Prem Gali ati Sankari - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

प्रेम गली अति साँकरी - 15

15 –

==========

दिव्य कितना अच्छा गाने लगा था | जगन को पता चल गया था कि वह संस्थान में रियाज़ कर रहा है | आखिर कितनी देर बात छिप सकती है ? लेकिन उसने अब कुछ भी कहना बंद कर दिया था, न जाने क्यों? लेकिन बीच में जैसे वह घर पर जल्दी आने लगा था, अब उसने फिर से पहले की तरह बाहर रहना शुरू कर दिया था| 

“एक दिन मैंने इनसे कहा कि कभी तो बैठकर बात करो, बच्चे बड़े हो रहे हैं | उनके बारे में कुछ सोचना होगा तो इन्होंने मुझे धक्का दे दिया | मैं बरामदे में जमीन पर दरी बिछाकर लेट गई | ज़रा सी आँख लगी ही थीं कि इन्होंने मुझे घसीटकर कमरे में लेजाकर पलंग पर पटक दिया और शरीर रौंद डाला ---” रतनी ज़ोर ज़ोर से सिसककर रो रही थी और मेरे अंदर का खून जैसे उबल आया था और चेहरे का खून जैसे किसी ने निचोड़ लिया था| 

अम्मा अपने एक ग्रुप को लेकर नागालैंड गईं और इतना सम्मान लेकर आईं कि जैसे भूल ही गईं अपनी  उम्र और थकान के बारे में जिसके बारे में वे जाने से पहले चिंतित थीं| प्यार व सम्मान थके हुए मनुष्य को भी ज़िंदगी देता है| यही तो जिजीविषा है जो किसी भी उम्र में मनुष्य को उल्लसित रखती है| 

जब अम्मा लौटकर आईं उसके बाद उनके सामने नेपाल में होने वाले उत्सव का निमंत्रण था जिससे अम्मा वाकिफ़ तो थीं, सोच रही थीं कि मना ही कर देंगीं लेकिन उनकी झोली में इतना सारा प्यार व सम्मान था कि वे उस नए ट्रिप को भी मना नहीं कर सकीं | वास्तव में ये सम्मान और भी बेहतर करने की ओर निर्देशित करता है| उन्होंने नेपाल के लिए भी ‘हाँ’कर दी थी और उस ट्रिप के लिए अब दूसरे कलाकारों के साथ तैयारियाँ करवानी शुरू कर दी थीं| छह माह बाद उनको यू.के भी जाना था, उनके छात्रों ने वहाँ बड़ा वार्षिक कार्यक्रम करने का विचार बनाया था जिसकी तैयारियाँ यहाँ, वहाँ दोनों स्थानों पर चल रही थीं | इस बार यू.के जाने का मतलब भाई के पास भी कुछ दिन रहना था जिसके लिए वह और एमिली न जाने कबसे पीछे पड़े थे | एक और शर्त थी कि अम्मा-पापा दोनों को उनके पास रहना था, मुझे भी---–लेकिन यह संभव नहीं था | अम्मा के संस्थान के साथ पापा के इतने बड़े व्यापार के बारे में भी मुझे ही चैतन्य रहना था | यानि जिसे इन किन्ही भी चीजों में रुचि नहीं थी, उसे रुचि लेनी जरूरी हो गई थी| हम इतने लंबे-चौड़े कामों में फँस जाते हैं और उनमें से निकलते नहीं बल्कि और फँसते जाते हैं जबकि समय व आयु के साथ जरूरतें कम होती रहती हैं लेकिन ----

