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झोपड़ी - 8 - मंदिर गांव का

दादा जी को अपने भजन -पूजन से जब टाइम मिलता तो वह गांव में घूमने निकल जाते। गांव में एक किनारे पर एक सुरम्य स्थल था। वहां एक पुराना टूटा -फूटा शिव का मंदिर था। दादाजी के पास अब काफी रुपए इकट्ठे हो गए थे। इसलिए उनको खुजली होने लग गई थी कि इतने सारे रुपए कहां खर्च करें। तो दादाजी ने इस शिव मंदिर का पुनर्निर्माण करने की ठानी। उन्होंने अपना विचार मुझे बताया। मैं समझ गया कि दादाजी की नजर शिव के मंदिर पर ही है। अब वह उसको ठीक करके ही मानेंगे। मैंने सारे गांव में इसका प्रचार -प्रसार कर दिया। अमीर- गरीब सब ने अपनी इच्छा अनुसार चंदा दिया। अब तो दादाजी के पास और भी ज्यादा धन हो गया। हमने दादा जी को ही मंदिर- समिति का अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष बना दिया। मैंने भी अपने हिसाब से कुछ पैसे चंदे में दिए।


अब हमने सबसे पहले एक अच्छे इंजीनियर से मंदिर के पुन: निर्माण की बात की। इंजीनियर ने काफी दिनों की मेहनत के बाद एक अच्छा सा नक्शा हमें दिया। हम सबको यह नक्शा बहुत पसंद आया। नया मंदिर बहुत विशाल और भव्य था। इसके बाद हमने आसपास की जमीन देखी तो मंदिर के पास काफी जमीन थी। लेकिन हमें यह पर्याप्त नहीं लगी। इसके बाद हमने अगल-बगल काफी जगह और साफ करवाई। अब मंदिर के पास काफी जगह हो गई। इसके बाद मंदिर का पुनर्निर्माण शुरू हो गया। जमीन का समतलीकरण और सुंदरीकरण भी हुआ। कुछ ही दिनों में मंदिर बनकर तैयार हो गया। यह बड़ा भव्य और विशाल मंदिर था। शुभ मुहूर्त में मंदिर का उद्घाटन किया गया। दूर-दूर से लोग इस मंदिर को देखने आए। इस इलाके में ऐसा भव्य शिव मंदिर और कोई नहीं था। सब बड़े प्रसन्न हुए।

मंदिर के चारों तरफ बगीचा बनाया गया। जो कि बहुत सुंदर था। मंदिर के चारों तरफ एक लंबा -चौड़ा कॉरिडोर भी बनाया गया। बिल्कुल काशी विश्वनाथ मंदिर के कॉरिडोर की तर्ज पर। अपने पुन:निर्माण के बाद रोज मंदिर में पूजन वगैरह होने लगा।
मंदिर के पास एक बहुमंजिला आवास भी बनाया गया। जिसमें कुछ साधु-संतों को रखा गया। यह साधु -संत रोज मंदिर में पूजा पाठ वगैरह करने लगे।

साधु- संतों को भिक्षा मांगना ना पड़े। इसके लिए कुछ किसानों ने मंदिर के आसपास अपनी उपजाऊ जमीन भी मंदिर को दान में दी। मैंने भी एक बड़ा सा खेत मंदिर में दान में दिया। दादाजी की भी मंदिर के आसपास जो जमीन थी वह भी उन्होंने मंदिर को भेंट में दे दी। अब साधु-संतों और आगंतुकों के लिए भोजन की अच्छी व्यवस्था हो गई। लेकिन अभी सबको एक कमी मंदिर में लग रही थी, वह थी पाठशाला और गौशाला की। तो बचे हुए पैसों से वहां एक भव्य पाठशाला और भव्य गौशाला भी बना दी गई। गौशाला में उन्नत नस्ल की गायें लाई गई। पाठशाला का स्टैंडर्ड विश्वस्तरीय लिए रखा गया। इसमें आधुनिक और प्राचीन ज्ञान की शिक्षा दी जाने लगी। इस तरह से हमारा गांव और भी विकसित होता जा रहा था। आध्यात्मिक और भौतिक दोनों रूपों में।


