मैंने उनकी स्वतंत्रता, सम्मान और अहं की दीवारों को तोड़कर, घुसपैठ करके उन पर आक्रमण कर दिया हो। उनका हाथ मुझे मारने को उठा। सतर्क होकर उन्होंने चारों और देखा कि कहीं मेरी विषैली सोच का ज़हर उनके बेटे, बहू के कानों में तो नहीं घुल गया। फिर बड़े गुस्से में बोले-

‘यह बात तेरे दिमाग में आई कैसे ?'

मैंने परवाह किए बिना ‘ओल्ड एज होम’ में जाकर रहने की बात एक बार फिर से  दोहरा दी। वह बड़े घृणित भाव से  बोले-

‘मेरे पूरे ख़ानदान में आज तक कभी कोई ‘ओल्ड एज होम’ में जाकर रहा है?’ वह बुदबुदाते जा रहे थे- ‘ऐसी बेइज्ज़त जगह पर जाकर रहूँ और अपने बच्चों की भी थू-थू करा दूँ ?’

‘- ’बेइज्ज़त जगह?’

- ‘हाँ, हाँ, बेइज्ज़त जगह।’

मैंने पहले उनके फोन कॉल्स की टेप चलाई। एक ही वाक्य हवा में तैरने लगा-लाडो,मैं अकेला पड़ा हुआ ...’ उन्होंने खटाक से टेप बन्द कर दी। बड़े उग्र होकर बोले-

‘अकेला न पड़ा रहूँ तो क्या इस उम्र में हल चलाऊँ?’

मैंने बिना देर किए मामी के ख़त उनके सामने रख दिए और कह ही डाला - --

'हल नहीं चलाएँ, अपने हमउम्र साथियों के साथ ज़िन्दगी जीएँ।’

वह पत्र पढ़ते रहे और रोते रहे। मैंने एक बार फिर चोट की, कहा----

‘मामी जीवित रहीं तो बीमारी ने उनके शरीर का चैन छीना, अब आपने उनकी आत्मा को बेचैन करके रखा है।’

मामा ने बड़ी दयनीय दृष्टि से मुझे देखा।

आखिरकार  सिर्फ़ तीन महीने के लिए किसी सैलानी की तरह ‘ओल्ड एज होम’ जाने को वह तैयार हो गए। छोड़ते हुए हाथ पकड़कर, मैंने चुटकी ली---

‘इतने रोमांटिक शेर आज भी आपके होठों पर थिरका करते हैं, क्या मालूम वहाँ सुनने वाला कोई सही कद्रदान मिल जाए।’

मामा ने हाथ झटका --- ‘बकवास मत कर। अपना वायदा याद रख।’

दीपावली से पहले उन्हें वापिस घर ले आने का वायदा करके मैं लौट ली।

आज उनका फ़ोन और झलकता हुआ गुस्सा बता रहा था कि वह अपने घर में अपने ठहरे हुए जीवन को लेकर ही खुश थे। मैं उनमें जिजीविषा पैदा नहीं कर सकती थी। तीन महीने बाद उन्हें वापिस ले आने का निश्चय करके मैं अपने कामों में लग गई।

अचानक एक दिन मैंने महसूस किया कि कई दिन से मामा ने फ़ोन ही नहीं किया। आशंकाओं ने मुझे घेरा- ‘कहीं बीमार हों.....’, ‘कहीं और ज़्यादा नाराज़ हों....’, ‘कहीं वहाँ से निकल ही लिए हों....।’ मैंने घबराकर उन्हें फ़ोन मिलाया। मुझे ढंग से उत्तर नहीं मिला। आवश्यक था कि मैं उनके मन की बात जान पाती। मैं उन्हें जल्दी-जल्दी फ़ोन करने लगी। वह फ़ोन उठाते, लेकिन बड़ी जल्दी में रहते। अब उनकी बातों में कई एक दोस्तों के नाम जुड़ने लगे। उनका अकेले पड़े रहने और निरर्थक बने रहने का भाव अब लुप्त होने लगा था, फिर भी तीन महीने बाद लौट लेने का वायदा वह अब भी याद दिला देते थे।

दीपावली से एक दिन पहले उन्हें वापिस घर ले आने को निकली तो आशंकाओं से घिर गई। यही सोचती रही कि लौटकर एक बार फिर अगर मामा अकेलेपन और लाचारगी की अन्धेरी कन्दरा में घुसे तो कोई ख़त, कोई कसम भी उन्हें बाहर नहीं निकाल पाएगी।

‘ओल्ड एज होम’ पहुँचने पर ढूँढने से मामा एक कमरे में दिखाई दिए। वहाँ मजमा लगा हुआ था। मामा के हम उम्र स्त्री-पुरूष हँसी मज़ाक और ठहाकों के बीच में दीपावली की सजावट में लगे हुए थे। मामा एक सीढ़ी पर चढ़े हुए कुछ टाँगने में व्यस्त थे। सीढ़ी पकड़े हुए एक महिला कुछ सुनाती जा रही थीं और मामा ‘वाह-वाह’ करते जा रहे थे। तभी मामा भी अपनी पुरानी आदत के हिसाब से कुछ गुनगुनाने लगे और फिर हाथ रोककर, मुड़कर उन्होंने कोई शेर सुनाया। पहली पंक्ति में ‘ख़्वाब बुनने....’ की कोई बात उन्होंने कही और दूसरी पंक्ति में ‘तू भी अपना ठिकाना बना ले....' जैसा कुछ वह कहते जा रहे थे।

जीवन जीने का संकल्प उस वर्ग में अँगड़ाई ले रहा था। मामा भी उसी वर्ग का एक हिस्सा थे। मैं बिना मिले वहाँ से लौट ली ।

---------------------------