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कैक्टस के जंगल - भाग 18

18

क्या करूं देशभक्ति का ?

दफ्तर में पेन्शन बाबू की खिड़की के सामने लम्बी लाइन लगी हुई थी। आज छः तारीख थी। प्रतिमाह छः तारीख को पेन्शन भोगियों को पेन्शन मिलती थी, इसलिए लोग नौ बजे से ही जमा थे। मास्टर किशोरी लाल ने एक नजर खिड़की के सामने लगी लम्बी लाइन पर डाली। वे मन ही मन कुछ बुदबुदाए और फिर चुपचाप लाइन में जाकर खड़े हो गए। उनसे आगे लाइन में तीस-चालीस आदमी और खड़े हुए थे।

दस बजे दफ्तर खुल गया परन्तु पेन्शन बाबू गुलाठी साढ़े दस बजे अपने केबिन में तशरीफ लाए। वे आकर अपनी सीट पर इस प्रकार पसर गए मानो कहीं से कोई भारी-भरकम काम करके लौटे हों।

कुछ देर तक वे इसी मुद्रा में कुर्सी पर आराम से पसरे रहे फिर उन्होंने जेब में से पान का एक बीड़ा निकाला और आराम से बैठकर पान चबाने लगे। लोगों में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई मगर गुलाठी बाबू की मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया। वे यथावत् पान की जुगाली करते रहे।

लाइन में लगे लोगों में रोष बढ़ता जा रहा था। “पेन्शन बांटना शुरू कीजिए बाबू जी। ग्यारह बज गए हैं।“ लाइन में से एक सज्जन ने आवाज लगाई।

“बांटेंगे भाई बांटेंगे। जरा दम तो लेने दो।“ गुलाठी बाबू ने पान की पीक थूकते हुए कहा।

इसके बाद उन्होंने घन्टी बजाई और चपरासी से फाइल लाने के लिए कहा। करीब आधे घन्टे में कहीं चपरासी ने फाइल लाकर दी और इस प्रकार बारह बजे पेन्शन वितरण का कार्य शुरू हुआ।

चपरासी नाम पुकारता, पेन्शन लेने वाला अन्दर आता। वह गुलाठी बाबू को पच्चीस रुपए की भेंट चढ़ाता और फिर हस्ताक्षर आदि की कार्यवाही पूरी करके अपनी पेन्शन लेकर चला जाता। लगभग एक घन्टे तक पेन्शन बांटने का काम अनवरत रूप से चलता रहा।

उसके बाद लंच हो गया। गुलाटी बाबू उठकर चाय पीने चले गए और बाबू लोग भी उनके साथ थे। आज गुलाटी बाबू की आमदनी का दिन था, इसलिए आज की चाय-नाश्ते का सारा खर्चा गुलाठी बाबू को ही देना था। बाबू लोग गर्म-गर्म समोसों और छोलों का लुत्फ उठा रहे थे। कैन्टीन में उनके ठहाके गूँज रहे थे।

उधर लाइन में खड़े-खड़े मास्टर किशोरी लाल की दायीं टांग बुरी तरह दुखने लगी थी। मास्टर किशोरी लाल राजकीय इण्टर कालेज में शिक्षक रहे थे। उन्हें रिटायर हुए दो साल हो गए थे।

मास्टर किशोरी लाल बड़ा सिद्धान्तवादी आदमी थे। आजादी की जंग में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उनके अन्दर देशभक्ति एवं नैतिकता का जज्बा कूट-कूट कर भरा हुआ था। इसलिए वे आज के दौर में अपने को अनफिट पाते थे।

इन सब कारणों से मास्टर किशोरी लाल को अपनी पेन्शन बंधवाने में बड़े पापड़ बेलने पड़े। दो साल तक उन्होंने रोज दफ्तरों की खाक छानी, तब कहीं पिछले महीने जाकर उनकी पेंशन बंधी थी।

पिछले महीने जब वे पेन्शन लेने आए तो उन्होंने गुलाठी बाबू को पच्चीस रुपये देने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर काफी झक-झक हुई। गुलाठी ने अन्त में पेन्शन दे तो दी थी, मगर वह मास्टर किशोरी लाल को यह चेतावनी देना न भूला था कि अगले महीने वह बिना रुपए लिए पेन्शन नहीं देगा।