मुझे अम्मा पर गर्व था, पापा पर भी लेकिन कई बार महसूस होता कि यह बोझ हमारा अपना ओढ़ा हुआ होता है जो हमसे छूटता ही नहीं| ऐसा बोझ जो लदता ही चल जाता है | हम उससे छूट ही नहीं पाते यानि अपने इस प्यार और सम्मान के दुशाले से लिपटकर हम अपने भीतरी आनंद को भी भूल जाते हैं| अम्मा-पापा के दिन उन्हें याद आते थे या नहीं, मैंने कभी पूछा नहीं लेकिन मुझे बहुत याद आते थे | जैसे झलकियाँ सी आँखों के सामने से चित्रित होती हुई गुजरने लगतीं | भाई तो दूर जाकर बैठ गया था, मेरे पास कोई साथी नहीं था और शायद मन उसे तलाशता था | कहते हैं न कि ये सब कुछ इतना आसान नहीं होता है | पहले दोस्ती और बाद में प्यार और उसके बाद कहीं संबंध !मैं जानती थी, मेरे कई मित्र मुझमें रुचि लेते थे | दो/तीन  ने तो प्रस्ताव भी रखा था | ऐसा नहीं कि मुझे वे अच्छे नहीं लगते थे या उनमें कोई कमी थी लेकिन अपने दिल का क्या करती जो किसी के लिए उस सुर में धड़कता ही नहीं था जिसकी ज़रूरत थी| ये कोई खेल नहीं होता, ये रूह की ज़रूरत बन जाता है, शरीर तक सीमित नहीं होता| जहाँ शरीर तक सीमित होता है वहाँ ---रतनी और उस जैसे न जाने कितने प्रमाण हमारे समाज में भरे पड़े हैं लेकिन मुझे ऐसे अपनी जरूरतें करने में कोई रुचि नहीं थी | अम्मा अच्छी तरह मुझे समझती थीं इसलिए उन्होंने और पापा ने मुझे कभी कुछ खास नहीं कहा | हाँ, कम्पेनियन के बारे में गोल-गोल बातें घुमाकर पूछते रहते | 

“बहुत हो गया शीला। इतने सालों से फ़्लैट खाली पड़ा है | उसका पूरा पैसा भी भरा जा चुका था | अब कैसे भी उस मुहल्ले से निकलकर यहाँ शिफ़्ट हो जाओ ---” अम्मा ने शीला दीदी से कहा | सच ही तो था, बेकार ही बंद पड़ा था | नहीं शिफ़्ट होना था तो किसी को किराए पर ही दे देते | कई लोगों ने उसके बारे में पूछताछ भी की थी | 

“देखती हूँ मैडम ---” शीला दीदी ने अम्मा से कहा | 

शीला दीदी और रतनी अम्मा को मैडम और पापा को सर ही बोलते थे | न जाने कितनी बार उन्हें मना किया था लेकिन उनके मुँह पर कुछ और आया ही नहीं| हाँ, दादी को ज़रूर दादी कहते थे सभी | अब वे तो थीं नहीं | 

जिस दिन कई सालों बाद अम्मा ने यह बात शीला दीदी और रतनी के सामने रखी थी, उस दिन भी कोई उस फ़्लैट के बारे में पूछने आया था | उसका सारा लेख-जोखा अब गार्ड के पास था| बेचारा महीने में दो दिन उसकी सफ़ाई भी करवा आता था और जवाबदेही होती उसका जवाब भी देता | बेकार ही टैक्स और मेंटेनेंस जा रहे थे | वो बात अलग थी कि किसीको कुछ पता नहीं चलता था और चीज़ें अपने आप ही सॉर्ट आउट हो जाती थीं | 

हाँ, तो जिस दिन अम्मा ने उन दोनों से कहा कि जैसे भी हो उस फ़्लैट में शिफ़्ट कर लें | दोनों भाभी, ननद ने सोचा कि अब जगन से बात करनी ही पड़ेगी और अपने को मजबूत दिखाते हुए वायदा करके गईं कि अब उन्हें यह कदम लेना ही होगा| अम्मा के बाहर जाने के लिए जो तैयारियाँ की जा रही थीं, वे ज़ोरों पर थीं| कि अगले दिन सुबह गाज गिर गई |