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खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली - 5

 

खण्‍डकाव्‍य रत्‍नावली 5

खण्‍डकाव्‍य

 

श्री रामगोपाल  के उपन्‍यास ‘’रत्‍नावली’’ का भावानुवाद

 

 

रचयिता :- अनन्‍त राम गुप्‍त

बल्‍ला का डेरा, झांसी रोड़

भवभूति नगर (डबरा)

जि. ग्‍वालियर (म.प्र.) 475110

पंचम अध्‍याय – गंगेश्‍वर

दोहा – नित प्रति की है जो व्‍यथा, सहत सहत सह जाय।

आत्‍म शक्ति विश्‍वास की, आस्‍था त्‍योंहि बढ़ाय।। 1 ।।

त्‍यों पाठक परिवारहिं जानो। सबही चिन्‍ता रहै भुलानो।।

रतनहु दुख परिवर्तन कीना। पुत्र प्रेम में अब मन दीना।।

केशरकाकी सुत व्‍यवहारा।  रहती क्षुब्‍ध सु करत विचारा।।

बहुत दिवस सोचत ही बीते। बैठक आज भई अपु हीते।।

पाठक जी बैठे निज पौरी। केशर भी आई उन ओरी।।

रतना तारापति ले आई। गंगेश्‍वर भी आ ठहराई।।

बहू शा‍न्‍ती कौने चिपकी। बात सबन की सुनती दुबकी।।

बोली केशर तुलसी की छवि। व्‍याहन आये ता दिन की फवि।।

दोहा – भूलत नाहिं भुलाय हू, वह बारात की शान।

ऐसी नहिं काहू लखी, जैसी उनकी आन।। 2 ।।

सुनते ही पाठक जी बोले। गणपति पिता कृपा कौं तोले।।

उनकी बात न तुलसी टारैं। यों संबंध भयो निर्धारैं।।

तब  ही गंगेश्‍वर यों बोला। बने फिरें विद्वान अमोला।।

अक्‍कल दो कौड़ी की ना‍हीं।  साधु बने, क्‍यों कन्‍या व्‍याही।।

तब ही उस दिन की सुधि आई। जा दिन रतनहि गयो लिवाई।।

काका गये लिवावन बहुऐ। आगई होगी अब घर चलिये।।

जीजा जी भी घर पर नांई। तासौं झटपट चलौ लिवाई।।

बना बात कीनी चतुराई। सोचत सोच समझ है आई।।

दोहा – कही बात यों बनाकर, काका जी बीमार।

रतना बिन सोचे चली, यह अनर्थ आधार।। 3 ।।

पूछा मां क्‍या सोच रहा है। मन निज गलती खोज रहा है।।

रतना क्‍या ऐसा कह डाला। जिससे पकड़ लई मृगछाला।।

वे ज्ञानी मानी नहिं होंगे। ढोंगीं बने डोलते होंगे।।

सुनकर पाठक जी भर्राये। बात पलट तब यों समझाये।।

वे थे नहीं पुरूष संसारी। जो बनते मर्यादा धारी।।

केशरवाई तबयों बोली। उसने कथा सार की तौली।।

आनंदमय कहि छनती होगी। हम ही सब चिन्‍ता के भोगी।।

सुन गंगेश्‍वर क्रोध उड़ेला। रचें ‘’बुद्ध’’ सम धर्म नवेला।।

दोहा – पाठक जी कहने लगे, गंगेश्‍वर बाचाल।

इक दिन तुलसी होयगा, संत शिरोमणि भाल।। 4 ।।

यों कह पिता गये चौपाला। सबने निज निज काज संभाला।।

भाई बहिन दोइ रहे बैठें। बोला गंगेश्‍वर मन ऐंठे।।

रतना कबिरा वाली बातें। नहिं काका के मन को भातें।।

यही सोच उन शादी कीनी। रतना बन जायें रस भीनी।।

रतना कही प्रेम के नाते। निज विचार नहिं थोपे जाते।।

वैचारिक टकराहट होती। वह आगे की बात संजोती।।

बोला तो अब रहो प्रेम से। निज विचार नित गुनो चैन से।।

तो क्‍या नारि विचार न राखै। सत्‍य बात हू मुख नहिं भाखे।।

दोहा – नहिं समाज का धर्म ये नहिं कुटुम्ब की रीति।

है इक पक्षी न्‍याय यह, कैसे बाढ़े प्रीति।। 5 ।।

मां, गंगेय आवाज लगाई। काका बुला लाव तुम जाई।।

जब तक वे भोजन नहिं पाबैं। भूखी रह वहु नियम निभावैं।।

अब निकले, कब लौटें आवैं। आदत नहीं बुढ़ापे जावैं।।

गंगेश्‍वर यों गया बुलाने। मन ही मन निज दोषी माने।।

उस दिन नहीं लिवाने जाता। तो यह जोग नहीं बन पाता।।

रतना मन मन ढूंढ़न जाती। केशर सोच सोच रह जाती।।

रमता जोगी बहता पानी। इनकी गति काहू नहिं जानी।।

दोहा – पाठक हू नित सोचते, रहै जवानी रोष।

देर लगे नो रहत है, धीरे पावै तोश।। 6 ।।

यही जोश सब काम करावै। तोड़े जोड़े जगह बनावै।।

पुनर्गठन कभी कर डाले। जो चाहे सो जोश संभाले।।

जो जल वेग भरे स्‍थाना। मेंड़ तोड़ मर्याद नसाना।।

तीव्र प्रवाह हो झरना जैसा। काट कगार बढ़त है वैसा।

वैसे बात अजबसी लागै। वासना से मर्यादा भागे।।

नीति न्‍याय के रोड़े डाले। तोवासना विराग संभाले।।

अब मरयादा तड़प रही है। कैसी अद्भुत घुटन छई है।।

अब मैं दोष देऊँ नहिं काऊ। जो कछु। भयो सु मोर सुभाऊ।।

दोहा – मैं ने तो यों मन समझ,  मेल मिलायो सूझ।

भक्ति ज्ञान दोउ मिल रहैं, भई उल्‍टी ही बूझ।। 7 ।।

कबिरा कांसे प्रगट भौ, कर दओ मटिया मैंट।

कछू बुराई करता हैं, कछू करत हैं भैंट।। 8 ।।