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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 2

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 2

खण्‍डकाव्‍य

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

 

 

 

 

 

 

द्वितीय अध्‍याय – तारापति

दोहा – कितने दिन के गये तुम, सुधि नहिं लीनी नाथ।

मेरी तो जैसी रही, तारा की भी साथ।। 1 ।।

नहिं तुमसा निर्मोही पेखा। बच्‍चे का भी सुख नहिं देखा।।

नारी जीवन – बेल समाना। बिना सहारे नहिं चढ़ पाना।।

जीवन दुरलभ प्रकृति बनाया। कहैं विचित्र दैव की माया।।

बचपन मात पिता की छाया। तरूणाई में पती रखाया।।

वृद्ध अवस्‍था पुत्र सहारे। जीवन काट रही विपदारे।।

इतना भी साह‍स नहिं रखती। अपना पेट आप भर सकती।।

पुत्रहु सोच भये निश्चिंता। सुत को पालूं कैसे कंता।।

कितनी खोज पिता करवाई। नहिं कछु पता तुम्‍हारा पाई।।

दोहा – दरवाजे के निकट ही, खड़ी देख आकाश।

तारे जगमग की चमक, खोजत ताहि प्रकाश।। 2 ।।

सभी लोग थे घर के सोये। मन की व्‍यथा मनहि में गोये।।

नींद न आई तो धुन छाई। बना गीत सो देऊँ सुनाई।।

बाढ़ जभी नद में है आती। चले सभी मर्यादा ढाती।।

उमड़ाती घुमड़ाती बहती। त्‍यों ही विषय – वासना बढ़ती।।

एैसे ही स्‍वामी तुम आये। थी मैके मुझको नहिं भाये।।

निकल पड़े तब मेरे वचना। यही भांति होते हरि लगना।।

रिषियों की सन्‍तान कहाते। हाड़ मांस हित फिर क्‍यों धाते।।

क्‍या विश्‍वास तोलने आये। गये हार इसलिये भगाये।।

मिटा अनंग बदला लेने को। मुझ अवला को दुख देने को।।

दोहा – सु‍न धुनि शान्ती जग पड़ी, छिपकर सुना जु गीत।

इतने में हुई शंख ध्‍वनि, प्रात काल मन चीत।। 3 ।।

ननदी का तुम बावरि भई। आये भाई रात जग गई।।

अब तो बने जाय बैरागी। तुमरी शिक्षा के भये भागी।।

बोली रतना धैर्य धरूंगी। साहस से सब कार्य करूंगी।।

पुरूष हार जाता जब जग से। बाबा ही बन पाता तब से।।

पर विराग तो उसको कहतै। बदल जाय मन मन भी जग ते।।

पलटे भेष काम नहिं बन्‍ता। सब कुछ जाने जगत नियन्‍ता।।

सुन कर शान्ति चकित भई बानी। रानी कहती सत्‍य बखानी।।

युग युग की है बात पुरानी। अब तो बदल गये सब प्रानी।।

दोहा – आजकाल ऐसा करे, सो मूरख कहलाय।

कर्तव्‍यों से हो विमुख, भार समाज उठाय।। 4 ।।

पर आश्रित कह, करें बुराई। स्‍वावलम्बि को मिले बड़ाई।।

यों कह भाभी ने समझाया। क्‍या समाज से नाता गाया।।

तुम भी उन जैसी बन जाओ। क्‍यों जीवन को व्‍यर्थ गँवाओ।।

वोली रतना बात विचारी। नारी व्‍यथा पुरूष से न्‍यारी।।

घर से निकले पुरूष महाना। नारी निकले कुलटा जाना।।

भाभी एक बात मन आवै। कहूं जु तूं मन बुरा न लावै।।

तुम्‍हरी बातें नी‍की लागें। कहो कहो लज्‍जा भय त्‍यागैं।।