देखो आज गुलाठी क्या गुल खिलाता है। मास्टर किशोरी लाल मन ही मन सोचने लगे।

लंच खत्म हो गया था। गुलाठी बाबू अपनी सीट पर आकर विराजमान हो गए थे। पेन्शन वितरण का कार्य फिर से शुरू हो गया था। गुलाठी बाबू की आज जेब गर्म हो रही थी, इसलिए वह सबसे बड़ा मुस्कुरा-मुस्कुरा कर बातें कर रहा था। मगर जैसे ही मास्टर किशोरी लाल का नम्बर आया गुलाठी की मुख-मुद्रा बदल गई।

“पच्चीस रुपए निकालो।“ गुलाठी गुर्राते हुए बोला।

“मैं रुपए नहीं दूंगा। मैंने आपको पिछली बार भी बताया था।“ मास्टर किशोरी लाल शान्त किन्तु दृढ़ स्वर में बोले।

“क्यों नहीं दोगे रुपए। जब सब दे रहे हैं तो तुममें ऐसे कौन से सुर्खाव के पर लगे हैं जो तुम रुपए नहीं दोगे।“ गुलाठी चीख कर बोला।

आस-पास की सीटों के बाबू लोग भी गुलाठी के आस-पास जमा हो गए।

“मैं रिश्वत नहीं दूंगा। एक बार में सुन लो।“ मास्टर किशोरी लाल ने दो टूक उत्तर दिया।

“रिश्वत नहीं दोगे तो नहीं मिलेगी पेन्शन हम तुम्हारे नौकर नहीं हैं, जो सुबह से लेकर शाम तक तुम्हारे काम में लगे रहें।“

क्या कह रहे हो गुलाठी बाबू। आप इन्हें नहीं जानते। यह महान देशभक्त मास्टर किशोरी लाल हैं। इन्होंने हमें आजाद कराया था। तुम्हें इनसे अदब से बात करनी चाहिये एक बाबू ने गुलाठी से कहा। मगर उसके शब्दों में मास्टर किशोरी लाल के प्रति आदर कम व्यंग्य अधिक था।

“होंगे देशभक्त ! मगर मैं क्या करूं इनकी देशभक्ति का ओढ़ूं या बिछाऊ ? इनकी देशभक्ति तो मेरे बच्चों का पेट नहीं भर सकती है। पेट भरने के लिए तो रुपए चाहिए रुपए। इसलिए मैं बिना पच्चीस रुपए लिए पेन्शन नहीं दूंगा। यह जो चाहे करें जिससे चाहे जाकर मेरी शिकायत करें।“ गुलाठी तैश में बोला।

“कैसे नहीं दोगे पेन्शन। पेन्शन हमें सरकार देती है आप नहीं। आपका काम है पेन्शन बांटना। और इसके लिए सरकार आपको वेतन देती है।“ मास्टर किशोरी लाल ने गुलाठी से भी ज्यादा ऊँची आवाज़ में कहा।

कभी किशोरी लाल की आवाज में बड़ी कड़क हुआ करती थी। अंग्रेजों के खिलाफ वे घन्टों धारा प्रवाह भाषण देते। अपनी बुलन्द आवाज में अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाते। परन्तु आज इतना बोलने में ही वे बुरी तरह हांफने लगे थे।

“मुझे कानून सिखाते हो। लो नहीं बांटता पेन्शन। जाओ जो कुछ करना हो, कर लो।“ गुलाठी भड़ाक से खिड़की बन्द करते हुए बोला।

पेन्शन बांटने का काम बन्द हो गया था। लाइन में खड़े लोग किशोरी लाल को भला-बुरा कह रहे थे। गुलाठी अलग अन्ट-शन्ट बक रहा था। मास्टर किशोरी लाल को ऐसा लग रहा था, मानो इन्हें चक्कर आ जाएगा। आजाद भारत में उन्हें यह दिन भी देखने को मिलेंगे इसकी उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी।

उनसे जब खड़ा नहीं हुआ गया तो वे आफिस के सामने खड़े पेड़ के नीचे जाकर बैठ गए। बैठते ही अतीत की घटनाएं उनके मन में सजीव हो उठीं। सन् उन्नीस सौ चालीस के आस-पास की बात थी। भारत की गुलामी के दिन थे। उस समय किशोरी लाल बी.ए. के छात्र थे। वे बनारस में पढ़ रहे थे।

किशोरी लाल बहुत ही होनहार छात्र थे। हाईस्कूल और इन्टर की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। घर वालों ने इस आशा के साथ उन्हें शहर पढ़ने भेजा था कि एक दिन उनका लड़का पढ़-लिखकर ऊँचा अफसर बनेगा। परन्तु विधाता को शायद कुछ और ही मंजूर था।

