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कैक्टस के जंगल - भाग 12

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नियति का खेल

मैं परिवार सहित हरिद्वार गंगा स्नान करने आया था। हरि की पैड़ी पर गंगा स्नान करने के बाद हम लोग होटल की ओर लौट रहे थे। मेरी पत्नी वहाँ बैठे भिखारियों को फल बांटने लगी। मैं भी उनके साथ था। अचानक मेरी नजर एक भिखारी पर पड़ी। उन्नत ललाट बड़ी-बड़ी आँखें चैड़े कन्धे, उन्नत ग्रीवा, लम्बी कद काठी, सफेद बाल और बढ़ी हुई सफेद दाढ़ी। उसने सादा मगर साफ कपड़े पहने हुए थे। मुझे उसका चेहरा कुछ जाना-पहचाना सा लगा। उससे मेरी पत्नी से फल लिये निश्चिन्त भाव से बैठा उन्हें खा रहा था।

मैं ठिठक गया। मैंने बड़े ध्यान से उस भिखारी के चेहरे को देखा मैंने कुछ याद करने की कोशिश की। मेरे मनो-मस्तिष्क में एक चेहरा उभरा चौधरी शमशेर सिंह का मगर यह कैसे हो सकता था। कहां चौधरी शमशेर सिंह और कहाँ ये भिखारी। मगर भिखारी की सूरत हू-ब-हू चौधरी शमशेर सिंह से मिलती थी। मेरा शक बढ़ता जा रहा था। मैं जैसा सोच रहा था मेरी बेचैनी उतनी ही बढ़ती जा रही थी। मुझे परेशान देखकर पत्नी ने पूंछा क्या बात है ? “मैंने कहा कोई बात नहीं।“

पत्नी और बच्चों के साथ मैं होटल पहुंचा जहां हम लोग ठहरे हुए थे। सबके साथ मैंने नाश्ता किया फिर पत्नी से यह कहकर कि मैं अभी थोड़ी देर में आया, वापस हरि की पौड़ी पर आ गया था। मैंने सेब औरे केले खरीदे और उस भिखारी के पास पहुंचा। यकायक मुझे अपने सामने पाकर उसके चेहरे का रंग उड़ गया। दूसरे ही क्षण उसने अपने को संयत करने का प्रयास किया मगर मेरे मन का शक और गहरा हो गया था। मैं उसके बिल्कुल पास गया और उसकी आँखों में देखते हुए मैंने उससे सवाल किया, “क्या तुम चैधरी शमशेर सिंह हो ?“ अचानक किए गए इस सवाल से वह सकते में आ गया था। उसके चेहरे पर एक रंग आ रहा था तो दूसरा जा रहा था। काफी देर तक वह ऊहापोह की स्थिति में खड़ा रहा। फिर उसने अपने चेहरे के भावों को संयत किया और सपाट स्वर में बोला, हाँ मैं चैधरी शमशेर सिंह हूँ।

“क्या ?“ मेरा मुंह हैरत से खुले का खुला रह गया था। मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। कहां चौधरी शमशेर सिंह और कहां यह दीनहीन भिखारी दोनों में दूर-दूर तक कहीं कोई समानता नहीं थी।

आज से लगभग बीस साल पहले मेरी तैनाती उत्तर प्रदेश के एक जनपद में थी। सूबे के कद्दावर नेता और कृषि मन्त्री चौधरी शमशेर सिंह उसी जनपद में रहने वाले थे। उनका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावी था। लम्बी चौड़ी कद काठी, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें और रौबदार चेहरा। उनका स्वभाव बड़ा मिलनसार था। सबके सुःख-दुःख में शामिल रहना उनकी आदत मैं शुमार था।

वे खानदानी आदमी थे और उनकी लम्बी-चैड़ी खेती थी। कई बीघे में बनी उनकी विशाल हवेलीनुमा कोठी थी। आस-पास के इलाके में उनकी तूती बोलती थी। छोटे-मोटे अफसरों की तो गिनती ही क्या, डी.एम. और एस.पी. तक उनके आगे-पीछे घूमते थे। मगर शमशेर सिंह की यह खासियत थी कि वह सभी को पूरा मान-सम्मान देते थे।