कहीं तुम्‍हें मैं भार न लागी। अपनी विपदा की मैं भागी।।

दोहा – हाय हाय क्‍या कह रहीं, मैं तो की तप बात।

रत्‍नावलि सुन समझ लई, भाभी की उर घात।। 5 ।।

आप न समझीं मुझको भाभी। चाहों समझन कहौ सुभागी।।

लघु वय जान बात कछु कीन्‍ही। तरूणाई पति बिन दुख दीन्‍ही।।

धर्म अधर्म जान विद्वाना। हम तो सूधी राह सुजाना।।

फिर भी चेतावनि अति नीकी। सीख सुने लागै नहिं फीकी।।

परी सुनाई पितु की वानी। बेटी पूजा हित जल आनी।।

अभी लाई यह उत्‍तर दीना। नीचे उतर आइ तब जीना।।

घट उठाय यमुना चल दीनी। लाई जल भर पूजा कीनी।।

ग्राम महेवा रह इस पारा। राजापुर रह परली पारा।।

पाठक जी नित आते जाते। केवट बाट जोहते पाते।

दोहा – प्रात काल का नियम था, आते जाते संत।

मंदिर श्री हनुमान के,  जिनकी शक्ति अनंत।।  6 ।।।

दरसन परसन करके पूजा। आते लौट कार्य नहिं दूजा।।

आय प्रश्‍न रत्‍ना से कीना। पहुँचा कहँतक पाठ प्रवीना।।

कहा यही श्री सीता माता। बाल्‍मीकि आश्रम गई ताता।।

जो शंका तुम हम से करतीं। भई दूर कै रही उलझती।।

अज्ञानी के छुद्र विचारा। प्रगटें ज्ञान, करें उजियारा।।

अब भी दोष राम को दोगी। जीवन भर कोइ रहा निरोगी।।

घटनायें जो जो घट जातीं। मन चिन्‍तन की राह बतातीं।।

अग्नि परीक्षा की कठिनाई। बार बार शंका उर लाई।।

दोहा -  धर्म कर्म व्रत नेम जे, राजनीति के भाग।

बने लोक हित के लिये, त्‍यों सीता का त्‍याग।। 7 ।।

जब तक भाभी मुन्‍ना लाई। पूजा गृह आगे बैठाई।।

चल घुटनों बल अन्‍दर जाई। मुर्ति उठावन हाथ चलरई।।

दौड़े नाना लिया उठाई। बोले तुझे क्‍या चिन्‍ता भाई।।

यह तारापति बना सुखी रह। पिता डोलता रहे जहॉं यह।।

वह अपने मन की कर डारे। को पहाड़ से सिर को मारे।।

रतना वैसे ही कम बोले। तुलसी गये तब से मुँह खोले।।

वोली हम क्‍यों सिर को पटकें। असमय छोड़ा वो ही भटकें।।

अपने लिये भजन जो करता। पर दुख को चित में नहिं धरता।।

दोहा – ऐसों की क्‍या गति बने, जाने वो भगवान।

परहित लेकर ही बना, जग का सकल विधन।। 8 ।।

कहती बात ठीक तुम बेटी। पर मम जान परै यह हेटी।।

जग आसक्ति राम से दूरी। पलटे बने संजीवन मूरी।।

सोइ राम से जाय मिलाबे। यह जग सिया राम बन जाबे।।

तपका फल नहिं निज उद्धारा। हो समाज हित अधिक विचारा।।

जो समाज सुख दाइ बनाबें। तो दौड़े प्रभुता पर आवैं।।

करै तपस्‍या पर हित भाई। जो सबको होवे सुख दाई।।

जो निज हेत तपस्‍या करते। वे शोषक समाज के बनते।।

तारापति ले बाहर आईं। पाठक डूब गये पंडिताई।।

दोहा – घटनायें नव चेतना, करतीं सदा प्रदान।

सोच मथन से निकलता, कोई नया विधान।। 9 ।।

पिता पुत्रि संवाद से, साहस बढ़ा महान।

रत्‍नाव‍ली हारी नहीं, पुरूषा रथ रख ध्‍यान।। 10 ।।