बनारस उस दिनों क्रान्तिकारियों की गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र था। एक दिन उनके कॉलेज में क्रान्तिकारियों की एक गुप्त मीटिंग हुई। किशोरी लाल के कुछ साथी किशोरी लाल को भी उस मीटिंग में ले गए।

मीटिंग में क्रान्तिकारियों के नेता ने अपने भाषण में गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत माता का जो दयनीय चित्र खींचा उससे किशोरी लाल के रोंगटे खड़े हो गए। भाषण क्या था एक-एक शब्द मानो शोला था। किशोरी लाल का खून खौल उठा। उसी दिन से वे सब कुछ छोड़कर भारत माँ की आजादी की जंग में कूद पड़े।

वे क्रान्तिकारी दल के सक्रिय सदस्य बन गए। उन्हें बम बनाने का काम सौंपा गया। किशोरी लाल बड़ा कुशाग्र बुद्धि के थे। इसलिए जल्दी ही उन्हें बम बनाने में महारत हासिल हो गई।

पूरे देश में क्रान्तिकारी गतिविधियां तेज हो गईं। देश की आजादी के लिए नौजवान सिर पर कफन बांध कर निकल पड़े। दिन-प्रतिदिन होने वाली क्रान्तिकारी घटनाओं ने अंग्रेज सरकार की रातों की नींद हराम कर दी। अंग्रेजों का दमनचक्र शुरू हो गया। परन्तु अंग्रेज अधिकारी क्रान्तिकारियों की गतिविधियों को जितना दबाने की कोशिश कर रहे थे उतनी ही तेजी से क्रान्तिकारी आन्दोलन पूरे देश में फैलता जा रहा था।

बनारस में प्रमुख क्रान्तिकारी रणधीर सिंह के पुलिस मुठभेड़ में शहीद हो जाने के कारण किशोरी लाल को बनारस के क्रान्तिकारियों का सरगना बनाया गया। अब उन पर अधिक भारी जिम्मेदारी आ गई थी इसलिए वे और शक्ति के साथ क्रान्ति के काम में लग गए।

इसी बीच घर वालों ने उनकी शादी तय कर दी, मगर किशोरी लाल ने शादी करने

से साफ इन्कार कर दिया। घर वालों ने बहुत समझाया, मगर किशोरी लाल टस से मस नहीं हुए थे।

उन्होंने कहा था कि उनके जीवन का तो अब बस एक ही लक्ष्य रह गया है, भारत माँ को आजाद कराना। इसलिए वे शादी के झंझट मंे नहीं पड़ेंगे। उन पर परिवार वालों-रिश्तेदारों का बहुत दबाव पड़ा, मगर वे अपनी बात पर अडिग रहे। हार कर घर वालों ने किशोरी लाल को उनके हाल पर छोड़ दिया।

क्रान्तिकारी दल में किशोरी लाल की अच्छी पहचान बन गई। दल के सदस्य उनकी कुशाग्र बुद्धि और दिलेरी का लोहा मानते थे। वे बड़ा ओजस्वी वक्ता थे। जब वे अपनी कड़कदार आवाज में भाषण देते तो लोगों की रगों में बिजली दौड़ जाती। उनके प्रयासों से बहुत से नौजवान क्रान्तिकारी दल में शामिल हो गए।

इसी बीच लाहौर का बम काण्ड हो गया। इस काण्ड ने ब्रिटिश सरकार की चूलें हिला दीं। अंग्रेज अधिकारियों में खलबली मच गई। सरकार का दमनचक्र और क्रूर हो उठा। पूरे देश में क्रान्तिकारियों की धर-पकड़ शुरू हो गई। चप्पे-चप्पे पर जासूस तैनात कर दिए गए।

क्रान्तिकारियों को पकड़ने के लिए पुलिस जगह-जगह पर छापे मार रही थी। बनारस में भी धर-पकड़ शुरू हो गई। किशोरी लाल भूमिगत हो गए। उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस ने कई जगह छापे मारे, परन्तु पुलिस को किशोरी लाल का कोई सुराग नहीं मिल सका।

