Yugantar - 11 in Hindi Moral Stories by Dilbag Singh Virk books and stories PDF | युगांतर - भाग 11 युगांतर - भाग 11 324 696 राजनीतिज्ञों की जिन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण चीज है चुनाव। राजनीतिज्ञ चाहे छोटा हो या बड़ा, चुनाव के समय हर खुशी, हर गम को भूल जाया करता है। चुनावों के दिनों में सोते जागते बस यही एक बात ध्यान में रहती है कि कैसे जीता जाए, कैसे वोट हासिल किए जाए। तिकड़मबाजी के इस क्षेत्र में अपना कौशल दिखाने का समय फिर आ गया है। यादवेन्द्र अपने माँ-बाप की मृत्यु के गम को भुलाकर चुनावों के लिए प्रचार अभियान में जुट गया। उनकी सरकार ने पाँच वर्ष तक राज्य चलाया था। पहले चार वर्ष तो सरकार वालों ने अपने घर भरे थे और अन्तिम वर्ष जनता को भी हलवे का स्वाद चखाया था और वादा किया था कि अगर एक बार फिर आप हमें जिता दें तो इस बार आपको भर पेट हलवा खिलाया जाएगा और जनता भी इस शक में थी कि इन लोगों ने अपने पेट तो भर लिए हैं, अब तो हमारी ही बारी है। इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी थी कि अगर कोई दूसरी पार्टी वाले सत्ता में आए तो वे भी पहले अपना पेट भरेंगे फिर हमारा। ऐसी स्थिति में लोगों ने सोचा कि पुरानी पार्टी अर्थात 'जन उद्धार संघ' को ही जनता का उद्धार करने का मौका दिया जाए। जनता का यह आदेश सभी ने सिर आँखों लिया। पिछली बार तो उनको बहुमत के लिए एक पार्टी का सहयोग लेना पड़ा था, जबकि इस बार पार्टी बहुमत के साथ सता में आई। यादवेंद्र का दोस्त शंभू जीतकर पुनः विधानसभा पहुँचा और उसे लाल बत्ती वाली कार पाने का मौका फिर मिला। शंभू के दोबारा मंत्री बन जाने पर यादवेन्द्र पूर्णतः भयमुक्त हो गया। वह लोकतन्त्र की प्रणाली को भी निजी जागीर समझ बैठा। उसे लगा यह तो आसान सा काम है और इस आसान से काम में शंभू हर बार जीतता रहेगा और मैं उसकी जीत को भुनाता रहूँगा। उसकी इस सोच ने परिस्थितियों को बदल डाला। वैसे परिस्थितियों ही इस संसार की सबसे बड़ी शक्ति है । ये शासक हैं और सारा संसार इन्हीं के अनुसार आचरण करता है। कोई व्यक्ति कैसा व्यवहार करेगा, किसी का चरित्र कैसा होगा, यह सब परिस्थितियों पर ही निर्भर करता है। यादवेन्द्र भी हर इंसान की तरह परिस्थितियों का गुलाम है। वह तो कठपुतली की तरह इनके इशारों पर नाच रहा है। कॉलेज में प्रवेश करते समय वह साधारण-सा लड़का था, जो अपने आप तक सीमित था। स्कूली जीवन के बाद अनुशासन मुक्त होकर वह उद्दंड तो हो गया था, मगर उसे राजनीति की तरफ लाया शंभू जैसे कुछ सीनियर दोस्तों ने। कॉलेज की राजनीति में आने के बाद वह दिनो-दिन बदलता चला गया। संघर्ष उसके जीवन का अंग बन गया और संघर्ष तो वह तत्व है, जो प्रत्येक चरित्र को उज्ज्वल बना देता है, जो कच्चे हीरों को तराशता है। यादवेन्द्र भी इसी संघर्ष की बदौलत, तराशने की इसी प्रक्रिया की बदौलत चमका था । सफलता के कई मुकाम उसने पा लिए थे । भले ही वह अभी तक इस स्थिति तक नहीं पहुँचा था कि उसे टिकट मिले और ऐसी कोई संभावना भी नहीं थी, लेकिन आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में उसने अपनी पहचान बना ली थी। सामाजिक स्थिति तो इन दो क्षेत्रों में पहचान बनने के कारण खुद-ब-खुद बन गई थी, मगर सफलता और संघर्ष का साथ-साथ रहना वैसे ही है, जैसे एक म्यान में दो तलवारों का रहना। सफलता के मुकाम पर पहुंचते ही संघर्ष का अंत हो जाता है और संघर्ष के अंत होने का अर्थ है, चरित्र के एक महत्वपूर्ण तत्व का खो जाना । यादवेन्द्र अपने आप को सफल समझता है और सफल व्यक्ति का ऐय्याश होना कोई बड़ी बात, क्योंकि सफ़लता ऐय्याशी