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युगांतर - भाग 8

चिंता और जीवन का तो चोली दामन का साथ है। जीवन रूपी सागर में चिंता रूपी लहरें उठती ही रहती हैं। प्रतापसिंह भी इसका अपवाद नहीं । उसे भी हर वक्त कोई-न-कोई चिंता लगी ही रहती है। वैसे कोई भी चिंता स्थायी नहीं होती। यह भी प्रकृति का एक नियम है। हर कोई इस सच को जानता है, फिर भी हम तनावमुक्त रह नहीं पाते। चिंताओं से घबराना हमारी आदत बन गयी है।
जिन्दगी के लम्बे सफर में अनेक चिन्ताओं पर अपनी विजयपताका लहराने वाला प्रतापसिंह अब भी चिंतित है। अब उसकी चिन्ताएँ पहले वाली चिंताओं से कुछ भिन्न प्रकार की हैं। यादवेन्द्र के राजनीति में आने पर वह चिन्तित था कि खर्च बढ़ गया और आय कम हो रही है। यादवेन्द्र ने जब इस चिंता का समाधान कर दिया तो नई चिंता उठ खड़ी हुई कि कमाई का तरीका गलत है, इसमें सज़ा होने का खतरा है, मगर यादवेन्द्र इसके समाधान हेतु तर्क दे चुका है कि मंत्री जी की छत्रच्छाया में कुछ भी गलत नही होगा। प्रतापसिंह का दिल भले इससे सन्तुष्ट न हो, मगर उसे सांत्वना जरूर मिल गई है। इसके साथ ही एक और चिंता है और वह है छोटे परिवार को थोड़ा बढ़ाने की। 'लड़का बड़ा होता जा रहा है' यह बात प्रतापसिंह के दिमाग में घूमती रहती है। रजवंत को भी डर है कि कहीं वह बेटे की शादी देखे बिना ही परलोक गमन न कर जाए। वैसे रिश्ते तो कई आ रहे हैं लेकिन संयोग नहीं मिल रहा। किसी का तो स्तर उनके स्तर से नहीं मिलता तो किसी की लड़की कम सुन्दर है। बड़ी मुश्किल के बाद उन्हें एक ऐसा रिश्ता आया है जो दोनों शर्ते पूरी करता है। पड़ोस के गाँव का ही महेन्द्रसिंह है, जो प्रतापसिंह का समधी बनने वाला है । लगभग चालीस एकड़ जमीन का मालिक है। एक बेटी और एक बेटा है। बेटा पंद्रह वर्स्ष का है और बेटी की उम्र उन्नीस वर्ष है। लम्बे कद, छरहरे शरीर, काली बड़ी-बड़ी ऑंखों और शर्म से लाल हुए गालों की रंगत ने यादवेन्द्र को हाँ कहने के लिए विवश कर दिया है। शक्ल सूरत तो लड़के ने खुद देख ली है और लड़की के गुणों की तारीफ घरवालों द्वारा बताई जा रही है। लड़की की माँ कह रही है कि यह घर का सारा काम जानती है। जिस भी काम को यह पकड़ती है, वह सीधा ही पड़ता है।
दहेज के लेन-देन की बात प्रतापसिंह हर रिश्ते वालों से किया करता था, मगर इस बार वह चुप है। लड़की के पिता के पूछने पर कहता है, हमें तो लड़की तीन कपड़ों में भी स्वीकार है, आपने अपनी बेटी को जो देना हो उससे हम रोकते नहीं। इस उदारता का कारण यह है कि लड़की अमीर बाप की इकलौती बेटी है। प्रत्येक बाप अपनी बेटी की शादी पर सामर्थ्य के अनुसार दहेज देता ही है और कई बार तो सामर्थ्य से बढ़कर खर्च करने की कोशिश की जाती है ताकि ससुराल में बेटी की इज्जत हो। ससुराल में ईज्जत होना-न-होना तो अलग बात है मगर ऐसी धारणा माँ-बाप के दिल में रहती अवश्य है। यह धारणा महेन्द्र सिंह के दिल में भी होगी, इसमें कोई शक नहीं और उसका सामर्थ्य कितना है, यह प्रतापसिंह पहचान चुका है। महेन्द्रसिह प्रतापसिंह के जबाब से सन्तुष्ट नहीं, बोला, "यह तो आप जानते ही हैं कि मैं अपनी लड़की को ऐसे विदा नहीं कर सकता, इसीलिए आपसे पूछ रहा हूँ कि आप साफ-साफ बता दें कि हम कौन-कौन सी चीजें दहेज में दें।
"जो आपकी इच्छा, यह हमारी सिरदर्दी नहीं है, हमें तो बस बहू चाहिए थी, वह हमें पसन्द है।"
"यह तो ठीक है मगर कई बार ऐसा होता है कि वही सामान शादी में दे दिया जाता है, जो पहले से ही घर पड़ा होता है, इसलिए आप सामान बता दें तो अच्छा है।"
"मैं आपको इस बात से तो सहमत हूँ मगर माँगना मुझे अच्छा नहीं लगता।"
"इसमें मांगने वाली कौन सी बात है, यह तो प्रथा है। मैं आपको बता दूँ कि मैं रमण की शादी पर 25 से 30 लाख लगाने का अन्दाजा रखता हूँ। आप इसमें से अपनी जरूरत का सामान बता दें, बाकी के गहनें बनवा दिए जाएँगे। गाड़ी कौन-सी लेनी है, वह बता दें या फिर गाड़ी के लिए नकद ले लें। यदि सामान की बजाए नकद चाहिए तो वह भी बता दें।
"अजी कैसी बात करते हो, नकद लेने को हमने कोई सौदा तो किया नहीं, रिश्ता जोड़ा है। यहाँ तक सामान खरीदने की बात है, हम तो ठहरे पुराने जमाने के आदमी। नए जमाने की चीजें खरीद कर आप दे देना, हम नहीं पड़ेंगे खरीदा-खरादी के चक्कर में।
"चलो जैसी आपकी इच्छा।"
जलपान का प्रबन्ध किया हुआ था। सभी ने खाना खाया और इधर उधर की बातें करके विदा हुए। शादी की तारीख भी तय हो गई मगर प्रतापसिंह को अभी भी डर था। रिश्ता पक्का होने के बाद तोड़ना तो लड़की वालों की बदनामी का द्योतक है, फिर भी प्रतापसिंह डरता था कि कहीं उन्हें उनके धंधे का पता न चल जाए। यादवेन्द्र का व्यवसाय पूरे शबाब पर था और इसके बारे में लोगों को पता न होगा, ऐसी बात सोचनी खुद को अंधेरे में रखने के सिवा और कुछ न था, फिर भी लड़की वालों ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। क्यों नहीं की, राम जाने। इसका कारण धन-दौलत और इलाके में यादवेंद्र की प्रतिष्ठा भी हो सकती है, क्योंकि धन और प्रतिष्ठा वे आवरण हैं, जो हर बुराई को अपने भीतर छुपा लेते हैं। व्यवसाय प्रधान इस समाज में व्यक्ति की स्थिति उसके धन द्वारा निर्धारित होती है। व्यक्ति कैसा है, यह सब तो धन से छुप जाता ही है, यह भी छुप जाता है कि यह धन आया कहाँ से । दिखाई देता है, तो सिर्फ 'धन।

क्रमशः