किशोरी लाल बनारस के क्रान्तिकारियों के सरगना थे, इसलिए पुलिस अधिकारी बहुत बौखलाए हुए थे। उनके गांव में भी छापा मारा गया। पुलिस ने किशोरी लाल का पता पूछने के लिए उनके माता-पिता को बहुत मारा-पीटा मगर वे लोग तो किशोरी लाल के बारे में खुद ही कुछ नहीं जानते थे, तो वे बेचारे पुलिस वालों को क्या बताते। इसलिए वहां भी पुलिस को निराशा ही हाथ लगी। इसलिए पुलिस अधिकारियों में खिसियाहट और बढ़ गई।

किशोरी लाल की एक विधवा बहिन बनारस में ही रहती थी। बाईस साल की छोटी उम्र मंे ही वे विधवा हो गई थीं। उनके छोटे-छोटे दो बच्चे थे। जब पुलिस को इस बात का सुराग मिला तो पुलिस ने उनकी बहिन के घर छापा मारा। पुलिस वालों ने उनसे बड़ी सख्ती से पूछताछ की। मगर उनकी बहिन ने तो महीनों से किशोरी लाल की शक्ल ही नहीं देखी थी तो वे बेचारी पुलिस वालों को क्या बतातीं।

खिसियाए पुलिस वालों ने उन्हें बहुत बुरी तरह से पीटा। पिटते-पिटते वे बेहोश हो गईं। एक गोरे सिपाही ने अपने बूट की ठोकर उनके सीने पर मारी। चोट गहरी बैठी, अन्दर की कोई नस फट गई, जिससे अन्दर ही अन्दर रक्त बहना शुरू हो गया। काफी कोशिश के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। तीसरे दिन उनकी मृत्यु हो गई।

किशोरी लाल को जब इस बात की खबर मिली थी तो इस खबर को सुनकर वे सन्न रह गए। वे अपनी बहिन को बहुत चाहते थे। बहिन के साथ हुए इस दर्दनाक हादसे को सुनकर उनका खून खौल उठा। बहिन की चिता की राख को मुट्ठी में भर कर उन्होंने सौगन्ध खाई थी कि वे अत्याचारी गोरों को देश से बाहर खदेड़ कर ही दम लेंगे। और भारत माँ को आजाद कराए बिना चैन से नहीं बैठेंगे। वे और तेजी से क्रान्ति के सूत्रों को जोड़ने के काम में जुट गए।

इसे भारत माँ का दुर्भाग्य कहा जाये या क्रान्तिकारियों की बदकिस्मती। अधिकांश क्रान्तिकारियों को उनके साथियों ने ही गिरफ्तार करवाया था। चाँदी के चन्द खनखनाते सिक्कों की खातिर उन लोगों ने अपना जमीर अपनी देशभक्ति सब कुछ बेच डाला।

किशोरी लाल का भी एक साथी पुलिस का मुखबिर बन गया। उसने पुलिस को किशोरी लाल का पता-ठिकाना सब कुछ बता दिया। किशोरी लाल गिरफ्तार कर लिए गए।

कई दिन तक किशोरी लाल को पुलिस ने अपनी कस्टडी में रखकर उनसे पूछताछ की। उनसे उनके क्रान्तिकारी साथियों का पता-ठिकाना पूछने के लिए उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं। परन्तु किशोरी लाल ने अपने किसी साथी का पता बताने से साफ इन्कार कर दिया। अंग्रेज पुलिस अधिकारी गुस्से से पागल हो उठे। उन्होंने मारते-मारते किशोरी लाल की दायीं टांग तोड़ डाली, परन्तु किशोरी लाल तो पता नहीं किस मिट्टी के बने थे, उन्होंने मुंह नहीं खोला। हार कर अंग्रेज पुलिस अधिकारियों ने उन्हें जेल भेज दिया।

किशोरी लाल ने तीन साल तक जेल की लम्बी यातनाएं झेलीं, परन्तु उन्होंने कभी उफ तक नहीं की।

देश में क्रान्तिकारियों ने आजादी की जो शमा जलाई थी, उसने धीरे-धीरे दावानल का रूप धारण कर लिया। पूरा देश आजादी के लिए एकजुट होकर खड़ा हो गया। क्रान्तिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान रंग लाया। देश से दासता की काली छाया समाप्त हुई, स्वतन्त्रता का सूर्य उदय हुआ।

किशोरी लाल को भी अन्य क्रान्तिकारियों के साथ जेल से छोड़ दिया गया। किशोरी लाल की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। वह सोचते अब अपना राज्य होगा। अब कोई किसी पर अत्याचार नहीं करेगा। सबको रोजगार मिलेगा। किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा। सभी लोग प्रेम और भाईचारे से रहेंगे। क्रान्तिकारियों को सब लोग सिर-आँखों पर बिठायेंगे। जगह-जगह पर उनका सम्मान होगा।

