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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 6

 

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 6

खण्‍डकाव्‍य

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

 

षाष्‍ठं अध्‍याय – गणपती

दोहा – पुत्र सहारा बनत है, पति वियोग के बाद।

सोई रतना आस कर, तज दिये सकल विषाद।। 1 ।।

तारापति अब बोलन लागा। सभी खिलाने लेते भागा।।

नाना लिये ग्राम में डोलें। रतना मात की आशा तौलें।।

रतना सोचे किरिया सारी। होगा निज गृह का अधिकारी।।

छोटा है सो सभी खिलाते। भइया भाभी प्‍यार जताते।।

कल के दिन की किसने जानी। क्‍या व्‍यवहार करें ये प्रानी।।

फिर मैं भार बनू क्‍यों इनपर। सह निकालूं कुछ चिन्‍तन कर।।

अपने पैरों चलना चहिये। यही रास्‍ता जमा अपनइये।।

आइ दिवाली निकट सुहाई। करै सभी सफाई पुताई।।

दोहा – कई खबरेंहैं आचुकीं, गणपति की मम पास।।

मैया आबें यहां पर, होंगें सभी सुपास।। 2 ।।

रह उधेड़बुना करती रतना। दो सखियॉं आई संलग्‍ना।।

सो कोसल्‍या और सुगंधा। पच गुट्टे खेलन अनुबंधा।।

बोली बाजी चढ़ी पुरानी। ताहि उतारन मन में ठानी।।

अब तक उत्‍तर न पाई तुमसे। अब क्‍या उवर पाओगी हमसे।।

ले चुटकी कौसल्‍या बोली। हार मान जीजा मति डोली।।

कही सुगंधा ऐसी वानी। उनको क्‍यों घसीटती रानी।।

वे तो राम भजन लवलीना। उनने कहा तुम्‍हारा छीना।।

कितने दिन भये तुमको आये। कबहूँ लेखा गये लगाये।।

दोहा – बोली खबरैं आ रहीं, गणपति जी के हाथ।

रहा शिष्‍य महाराज का, वो ही देगा साथ।। 3 ।।

करते मना पिता जब सुनते। उनको चिंता होगी गुनते।।

टूटा घर देखेगा आई। तो सुधार की चिंता छाई।।

सब गई समझ सहेली बातें। रतना की जाने की घातें।।

बोलीं अब जब गणपति आवै। जाव संग मेरे मन भावै।।

रतना बोली ठीक कहा है।  नारी दोनो ओर निवाहै।।

कही संगंधा राय जनाये। अब तो बहुत उपद्रव छाये।।

मुगलों का यह शासन आई। जहां तहां व्‍यभिचारी छाई।।

ज्‍वान अवस्‍था रहे तुम्‍हारी। अपनी इज्‍जत आप संभारी।।

दोहा – यों कह गई सहेलियां, अपने घर की ओर।

रतना तारापति से, बातें करती जोर ।। 4 ।।

बेटा चलौ घरै अब चलियें। दुख सुख वहीं जाय कर सहियें।।

मरे सॉंप नहिं लाठी टूटै। बने काज दोउ, यह घर छूटै।।

गणपति पिता द्वारकादास। भेजें खबर बुलावन आसा।।

गणपति गोस्‍वामी का चेला। रहा घरोवा हेलक मेला।।

नव दुर्गा चल रहीं आज कल। बना बनाया है मुहूर्त भल।।

गणपति तवहि लिवाने आया। पाठक जी के मन हू भाया।।

दोहा – बड़े घरन की रीति यह, आवें समये काम।

रतना जाने का बना, यों संयोग ललाम।। 5।।

कानों कान बात यों फैली। रतना जाना चहै सहेली।।

मिला गणपति रतनहि आई। छुये पैर गुरु माता नाई।।

बोला मैया अब घर चलिये। सुख दुख सबहि वहीं पर सहिये।।

कहा पिता ने चिंता नाहीं। सब प्रबंध हम नित्‍य कराहीं।।

घर भी अपना देखो भालो। अपना कारज स्‍वयं संभालो।।

तबतक सभी इकट्ठे होते। तारापति को गणपति लेते।।

करन लगे सुख दुख की बातें। करी प्रसंशा गुरू के नातें।।

मैंने सुना विरागी भयेऊ। भाग्‍य लिखी से सो वँध गयऊ।।

दोहा – बना मता सब का यही, कछु दिन घर रह आय।

उचित नहिं यद्यपि तउ, जो कछू दैव कराय।। 6 ।।

मन मारे पहुँचा दई, गणपति चले लिवाय।।

गये नदी तक भेजने, पहुँचा वापिस आय।। 7 ।।