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कैक्टस के जंगल - भाग 16

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झंझाबात

शाम का समय था। पार्क में चारों ओर सन्नाटा फैला हुआ था। यह पार्क शहर के बाहर एक सुनसान जगह पर था, इसलिए यहाँ इक्का-दुक्का लोग ही घूमने आते थे। बाबा सुखदेव सिंह पार्क में बनी एक बेंच पर बैठे विचारों में खोए हुए थे।

बाबाजी को काबुल में रहते हुए लगभग एक महीना बीत चुका था। श्रद्धालुओं की सेवा भक्ति में कोई कमी नहीं आयी थी। रोज़ बाबाजी को नये-नये उपहार मिलते, चढ़ावा चढ़ता, परन्तु बाबाजी जिस काम के लिए आए थे, उसके पूरे होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। इसलिए उनका मन हर समय उद्विग्न सा रहता। मन ज्यादा चिंतित होता, तो चित्त को शांत करने के लिए वे इसी पार्क मंे आकर बैठ जाते थे।

बाबाजी का पूरा नाम सुखदेव सिंह सोढ़ी था। वे पंजाब में जेहलम जिले के हिरणपुर सोढ़िया कस्बे के रहने वाले थे। सोढ़ी लोग उस समय गुरु परंपरा के लोग माने जाते थे। सिक्ख पंथ में बाबाजी की अच्छी प्रतिष्ठा थी। उनके शिष्य दूर-दूर तक फैले हुए थे, जो समय-समय पर बाबाजी को भेंट-उपहार एवं दान-दक्षिणा देते रहते थे। पश्चिमी पंजाब के सिक्खों पर बाबाजी का अच्छा प्रभाव था।

हिरणपुर के पास ही एक कस्बा है मलिकबाल। यह उस समय, टिवाणे मलिकों की रियासत थी। टिवाणों और बाबा सुखदेव सिंह में हर समय एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ चलती रहती थी।

यह उस समय की बात है जब अंग्रेज प्रथम विश्व युद्ध से जूझ रहे थे। उस समय भारत अंग्रेजों का गुलाम था। इसलिए अंग्रेज सरकार भारत से सिपाही भर्ती करके उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज देती थी। प्रारंभिक दिनों में तो भर्ती तेज़ी से होती रही पर बाद में युद्ध के कई मोर्चों पर अंग्रेजों की हार होने के कारण भर्ती की गति मंद पड़ गयी थी। भर्ती की गति को तेज़ करने के लिए अंग्रेजी अफसरों ने अपने देशी राजभक्तों से मदद माँगी। बाबा सुखदेव सिंह ने इसे अंग्रेजों की कृपा प्राप्त करने का सुनहरा अवसर समझा। वे पूरी शक्ति से भर्ती के काम में जुट गए। टिवाणे पहले से ही अंग्रेजों के कृपापात्र थे और भर्ती के काम में जुट हुए थे।

बाबा सुखदेव सिंह ने भर्ती के काम में दिन-रात एक करके बड़ी सफलता हासिल की थी। उन्हें अंग्रेजों की ओर से बहुत बड़ी जायदाद मिलने वाली थी। बाबा सुखदेव बड़े खुश थे। उन्हें विश्वास हो गया था कि अब वे टिवाणों को नीचा दिखाने में अवश्य कामयाब हो जायेंगे। परन्तु तभी एक ऐसी घटना घट गयी जिसने बाबाजी की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया।

बाबाजी का लड़का सुदर्शन, जो लाहौर में रहकर पढ़ रहा था, वह क्रान्तिकारी दल में शामिल हो गया। उसके कारनामों की जानकारी अंग्रेज सरकार तक पहुँच गयी।

लाहौर के डिप्टी कलेक्टर ने बाबाजी को संदेश भेजा कि तुरन्त लाहौर आकर मिलें। बाबाजी ने समझा कि डी.सी. साहब ने जायदाद एवं इनाम देने के लिए बुलाया है। इसलिए बाबाजी सजधज कर खुशी-खुशी लाहौर जा पहुँचे। मगर वहाँ जाकर उन्हें दूसरा ही नज़ारा देखने को मिला। बाबाजी को देखते ही अंग्रेज डी.सी. उन पर चढ़ दौड़ा। वह कठोर स्वर में बोला-“तुम्हारा लड़का गदरियों का साथ दे रहा है। अब उसे तो सज़ा मिलेगी ही, तुम्हें भी जेल जाना पड़ेगा।“

बाबाजी के काटो तो खून नहीं। उनको अपने जीवन में पहली बार किसी से ऐसे कटु शब्द सुनने को मिले थे। अपने इकलौते बेटे सुदर्शन से उन्होंने बड़ी-बड़ी आशाएँ लगा रखी थीं। सुदर्शन ऐसा निकलेगा इसकी उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी। उनके हाथों के तोते तड़ गए थे।

