Prem Gali ati Sankari - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम गली अति साँकरी - 13

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बरसों ऐसे ही निकलते जा रहे थे जैसे पवन के झौंके !पापा का व्यापार और अम्मा का संस्थान बुलंदियाँ छू रहा था और कभी-कभी यह प्रश्न भी उठता ही था कि आखिर कौन चलाएगा उन व्यवसायों को बाद में? समय के साथ-साथ मन की साँकल कुछ प्रश्नों की खटखटाहट करने ही लगती है | पापा-अम्मा,  दोनों का स्टाफ़ बहुत अच्छा था | कितने लोग जुड़े हुए थे उनसे और काम था कि बढ़ता ही जा रहा था | वे कभी काम कम करने के बारे में सोचते या चर्चा भी करते तो न जाने क्यों निष्कर्ष हर बार यही निकलता कि जितने लोग उनसे जुड़े हैं, कम से कम उनके परिवार तो पल ही रहे हैं, उनकी छंटनी होने के बाद वे कहाँ जाएंगे ?

सारी बातों का लुब्बोलुआब यह था कि मन कहता मैं अपनी उसी जगह आज भी खड़ी रहूँ, जहाँ मैं थी| इतने वर्षों के बाद भी मैं वहीं तो खड़ी थी| आज कितने लोग रह पाते हैं माँ-पिता के पास ?विदेशों में जाने की एक होड़ सी तो लगी हुई है और माता-पिता भी वही करते हैं जिसमें उनके बच्चों की रजामंदी हो| अम्मा-पापा ने भी तो यही किया था | एक-दो बार इस विषय पर हल्की सी चर्चा हुई भी हम तीनों के बीच लेकिन उसमें मुझे अधिक इनवॉल्व नहीं किया गया | वैसे हमारे परिवार का यह नियम ही था कि बच्चों को पूरी छूट थी कुछ भी सोचने, अपने विचार रखने की, अपने मन मुताबिक करने की लेकिन बचपन से जहाँ हम देखते थे कि इस फ़ील्ड में हमारी अनाधिकार चेष्टा है, उसमें हम दोनों बहन-भाई जाते ही नहीं थे | असहजता का वातावरण बनने से पहले ही 'एक्स्कयूज़ मी' कहकर वहाँ से उठ जाना, हमारे परिवार की सभ्यता के अंतर्गत आता था| 

समय को बीतना होता है, वह किसकी मुट्ठी में बंधकर रहा है ? इसी प्रकार ज़िंदगी तट पर कब आ लगती है पता ही नहीं चलता| दिन व्यतीत हो रहे थे लेकिन सामने वाली सड़क पार की बस्ती में कोई बदलाव नहीं था| शीला दीदी वाला फ़्लैट बहुत पहले तैयार हो चुका था लेकिन उस परिवार के 'सो कॉल्ड' मालिक के भय के कारण कोई उसकी बात ही नहीं कर रहा था | दिव्य बहुत 'हैंडसम' हो गया था और चुपचाप बुआ के इशारे पर छिपकर संस्थान में रियाज़ करने आ जाता था | 

दादी को परलोक गए, फिर भाई को विदेश गए और उसके विवाह को भी कई वर्ष हो चुके थे | दो-एक साल में भाई और एमिली भारत आ जाते | अम्मा-पापा खिल उठते | हाँ, मैं भी--एमिली वास्तव में बहुत अच्छी पत्नी व दोस्त साबित हुई थी | इतनी सुंदर हिन्दी बोलती थी जैसे उसके सुरों में मिठास घुली हो | अम्मा से चर्चा करके उसने भारतीय नृत्य की शिक्षा पूरी मन से ग्रहण करनी शुरू कर दी थी | अम्मा की छात्राओं ने कई देशों और यू.के में अपनी इस कला-संस्थान की शाखा खोली हुई थी | अम्मा का विदेशों में जाना-आना लगा ही रहता,  उनकी अनुपस्थिति में मैं और शीला दीदी संस्थान के आवश्यक निर्णय लेते | देखा जाए तो संस्थान एक तरह से शीला दीदी और रतनी के सहयोग से ही चल रहा था | मैं तो उनके लिए ‘बॉस’सी थी जबकि मैं ऐसा कभी नहीं महसूस कर पाई थी| मुझे लगता कि वह संस्थान जितना हमारा था, उतना ही उनका भी| वे सभी संस्थान के महत्वपूर्ण भाग थे | 