की जन्मदात्री हैं। यादवेन्द्र की ऐय्याशी के दो कारण हैं। पहला उसका अपनी पत्नी के साथ संबन्ध उतने मधुर नहीं, जितना घर को मंदिर बनाने के लिए होने चाहिए। ऐसा नहीं कि उनके बीच झगड़ा होता हो, लेकिन दोनों के दरम्यान एक चुप पसर गई है और यह चुप्पी यहाँ लड़ाई नहीं होने देती, वहीं इसने संबंधों को मधुर बनने के अवसर भी छीन लिए हैं। दूसरा कारण है कि वह अपना अधिकतर समय पार्टी के कार्यालय में ही बिताता है। यह दूसरा कारण कहीं-न-कहीं पहले कारण का परिणाम ही है। गाँव तो वह रात बिताने के लिए जाता है, कई बार तो वह दो-तीन दिनों के बाद ही चक्कर लगाता है। रमन पूछती तो उत्तर तैयार मिलता, पार्टी के काम अधिक हैं। धीरे-धीरे रमन ने पूछना कम कर दिया। वह बड़ी हवेली में बेटे यशवंत के साथ रहने को बाध्य है। शुरु-शुरु में उसे डर लगा, लेकिन फिर उसने धार्मिक साहित्य को पढ़ना शुरु कर दिया, इसने यहाँ उसके डर से उसे मुक्ति दिलवाई, वहीं उसके स्वभाव में भी बदलाव लाना शुरु कर दिया। हर चीज से उसे विरक्ति होने लगी और इसने पति-पत्नी के बीच व्याप्त चुप की खाई को और गहरा कर दिया। उधर यादवेंद्र पार्टी के कार्यों में जनता की दुख तकलीफें सुना करता था और उनका निवारण करने का भी प्रयास करता था। उसका वास्ता रोज ही मुसीबतों में फंसे दीन लोगों से होता था। इंसानियत के नाते दीन लोगों का शोषण करना उचित नहीं, मगर नेता इंसान बाद में होता है, पहले नेता होता है। यादवेन्द्र कोई बड़ा नेता नहीं था, इसलिए उसकी नेतागिरी का कद भी आसमां की बुलन्दियों को छूने वाला न था। शायद इसी कारण उसमें थोड़ी इन्सानियता थी, जिसकी बदौलत वह सिर्फ़ उन्हीं की दीनता का शोषण करता था, जो वास्तव में दीन न होकर दीनता का दिखावा करते थे या जो अपनी दीनता के बल पर किसी और को अपनी ऊँगली पर नचाना चाहते थे। इन दिनों उसकी मुलाकात एक ऐसी ही औरत से हुई; उसका नाम था शांति और वह 'क्रांति' लाने की सोच रखती थी। वैसे 'क्रान्ति' का आदर्श बहुत ऊँचा होता है, मगर वह पहाड़ के तले को ही शिखर समझती थी और अपनी इसी भ्रान्ति के कारण उथल-पुथल पैदा करना उसकी क्रान्ति थी। उसके पास गोरा रंग, सामान्य सा कद, कटे हुए बाल, नीलिमा युक्त बड़ी-बड़ी आंखें थी। देवनागरी के चार अंक जैसी साँचे में ढली देह के साथ-साथ पुरुषो को अपनी ओर खींच लेने वाली कुछ मनमोहक अदाएँ भी उसके पास थीं। उसका लावण्य उमड़ता सागर था, जिसमें हर पुरुष डुबकी लगाने के लिए ललचाई निगाहों से उसे देखता था। वह खुद भी अपनी देह का महत्त्व जानती थी और इसे सीढ़ी बनाकर वह मंजिल के शिखर तक पहुँचना चाहती थी। क्रमशः ‹ Previous Chapterयुगांतर - भाग 10 › Next Chapterयुगांतर - भाग 12 Download Our App Rate & Review Send Review Be the first to write a Review! More Interesting Options Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Dilbag Singh Virk Follow Novel by Dilbag Singh Virk in Hindi Moral Stories Total Episodes : 25 Share You May Also Like युगांतर - भाग 1 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 2 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 3 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 4 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 5 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 6 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 7 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 8 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 9 by Dilbag Singh Virk युगांतर - भाग 10 by Dilbag Singh Virk