कुछ समय तक तो सब कुछ ठीक-ठाक रहा। दो चार जगह किशोरी लाल को बुलाकर सम्मानित भी किया गया। परन्तु धीरे-धीरे लोग किशोरी लाल को भूलते गए। बदलते समय के साथ सब कुछ बदल गया। भौतिकता की अन्धी दौड़ में नैतिक मूल्य दम तोड़ते गए।

किशोरी लाल के सामने अब सबसे बड़ी समस्या जीवन यापन की थी। उनकी बहिन जो पुलिस की मार से शहीद हो गईं उनके दो छोटे-छोटे बच्चों का भार भी किशोरी लाल पर ही आ पड़ा था। किशोरी लाल ने अपनी बी.ए. की पढ़ाई पूरी की और एक सरकारी स्कूल में नौकरी कर ली।

मगर आजाद भारत में भी किशोरी लाल की मुसीबतों का सिलसिला कम नहीं हुआ। अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ उन्होंने जितना संघर्ष किया था, उससे अधिक संघर्ष उन्हें अपनी सरकार के अधिकारियों के अत्याचारों के खिलाफ करना पड़ा।

बीस साल की सरकारी सेवा में उनके दो दर्जन से अधिक स्थानान्तरण हुए। वे जिस विद्यालय मंे भी जाते वहां पूरी लगन एवं निष्ठा से काम करने की कोशिश करते। उनके अन्दर जो देशभक्ति एवं कर्तव्यनिष्ठा का जज्बा था उसे वे अपने छात्रों में भरने की कोशिश करते। उनमें हर समय पढ़ाने की धुन सवार रहती।

किशोरी लाल पूरी ईमानदारी से अपनी ड्यूटी करते। परन्तु वे न तो प्रधानाचार्य और अन्य अधिकारियों की जी-हजूरी कर पाते और न ही उनकी गलत बातों को स्वीकार कर पाते। इस कारण अधिकारी लोग उनसे चिढ़े रहते। इसलिए किशोरी लाल किसी एक विद्यालय में एक साल से अधिक नहीं टिक पाते।

किसी विद्यालय में पहुंचे उन्हें चार महीने ही बीत पाते कि पता चलता कि उनका स्थानान्तरण दूसरे स्थान पर हो गया है। उनका बिस्तर हर समय बंधा ही रहता। इन

सब कारणों से किशोरी लाल न तो कहीं कोई मकान बना पाए थे और न कोई सम्पत्ति ही जोड़ पाए थे।

उनके साथी उनकी हंसी बनाते, रिश्तेदार और सम्बन्धी ताना कसते कि क्या पुरस्कार मिला तुम्हारी देशभक्ति का ? क्या किया सरकार और समाज ने तुम्हारे लिए ? तुम्हारे साथी कहां से कहां पहुंच गए, मगर तुम मास्टर के मास्टर ही रहे।

परन्तु किशोरी लाल तो पता नहीं किस मिट्टी के बने हुए थे। वे उन लोगों की बातों से बिल्कुल विचलित नहीं होते। वे बड़ा सहज भाव से मुस्कराकर कहते-“मैंने अपने देश की सेवा किसी से कुछ पाने के लिए नहीं की। यह देश हमारी माँ है, और अपनी भारत माँ की सेवा के लिए एक जन्म तो क्या अगर हजार जन्म भी न्योछावर करना पड़ें तो मैं पीछे नहीं हटूंगा।

समय की मार ने किशोरी लाल के तने हुए चैड़े सीने को ढीला कर दिया, उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। जरा सा चलने पर उनकी दायीं टांग बुरी तरह दुखने लगती। इस सबके बावजूद किशोरी लाल में अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने का जो जज्बा था उसमें रत्ती भर भी कमी नहीं आई थी। इस उम्र में भी वे अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए अकेले ही ताल ठोंक कर तैयार हो जाते। इस संघर्ष में उनका साथ कौन देगा इसकी उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की।

मास्टर किशोरी लाल काफी देर तक इसी तरह अतीत की यादों में खोए रहे। फिर उन्होंने छड़ी उठाई और धीरे-धीरे घर की ओर चल दिए।

अगले दिन से किशोरी लाल का संघर्ष शुरू हो गया। वे पेन्शन अधिकारी के पास गुलाठी की शिकायत लेकर पहुंचे, मगर पेन्शन अधिकारी से उनकी भेंट नहीं हो पाई।