अब गांव में भूले -भटके कोई बाहर का मुसाफिर आ जाता तो वह मंदिर की धर्मशाला में ही ठहराया जाता और कुछ दिनों तक उसकी मुफ्त में आओभगत और खान-पान का ध्यान रखा जाता। अगर वह बेरोजगार होता तो उसे कोई रोजगार प्रदान किया जाता। अगर वह विद्या का जिज्ञासु होता तो उसे एक पाठशाला ले जाया जाता। अगर वह भगवान का भक्त होता तो उसे भगवान की भक्ति करने दी जाती और निशुल्क धर्मशाला में रखा जाता। मंदिर की रक्षा के लिए कुछ सिक्योरिटी गार्ड भी रखे गए। जो आधुनिक समय की जरूरत है।


मंदिर के बगल में अब एक भव्य वैद्यशाला भी बनाई गई। इसमें अच्छे-अच्छे वैद्यों को टीचर के रूप में रखा गया। यह वेद्य टीचिंग का काम भी करते और गांव वालों का मुफ्त में इलाज भी करते। बाहर से भी कोई व्यक्ति आता तो उसका भी मुफ्त इलाज करते। इस प्रकार मंदिर परिसर एक स्वच्छ सतयुग वाला बैकुंठ धाम जैसा ही बन गया।


मंदिर में एक मुख्य पुजारी की नियुक्ति हुई। जो इन सभी प्रतिष्ठानों की देखरेख और मंदिर में पूजा करता था। इस मंदिर के बनने से गांव में आध्यात्म का बहुत ही ज्यादा जोर पकड़ता जा रहा था। दूर-दूर के गांव और शहरों तक हमारे गांव की प्रसिद्धि फैलती जा रही थी। अन्य गांव भी और यहां तक शहर भी हमारे गांव जैसा ही अपने क्षेत्र को करने की कोशिश कर रहे थे।


हमारे गांव के बच्चे हालांकि बहुत प्रतिभाशाली थे। लेकिन उन्हें बड़े-बड़े प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए दिल्ली, देहरादून आदि जाना पड़ता था। इसलिए मैंने गांव में एक खाली जगह देखकर वहां एक बहुत बड़ा कोचिंग इंस्टीट्यूट की बिल्डिंग का निर्माण कार्य शुरू किया। कुछ ही दिनों में कोचिंग इंस्टिट्यूट की आलीशान बिल्डिंग बन गई। अब मैंने दूर-दूर से अच्छे-अच्छे टीचर कोचिंग में पढ़ाने के लिए नियुक्त किये। मैंने उनकी सलरी अच्छी- खासी रखी थी, इसलिए अच्छे अच्छे टीचर यहां आए थे। इन टीचरों के मार्गदर्शन में कुछ ही दिनों में हमारे गांव के बच्चे बड़ी-बड़ी प्रतियोगिता परीक्षाओं में भी क्वालीफाई करने लगे और बड़े-बड़े अफसर बनने लगे।


इस प्रकार दादाजी और मैंने अपनी पूरी शारीरिक- मानसिक और आर्थिक शक्ति गांव के विकास में लगा दी। इस महान कार्य में गांव वासियों ने भी हमारा पूरा -पूरा सहयोग दिया। सचमुच ऐसे गांव और ऐसे गांव वासी मिलना हमारे नसीब में था, इसलिए हमें ऐसे श्रेष्ठ लोग मिले। इस प्रकार मिलजुल कर हमने अपने गांव का विकास किया। आस-पास के गांव में हमारी धाक जम गई। अब हमने अपने गांव में एक खेल महाविद्यालय भी खोला। जहां दूर-दूर के गांव के बच्चे भी पढ़ने के लिए आने लगे।

अब कुछ दिन के लिए हमने नये संस्थान खोलने पर रोक लगा दी। अब हम अपने गांव की कुछ इनकम का कुछ भाग खोले गए प्रतिष्ठानों को स्तरीय बनाने में लगाने लगे। कुछ ही दिनों में हमारे सभी प्रतिष्ठान विश्वस्तरीय बन गए। यह देखकर सरकार ने भी हमें कई पुरस्कार दिए और हमारी प्रधानमंत्री जी ने हमारे प्रयासों की बहुत-बहुत प्रशंसा की। समाचार पत्रों ने भी हमारे गांव और गांव वासियों की पूरी पूरी प्रशंसा की और हमारे गांव को एक विश्वस्तरीय और आदर्श ग्राम घोषित किया।