पिछली बार जब भाई और एमिली आए थे तब घर में एक बैठक बैठी थी जिसमें कई वर्ष होने के पश्चात भी उन दोनों के परिवार की प्रगति के बारे में चर्चा उठी थी | तब पता चला था कि उन दोनों ने परिवार न बढ़ाने का फैसला लिया है | उन्होंने निर्णय लिया था कि वे संतान को जन्म नहीं देंगे | अम्मा-पापा उनकी बात पूरी तरह समझे भी नहीं थे कि एमिली ने अपने प्रभावशाली सुंदर अंदाज़ में समझा दिया था कि वे भारत से ही किसी  ‘नीडी’ परिवार की बिटिया गोद लेंगे और उसका पालन-पोषण करेंगे| 

यह सुनकर अम्मा-पापा की आँखों में आँसु उतर आए थे| एमिली के लिए परिवार में उसके लिए प्यार और सम्मान और बढ़ गया था | बिना किसी हिचक के उसने कहा था कि कितने परिवार हैं जो अपने बच्चों को ठीक से पाल नहीं सकते, ठीक से शिक्षा नहीं दे पाते | अगर ‘यूथ’ इस बात को समझ लें तो कितनी सारी समस्याएँ हल हो सकती हैं | 

मैंने देखा क्षण भर के लिए अम्मा-पापा एक दूसरे के चेहरे को ताक रहे थे फिर तुरत ही संभल गए और जैसे रिलेक्स हो गए| उन्हें एकाएक अजीब लगा था लेकिन कुछ अधिक शॉक नहीं लगा था बल्कि अपने बच्चों की सोच पर जैसे गर्व हुआ था उन्हें !

भाई और एमिली कुछ दिन रहकर वापिस लौट गए थे | सब कुछ सहज था, सहज नहीं था तो उस दिन रतनी के चेहरे पर पसरी उदासी जो चुगली कर रही थी कि कुछ और भी बहुत बड़ा हुआ था उसके साथ| पति से मार खाकर बेशर्मी का जीना, उसकी तो आदत पड़ चुकी थी उसे | दादी उसे समझाया करतीं थीं कि अगर जगन इतना सूक्ष्म बुद्धि और ऐसा निकम्मा है कि कुछ समझता ही नहीं या फिर समझने की कोशिश नहीं करता है तो वह खुद उसके पास जाकर उसे प्यार से समझाने की कोशिश करे | ज़रूरी तो नहीं है कि पति ही रोमांस के लिए आगे बढ़े | वह उसकी आदत अच्छी तरह समझ चुकी थी लेकिन हिम्मत तो उसमें बिलकुल भी नहीं थी कि वह जगन को उसकी मर्ज़ी के बिना उसे छू भी सके | 

अब बच्चे बड़े हो चुके थे, रतनी को संस्थान के लिए नृत्य की ड्रेसेज़ बनाने का कॉन्टेक्ट हमेशा के लिए मिल ही चुका था | वह बहुत गंभीरता से अपने काम करती थी और ऐसे ही शीला दीदी भी ! दादी बरसों से नहीं थीं लेकिन उनके समझाए हुए शब्द रतनी के कानों में न जाने कभी भी गूँजते रहते थे| दिव्य तो काफ़ी बड़ा हो गया था,  डॉली उससे कई वर्ष छोटी थी लेकिन वह भी सब कुछ समझती तो थी ही | रतनी और शीला दोनों ही चैन की साँस लेती थीं कि जिस तरह से जगन पत्नी का शरीर रौंदता था, हर साल बच्चों की लाइन लग जानी थी लेकिन रतनी के दो ही बच्चे हुए थे और वो भी काफ़ी अंतराल में ! पिछले वर्षों में रतनी ने कई बार मन बनाया था कि वह प्यार से पति से बात करे लेकिन कैसे?वह तो कभी होश में घर में घुसता ही नहीं था, वह भी रात गए| जिस दिन उसने जगन को जल्दी आते देखा था, उस दिन भी उसके दिमाग में एकदम चकाचौंध हुई थी कि आज शायद जगन कुछ होशोहवाश में था, आज उससे बैठकर कुछ तो बात कर ही लेगी लेकिन उस दिन तो उसका रूप और भी आक्रामक लगा था | कैसे तोड़ डाला  था उसने तानपुरा?