मेरा भी उनकी कोठी में अक्सर आना-जाना लगा रहता था और मैं उनके व्यक्तित्व से बड़ा प्रभावित था। आस-पास के क्षेत्र में उनकी छवि एक संभ्रान्त और धाकड़ नेता की थी। एक साल बाद मैं प्रति नियुक्ति पर केन्द्र सरकार में चला गया था और बीस साल बाद अचानक चैधरी शमशेर सिंह को इस रूप में देखकर मेरे मन में तरह-तरह के सवाल उठ रहे थे।

चौधरी साहब आप और इस रूप में मैंने सवालिया निगाहों से उनकी ओर देखा था। सब समय का फेर है मेरे भाई। शमशेर सिंह बुदबुदाए थे। काफी देर तक वह किन्हीं ख्यालों में खोए रहे थे।

यह सब हुआ कैसे ? मैंने उन्हें कुरेदा था।

अब तक शायद वह अपने आपको मानसिक रूप से तैयार कर चुके थे। लम्बी कहानी है चलो कहीं एकान्त में बैठकर सुनाते हैं। हम लोग एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गए थे।

चौधरी शमशेर सिंह बोले आप तो जानते ही हैं कि मेरे पास भगवान का दिया सबकुछ था। मान-सम्मान, धन-दौलत, जमीन-जायदाद, नौकर-चाकर किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। सुन्दर सुशील पत्नी और दो आज्ञाकारी बेटे। एक आई.ए.एस. की टेªनिंग कर रहा था और दूसरा आई.पी.एस. की। मुझसे खुशनसीब भला और कौन हो सकता था। परन्तु नियति को शायद कुछ और ही मन्जूर था।

मेरे दोनों बेटे छुट्टी में गाँव आए हुए थे। मेरी और मेरी पत्नी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। कोठी में हर समय हंसी के ठहाके गूंजते रहते। दोनों भाइयों में इतना गहरा प्रेम था कि दोनों एक ही थाली में खाते एक ही खाट पर सोते, जहाँ जाते साथ-साथ ही जाते। दोनों की उम्र में केवल दो साल का अन्तर था। इसलिए हर बात पर दोनों आपस में बच्चों की तरह झगड़ते रहते।

एक दिन दोपहर में खाना खाने के बाद दोनों अपने कमरे में बेड पर लेटे हुए थे। मैंने कुछ दिन पहले एक नई राइफल मंगबाई थी, दोनों उसको देख रहे थे। राइफल को लेकर दोनों में आपस में बहस चल रही थी। राइफल छोटे बेटे के हाथ में थी और वह बड़े भाई को राइफल के बारे में बता रहा था। बड़ा शायद उसकी बात से सहमत नहीं था। बड़े वाले ने उससे राइफल छीननी चाही। छोटे वाले ने राइफल अपनी ओर खींची। इसी छीना झपटी में पता नहीं कैसे राइफल का ट्रैगर दब गया और राइफल की गोली छोटे वाले के सीने में जा लगी।

गोली की आवाज सुनकर हम सब लोग कमरे की ओर दौड़े। छोटा वाला बेटा बैड पर पड़ा हुआ था और उसके सीने से फब्बारे की तरह खून बह रहा था। मैंने हिम्मत करके एक कपड़े से घाव को कसकर बांध दिया जहाँ से खून बह रहा था। उसे कार में लिटाकर मैं और मेरी पत्नी महानगर की ओर चल दिए। हड़बड़ी में बड़े बेटे को साथ ले जाने का ध्यान ही नहीं रहा।

महानगर के एक बड़े अस्पताल में मैंने उसे एडमिट कराया। डाक्टरों की पूरी फौज उसके इलाज में लग गई। डाक्टरों ने उसे बचाने की हर सम्भव कोशिश की मगर कोई फायदा नहीं हुआ। चार घन्टे बाद मेरे बेटे ने दम तोड़ दिया।

किसी के द्वारा यह खबर गाँव तक पहुँच गई। बड़े वाले ने जब यह खबर सुनी तो वह सन्न रह गया। अन्दर ही अन्दर उसे यह बात खाए जा रही थी कि उसके हाथों ही उसके छोटे भाई की जान चली गई। अपराधबोध के कारण वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाया और उसने उसी राइफल से खुद को गोली मार ली।