बाबाजी डी.सी. के सामने काफी रोये-गिड़गिड़ाये तब डी.सी. ने बाबाजी के सामने एक प्रस्ताव रखा। उसने कहा कि क्रान्तिकारियों का सरगना मथुरासिंह इस समय काबुल में छिपा हुआ है। हमारी सरकार बहुत समय से उसे पकड़ने की कोशिश कर रही है, मगर वह पकड़ा नहीं जा रहा। तुम्हारे काबुल में काफी शिष्य हैं, दूसरे मथुरासिंह तुम्हारी ससुराल ढुंढियाल का रहने वाला है। इसलिए तुम काबुल जाकर मथुरासिंह को पकड़वा सकते हो। यदि तुम मथुरासिंह को पकड़ाने में कामयाब हो गये तो तुम्हारे बेटे को माफ कर दिया जाएगा, साथ ही तम्हें इनाम भी दिया जाएगा।

बाबाजी पशोपेश में पड़ गये। अपना घर-गाँव छोड़कर इतनी दूर जाने का उनका मन नहीं कर रहा था, मगर पुत्रमोह, इनाम पाने की अभिलाषा और टिवाणे को नीचा दिखाने की उत्कट इच्छा के कारण बाबाजी काबुल जाने को तैयार हो गये थे।

वह जब से काबुल आये थे तभी से गुपचुप तरीके से मथुरासिंह की तलाश में लगे हुए थे। मगर उन्हें मथुरासिंह का कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था। देर होने पर अंग्रेज सरकार सुदर्शन के साथ पता नहीं क्या सलूक करेगी, यही चिन्ता उन्हें दिन-रात खाये जा रही थी।

बाबाजी इन्हीं विचारों में खोये हुए थे कि पीछे से किसी ने आकर उनके पाँव छू लिए। बाबाजी ने मुड़कर देखा-कोई मुसलमान जैसा दिखने वाला व्यक्ति बड़ी श्रद्धा से उनके पैर छू रहा था।

एक मुसलमान को ऐसा करते देख बाबाजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। आशीर्वाद देने के पश्चात उन्होंने आदर के साथ उसे अपने पास बैठाते हुए पूछा-“कहिए शेख साहब, कहाँ से पधार रहे हैं ?“

“शेख नहीं मैं तो एक साधारण सा सिक्ख हूँ। मैं आपकी ससुराल ढुंढियाल का रहने वाला हूँ। आपका नाम तो काफी पहले से सुना रखा था, लेकिन दर्शन करने का सौभाग्य आज ही प्राप्त हुआ।“ आगन्तुक ने बड़ी श्रद्धा से कहा।

आगन्तुक का नाम सुनकर बाबाजी उछल पड़े। अपने मन के भावों को चेहरे पर नहीं आने दिया।

वे बोले-“तो आप क्रान्तिकारियों के सरगना मथुरासिंह हैं! आपकी बड़ी तारीफ सुन चुका हूँ। बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर।“

बातचीत का सिलसिला चल निकला। बाबाजी वाक्पटु तो थे ही, उन्होंने बातचीत द्वारा मथुरासिंह पर यह सिद्ध कर दिया कि वे क्रान्तिकारियों के सच्चे हमदर्द और भारत माँ की आज़ादी के दीवाने हैं। बाबाजी यह भी बताना नहीं भूले कि उन्होंने अपने लड़के को भी स्वेच्छा से क्रान्तिकारी दल में शामिल होने की आज्ञा दे दी है।

यह जानकर मथुरासिंह के मन में बाबाजी के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गयी। वह बोला-“बाबाजी, आपसे एक काम है, मगर कहते हुए बड़ा संकोच लग रहा है। अगर आज्ञा हो तो कहूँ ?“

“कैसी बातें कर रहे हो मथुरासिंह ? यह भी कोई पूछने की बात है ? तुम लोग सिर पर कफन बाँधे देश की आज़ादी के लिए घूम रहे हो और मैं तुम्हारा छोटा-मोटा काम भी न कर सकूँ तो धिक्कार है मेरे जीवन को।“ बाबाजी मथुरासिंह पर अपना प्रभाव जमाते हुए बोले।

मथुरासिंह बाबाजी के वाक्जाल मैं आ गया। उसे बाबाजी पर पूरा विश्वास हो गया। वह बोला-“पंजाब छोड़ने से पहले मैं वहाँ बमों का भंडार छोड़ आया था। उनका पता-ठिकाना मेरे अलावा किसी और को मालूम नहीं है। मैं उसका पता-ठिकाना आपको दे दूँगा। आप पत्र लाहौर पहुँचा देें। इस समय लाहौर के क्रान्तिकारियों को सदामा और उसके क्रान्तिकारी साथियों को जेल से छुड़ाने के लिए बमों की सख्त ज़रूरत है। इसलिए यह काम जितनी जल्दी हो जाये, उतना ही ठीक है।“

“लो यह भी कोई काम है। मैं पहले कागज़ पहुँचाऊँगा, उसके बाद घर में घुसूँगा। रही बात जल्दी की तो मैं परसों ही यहाँ से प्रस्थान कर जाऊँगा।“