पेन्शन अधिकारी के यहां चक्कर काटते-काटते किशोरी लाल को दस दिन से ऊपर हो गए थे। कभी साहब विजी होते तो कभी वे दौरे पर होते। कभी मीटिंग में चले जाते तो कभी छुट्टी पर होते।

मगर किशोरी लाल बिना नागा रोज पेन्शन अधिकारी के यहां अपना प्रार्थना-पत्र लेकर हाजिर रहते कि पता नहीं कब साहब को उनसे मिलने की फुर्सत मिल जाये।

पन्द्रहवें दिन कहीं साहब से भेंट हो पाई। किशोरी लाल ने सारी बातें साहब को बताईं। गुलाठी भी वहीं बैठा हुआ था। साहब और गुलाठी में आँखों ही आँखों में कुछ बातें हुईं। फिर साहब किशोरी लाल की ओर मुखातिब होकर बोले-“ठीक है आप अप्लीकेशन दे दीजिए। हम इस पर कार्यवाही करेंगे। आप हमसे परसों आकर मिल लीजिए।“

किशोरी लाल बहुत अच्छा साहब कहकर चल दिए। गुलाठी ने एक बार किशोरी लाल की ओर देखा, और फिर दूसरी ओर मुंह फेरकर मुस्कराने लगा।

मास्टर किशोरी लाल को चैन नहीं था। तीसरे दिन दस बजे ही वे पेन्शन आफिस पहुँच गए। उस दिन आफिस में पेन्शन विभाग का कोई बहुत बड़ा अफसर निरीक्षण के लिए

आया हुआ था।

आफिस में निरीक्षण चल रहा था। चपरासी किसी को अन्दर नहीं जाने दे रहा था। उसने किशोरी लाल को भी रोकने की कोशिश की, मगर किशोरी लाल धड़धड़ाते हुए पेन्शन अधिकारी के कक्ष में जा पहुँचे। किशोरी लाल को देखकर पेन्शन अधिकारी के माथे पर बल पड़ गए।

उधर बड़े अफसर ने कुछ क्षण तक ध्यान से किशोरी लाल को देखा। फिर वह किशोरी लाल को सम्बोधित करते हुए बोला-“सर ! आप। यह तो मेरा सौभाग्य है, जो आज मुझे

आपके दर्शन करने का अवसर मिला।“ यह कहकर उन्होंने बड़ी श्रद्धा से किशोरी लाल के पैर छू लिए थे।

पेन्शन अधिकारी और कार्यालय के बाकी लोग हक्का-बक्का थे। किशोरी लाल ने उस नवयुवक अधिकारी को पहचानने की बहुत कोशिश की, मगर उन्हें कुछ याद नहीं आ रहा था।

“आपने मुझे पहचाना नहीं सर, मेरा नाम अभिषेक है। आज से लगभग बीस साल पहले आपने गवर्नमेन्ट कालेज में मुझे पढ़ाया था। आपने मुझे पढ़ाई के साथ-साथ देशभक्ति एवं कर्तव्यनिष्ठा की जो शिक्षा दी, उसी के कारण मैं इस पद तक पहुंच सका हूँ सर। मैं आज जो कुछ हूँ आपकी बदौलत हूँं बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।“

जब किशोरी लाल अपना प्रकरण बड़े अफसर को बताया, तो वे आग-बबूला हो उठे। वे बोले-“मास्टर किशोरी लाल जैसे लोगों ने देश की आजादी की खातिर अपना पूरा जीवन दांव पर लगा दिया। उन्होंने तरह-तरह की यातनाएं झेलीं। मगर कभी उफ तक नहीं की, और आजाद भारत में हम यह सिला दे रहे हैं उन्हें उनके बलिदानों का। आप लोगों को शर्म आनी चाहिए। गुलाटी और दफ्तर के अधिकारी सिर झुकाए खड़े थे। बड़े साहब के आदेश पर आनन-फानन में किशोरी लाल को उनकी पेन्शन का भुगतान कर दिया गया।

बड़े साहब बड़ी श्रद्धा से मास्टर किशोरी लाल को दफ्तर के गेट तक छोड़ने आए थे।

मास्टर किशोरी लाल का यह विश्वास और दृढ़ हो गया था कि देशभक्ति वह जज्बा है जिसकी चमक कुछ समय के लिए फीकी तो पड़ सकती है परन्तु बुझ नहीं सकती।

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