जब मैं अपने छोटे बेटे की लाश लेकर घर पहुँचा तो बड़े बेटे की लाश पहले से ही बैड पर पड़ी हुई थी। कोठी में कुहराम मच गया। अपने दोनों बेटों की लाश पड़ी देखकर मेरी पत्नी गश खाकर गिर पड़ी। वह ऐसी गिरी कि फिर दुवारा उठा नहीं सकी। उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनके प्राण पखेरू उड़ गये थे।

कुछ ही घंटों में मेरी पूरी दुनिया उजड़ गई थी और मैं सरकार का इतना ताकतवर मन्त्री कुछ नहीं कर पाया था। मेरी धन-दौलत, ताकत, पहुँच, शोहरत, रूतवा सब खोखले

साबित हुए थे। आज जिन्दगी में पहली बार मुझे अहसास हुआ कि हम सब भाग्य के हाथ की कठपुतली हैं।

शाम को मेरी कोठी से एक साथ तीन-तीन अर्थियां निकलीं। लोगों का हुजूम जमा था। जिसने यह खबर सुनी दौड़ा चला आया। अंत्येष्टि में कौन-कौन आया और कितने लोग पहुंचे मुझे कोई होश नहीं था।

कोठी में मेरे सारे रिश्तेदार सगे सम्बन्धी, शुभचिन्तक आए हुए थे। मगर मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा था। तेरहवीं आदि संस्कार के बाद एक दिन मैं घर से निकल गया। चौदह वर्ष तक मैं इधर-उधर तीर्थों में भटकता रहा मगर कहीं मुझे शान्ति नहीं मिली। फिर एक दिन मैं वापस गाँव लौट आया। मेरी कोठी पर मेरे भतीजे ने कब्जा कर लिया था। मेरे इतने वर्षों तक बाहर रहने के कारण वे लोग राजनीति में भी सक्रिय हो गए थे। चैदह साल का अन्तराल बहुत होता है गाँव की नई पीढ़ी मुझे ठीक से पहचानती भी नहीं थी। जिस कोठी में कभी मुझसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था वहां अब मैं एक कमरे में अलग थलग पड़ा रहता। कुछ दिनों में मेरा अब वहां से दिल उखड़ गया और एक दिन मैं अपनी बाकी जमा पूंजी लेकर हरिद्वार चला आया।

यहां आकर मैं एक धर्मशाला मंे रहने लगा। सुबह-शाम गंगा स्नान करता और दिन में किसी आश्रम में प्रवचन सुनता। खाना एक शाकाहारी होटल में खा लेता, लम्बे समय तक यही क्रम चलता रहा। मगर जमा धन कब तक चलता, चार-पाँच साल बाद एक नई समस्या खड़ी हो गई। मेरे सारे रुपये खत्म हो चुके थे। अब न धर्मशाला के किराए के लिए रुपये थे और न ही होटल पर खाना खाने के लिए। कई दिन मैंने इधर-उधर आश्रम में खाना खाकर दिन काटे परन्तु ऐसा कितने चलता।

भूख आदमी को क्या से क्या बना देती है। भूख से मजबूर एक दिन में यहीं भिखारियों की कतार में बैठ गया और यह सिलसिला एक-डेढ़ साल से चल रहा है, जो दे देता है खा लेता हूँ किसी से कुछ माँगता नहीं। किसी तरह पेट भर जाता है। शमशेर सिंह ने गहरी श्वांस लेते हुए कहा था।

उनकी दर्द भरी कहानी सुनकर मैं सन्न खड़ा था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उन्हें कैसे ढांढस बधाऊं। तभी वह बुदबुदाए, “सब मेरे कर्मों का फल है।“

मैंने हैरानी से उनकी ओर देखा और मन ही मन सोचा कि क्या अभी इसमें और कोई रहस्य बाकी है ? मैंने उनसे कहा-“जहां तक मेरी जानकारी है आप तो हर समय दूसरों की मदद में लगे रहते थे अपने विरोधियों तक क्या आपने कभी बुरा नहीं चाहा। फिर आप यह क्या कह रहे हैं मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है।“