इस बात को अब कई दिन गुज़र गए थे और न जाने वह क्यों आजकल घर में जल्दी आ रहा था ? इतने बरसों में रतनी उसका स्वभाव बिल्कुल भी तो नहीं समझ पाई थी | कैसा इंसान था वह? या इंसान भी नहीं था? कोई संवेदना तो होती है इंसान में ! उसकी संवेदना तो जैसे शराब में डूबकर न जाने कहाँ तैर चुकी थी या फिर उसे पाला मार गया था !

“आज तो पनीर के पकौड़े बना दे, घर पे ही दो-चार पैग लगा लूँगा---”उसने कुछ ऐसे कहा जैसे कोई गुंडा हो फिर भी ऐसी बातें शादी के इतने लंबे बरसों में उसने गिनी-चुनी बार ही कीं थीं| वरना तो वो---

“मैं ---मैं ---” रतनी के मुँह से जगन के सामने कभी पहले आवाज़ निकली हो तो निकलती न !”

“क्या मैं—मैं लगा रखी है, क्या कह रही है, बोल न ---” उसके इतने से शब्दों से जैसे रतनी निहाल सी होने लगी | इतने बरसों में कभी पति-पत्नी की तरह से बात की हो उसने तो वह समझ सकती न उसे ?

“बच्चे ---बड़े हो रहे हैं न ----” उसने अटकते हुए कहा | 

“तो—बड़े नहीं होंगे ?तू कहना क्या चाहती है ?” जगन की आवाज में तल्खी सुनकर वह फिर से चुप्पी लगा गई | 

उसके सामने गरम पकौड़े और शराब का भरा ग्लास था | वह पकौड़ों की चबड़-चबड़ के साथ सुड़क-सुड़ककर शराब गले में धकेले जा रहा था | रतनी को उसकी बेहूदी आवाज के साथ मितली होने को हुई लेकिन उसने अपने आपको संभाला | 

“आजा, आज तुझे भी मज़ा चखाता हूँ| ले दो घूँट मारके तो देख, जन्नत मिल जाएगी –”जगन ने एक गुंडे की तरह आँख मारकर उसका  हाथ पकड़कर घसीटा और शराब का ग्लास उसके मुँह की ओर बढ़ाया | 

“क्या कर रहे हो ---?” रतनी के मुँह से धीरे से निकला और उसने अपने आपको उससे थोड़ा दूर करने की कोशिश की | ऐसे आदमी से बात करना, प्यार से ! बहुत मुश्किल ही नहीं तकलीफ़देह भी था| 

“साली । नखरे करती है ---चार पैसे क्या कमाने लगी आवाज़ भी निकल आई मुँह में !ज़बान लंबी हो रही है क्या ?”जैसे झटके से उसने रतनी को घसीटा था वैसे ही दूर धकेल भी दिया | 

बचे हुए घूँट उसने ऐसे मुँह के अंदर धकेले जैसे कोई नदीदा हो और एक लंबी, बेहूदी डकार लेकर अँगड़ाई लेकर खड़ा हो रतनी के पास जाकर उसका हाथ इतनी जोर से मोड़ा कि उसकी चीख निकलते हुए बीच में ही रह गई | रह क्या गई उसने अपना मुँह भींच लिया | 

“चल, कर समेटा समेटी और आजा जल्दी ---” आखिरी पकौड़ा खाकर उसने एक लंबी, बेहूदी डकार ली और उठकर पत्नी के वक्षस्थल पर एक बेहूदी सी चीकुटी काट ली| रतनी तिलमिला गई, जानती थी कि अब उसके मालिक को एक शरीर चाहिए था खसोटने के लिए | 

रतनी की आँखों से धारदार आँसु बहने लगे थे, अपनी सुबकियों को उसने बड़ी मुश्किल से दबा रखा था | कैसा जीवन था उसका ?शायद एक वैश्या का इससे बेहतर होता होगा ! उसका तो तन-मन छलनी होता था और कुछ भी कहने या पूछने का उसे अधिकार नहीं था| अब इस स्थिति में भला क्या और कैसे वह फ़्लैट में शिफ़्ट होने की बात पूछ सकती थी ?

‘ये ही है उसका भाग्य !’उसने एक लंबी आह भरकर सोचा और रसोईघर समेटकर उस कोठरीनुमा कमरे में घुस गई जिसमें उसे मालूम था कि उसके साथ अब क्या होने वाला था ! न जाती तो जगन शोर मचाकर मुहल्ला इक्कठा कर लेता और पड़ौसियों को मुफ़्त में पिक्चर का लुत्फ़ मिल जाता |