“तो ठीक है मैं कल इसी समय कागज़ लेकर यहीं उपस्थित हो जाऊँगा।“ मथुरा सिंह बाबा जी के पैर छूकर चला गया।

इस समय बाबाजी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उनकी इच्छा हो रही थी कि पार्क की हरी-हरी घास पर खूब कुलांचे लगायें। मथुरासिंह इस आसानी से उनकी गिरफ्त में आ जायेगा, इसकी उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी। वे सोच रहे थे कि एक क्रान्तिकारी को कल पकड़वा दूँगा, दूसरे कई खतरनाक क्रान्तिकारियों के पते ठिकाने मेरे पास होंगे। अब मुझे उस दो कौड़ी के डी.सी. के पास जाने की क्या ज़रूरत है, अब तो मैं सीधा हिज़ हाईनेस के पास जाऊँगा।

बाबाजी ने डेरे पर जाकर घोषणा कर दी कि वह परसों यहाँ से कूच कर जायेंगे। शिष्य लोग उनके प्रस्थान की तैयारी में जुट गये।

रात के अंधेरे में वेश बदलकर वह पुलिस थाने जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने मथुरा सिंह के बारे में सारी बातें अफसरों को बतायीं। किसी को इस बात की भनक न लगे इसलिए वह अंधेरे में ही गुपचुप तरीके से लौट आए। उस रात बाबाजी को खूब गहरी नींद आयी।

दूसरे दिन नियत समय पर बाबाजी पार्क जा पहुँचे। वे बैंच पर बैठकर मथुरासिंह का इंतजार करने लगे। प्लान के मुताबिक पुलिस के जवान सादा वेश में पार्क के चारों ओर झाड़ियों में छिपे हुए थे।

बाबाजी भविष्य के ताने-बाने बुनने लगे। वे मन ही मन अंग्रेजों से मिलने वाली जायदाद और ईनाम की कल्पना करने लगे। वे सोच रहे थे कि इस बार टिवाणे को भी पता चल जाएगा कि बाबा सुखदेव सिंह क्या चीज है!

तभी उनकी अंतरात्मा ने उन्हें धिक्कारा-‘यह तुम क्या करने जा रहे हो सुखदेव सिंह ? तुम इनाम के लालच में उस आदमी को पकड़वाने जा रहे हो जो भारत माँ की आज़ादी की खातिर सिर पर कफन बाँधे घूम रहा है ? यह तो देश के साथ गद्दारी होगी। पूरी कौम के साथ विश्वासघात होगा।’

‘यह कैसी बातें सोच रहा है मूर्ख ? मथुरासिंह को पकड़वाकर इनाम और जायदाद हासिल कर। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते हैं।’ उनके मन ने तर्क दिया।

बाबाजी के मन और आत्मा में अन्तर्द्वन्द्व होने लगा। आत्मा ने कहा-देश से गद्दारी करते तू खुश नहीं रह पाएगा। सुखदेव सिंह, तू देशद्रोही कहलाएगा। लोग तेरे नाम पर थूकेंगे।

विचारों का झंझावात थम नहीं रहा था। तरह-तरह की कल्पनायें दुष्कल्पनाएँ उनके मन में आ रही थीं। कल्पना में कभी वह अपने को अंग्रेज सरकार द्वारा दिए गए विशाल भवन में पाते तो दूसरे ही क्षण उन्हें ऐसा लगता जैसे वह भीड़ में घिरे खड़े हैं और भीड़ चारों ओर से चिल्ला रही है-यह देशद्रोही है, इसे मारो-मारो। ‘नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूँगा।’ वे मन ही मन बुदबुदाये। वे शायद किसी निश्चय पर पहुँच चुके थे।

तभी उन्हें मथुरा सिंह आता दिखाई दिया। बाबाजी झटके के साथ उठ खड़े हुए और चिल्लाए-“मथुरासिंह भागो पार्क में पुलिस है।“

मथुरासिंह भाग खड़ा हुआ। सिपाही उसे पकड़ने दौड़े। बाबाजी मथुरासिंह को बचाने के लिए लपके। मथुरासिंह को भागता देख अंग्रेजी दरोगा ने मथुरासिंह पर लक्ष्य करके गोली चलानी चाही। इससे पहले कि गोली मथुरासिंह के लगती बाबाजी दौड़कर बीच में आ गये। गोली बाबाजी की कोख में लगी।

गोली अपना काम कर गयी थी। बाबा जी ज़मीन पर पड़े अन्तिम साँसें गिन रहे थे, मगर उन्हें इस बात की खुशी थी कि वह मथुरासिंह को बचाने में कामयाब हो गये थे। पास में खड़े गुलाब के पौधे से दो फूल छिटक कर बाबाजी के शव पर जा गिरे थे। ऐसा लग रहा था मानो प्रकृति भी इस अमर शहादत का सम्मान कर रही हो।

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