शमशेर सिंह शान्त खड़े थे। उनके चेहरे का रंग पल-पल बदल रहा था। मेरा आश्चर्य बढ़ता ही जा रहा था।

तभी शमशेर सिंह बोले-“यह उनदिनों की बात है जब मैं पहली बार विधायक बना था। सत्ताधारी पार्टी का विधायक होने के कारणमैं सातवें आसमान में उड़ रहा था। मैंने अपनी कोठी बनवानी शुरू की। कोठी का जो नक्शा इंजीनियर ने बनाया था उसके हिसाब से कोठी के लिए दो एकड़ जमीन की जरूरत थी। मेरी डेढ़ एकड़ जमीन थी। उसके दूसरी ओर की दो बीघे जमीन भी मुझे मिल गई। मगर इन दोनों के बीच में एक विधवा की झोपड़ी थी। उसके कोई सन्तान नहीं थी और वह झोपड़ी में अकेली रहती थी। मैंने उस विधवा को काफी समझाया, अनुनय-विनय की कि वह आपकी झोपड़ी की जगह कोठी के लिए दे दे उसके ऐवज में वह जहा कहेगी उसे दो कमरे बनाकर दे दिये जायेंगे, मगर वह इसके लिए भी राजी नहीं हुई। उसका कहना था कि इस झोपड़ी से उसके पति की यादें जुड़ी हुई हैं। और अपने जीते जी झोपड़ी किसी को नहीं देगी।

कोठी का काम शुरू हो चुका था और उसकी झोपड़ी हटाये बिना कोठी पूरी नहीं हो सकती थी इसलिए अब जबरन झोपड़ी खाली कराने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था। बरसात की घनी अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ दिखाई नहीं दे रहा था। गाँव के सब लोग सोये हुए थे। अपने आठ-दस आदमियों को साथ लेकर मैं उसकी झोपड़ी पर पहुंच गया। मैंने उसे एक बार फिर झोपड़ी खाली कराने के लिए मनाना चाहा मगर वह अपनी जिद पर अड़ी रही। अंत में मैंने अपने आदमियों से उसकी झोपड़ी खाली कराने को कहा। उन्होंने घसीट कर विधवा को झोपड़ी से बाहर निकाल दिया और झोपड़ी में से सामान उठा-उठा कर ट्रक में लादने लगे। ट्रक का इंतजाम मैंने पहले से ही कर रखा था। इस दौरान वह लगातार मुझे कोस रही थी। वह चिल्ला रही थी-“भगवान से डर शमशेर सिंह। एक विधवा को घर से बेघर कर तू अच्छा नहीं कर रहा है शमशेर सिंह। ऊपर वाले की लाठी बेआवाज़ होती है। एक दिन तेरा सर्वनाश हो जाएगा। कोई तुझे पानी देने वाला भी नहीं बचेगा।“ सत्ता और धन के मद में मैंने उसकी बातों को अनसुना कर दिया था। मैंने उसका सामान ट्रक में लदवाकर उसे भी जबर्दस्ती ट्रक में बैठा दिया और अपने आदमियों से उसे हरिद्वार हरि की पैड़ी पर छोड़ आने को कहा। जाते समय मैंने उसे पचास हजार रुपये देने चाहे थे मगर उसने घृणा पूर्वक उन्हें फेक दिया था।

नियति का खेल तो देखो आज वह विधवा और मैं एक ही कतार में बैठकर भीख मांगते हैं। वह जब भी मेरे सामने पड़ती है मेरी ओर देखकर व्यंग्य से मुस्कराती जरूर है और उसकी मुस्कुराहट मेरा कलेजा चीर कर रख देती है।

यह कहकर शमशेर सिंह चुप हो गया था। उनकी यह हालत देखकर मन पीड़ा से भर उठा था चलते समय मैंने उन्हें कुछ रुपये देने चाहे थे जिन्हें लेने से उन्होंने साफ इन्कार दिया। थके कदमों और बोझिल मन से मैं वापस होटल की ओर चल दिया था।

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