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कैसा है चित्रकथाओं का चक्रव्यूह ?

कैसा है चित्रकथाओं का चक्रव्यूह ?

 

यशवंत कोठोरी

 

कुछ स्कूलों में छुट्टियां चल रही है तो कुछ स्कूलों में नया सत्र प्रारम्भ होने के बाद छुट्टयां होने को हैं। छुट्टियां होते ही बच्चे बिल्कुल खाली हो जाते हैं। ऐसे में बच्चे, किशोर और यहां तक कि युवा और बुजुर्ग तक भी खाली समय में कॉमिक्स पढ़ते हैं। चित्र कथाओं का आनन्द लेते हैं और समय गुजारने के लिए शुरू किया गया यह पढ़ना धीरे धीरे एक आदत, एक नशा सा बन जाता है। आजकल हर गली मोहल्लों में बच्चे को कॉमिक्स किराये पर देने के लिए एक आध दुकान, अवश्य खुल गई हैं। जो बच्चे नई कॉमिक्स नहीं खरीद सकते, वे पुरानी कॉमिक्स किराए पर लेकर पढ़ते हैं। इससे खर्च भी कम आता है, कई बार कई बच्चे मिलकर कॉमिक्स किराये पर ले आते हैं और दिन भर सभी मिलकर पढ़ लेते हैं। अखबारों, पत्रिकाओं में भी एक चित्र-कथा अवश्य होती है। टी.वी. के विस्तार के बाद भी कॉमिक्स को पढ़ने की इच्छा बरकरार है, इसका कारण है, उनमें कम शब्दों में ज्यादा बात होती है। भयानक, जासूसी, डरावनी, फैन्टेसी, विलेन आदि की चित्र कथाओं के तो कहने ही क्या लाखों की संख्या में धड़ल्ले से बिक रही हैं और पूरी की पूरी नई पीढ़ी को अपने शिकंजे में कस चुकी हैं।

 

        हम शैतान है, खूनी दानव, जादूगर कोबरा, महाबली, सूपर बाय,आदि ऐसे शीर्षक है जो कॉमिक्स की दुनिया में छाए हुए हैं। आदर्शवादी, स्तरीय धार्मिक, पौराणिक या जीवनी वाली कॉमिक्स बच्चे नहीं पढ़ना चाहते। वे तो फंतासी की कल्पना वाली, डरावनी रहस्य रोमांच से भरपूर कॉमिक्स पढ़ पढ़ कर अपना समय व्यतीत करना चाहते हैं। अपने आस पास नजर दौड़ाइए। यदि बच्चे दूरदर्शन नहीं देख रहें है तो निश्चित हि कॉमिक्स पढ़ रहे हैं, क्योंकि अब पारम्परिक खेलों में उनका मन ही नहीं रमता। प्रकाशकों के क्या कहने, रोज नई चित्रकथाओं को लेकर वयावसायिक होड़ के साथ प्रकाशक बाजार में छा रहे है। मगर पैसा कमाने की अंधी दौड़ में शामिल होकर रेस जीतने की इच्छा किसे नहीं होती। अब हमारे बच्चे, अंध विश्वास, अतिमानवों के कारनामें हिंसा, मारपीट और अश्लीलता सीख रहं है। और यह सब चित्रकथाओं के माध्यम से हो रहा है।

 

कुछ बच्चों से बात करने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे कॉमिक्स केवल मनोरंजन और समय गुजारने के लिए पढ़ रहे हैं, मगर धीरे धीरे उनके बाल मन पर कच्चे और अविकसित दिमाग पर हिंसा, बलात्कार, मारपीट, रहस्य, रोमांस, डरावनी स्थितियों का स्पष्ट और स्थाई चित्रण हो जाता है। कुछ बच्चे सपनों में भी ये डरावने चित्र देखते हैं और डर जाते हैं।कुछ बच्चों के मन मस्तिष्क पर स्थाई रूप  से कॉमिक्स का प्रभाव हो जाता है। प्रकाशक सस्ते और घटिया रचनाओं को श्रेष्ठ कागज व विभिन्न रंगों में खूब सूरत ढंग से छाप कर बेच रहे हैं। ताकि अधिक पैसा बटोरा जा सके। चित्रकथाओं के कथानकों को यदि देखा जाए तो उनमें कल्पना के सहारे ऐसी उडानें भरी जाती हैं, जो बाल मन को प्रभावित करें। उसके सपनों को रंगीन बनाकर उसे यर्थाथ की जिन्दगी से बहुत दूर ले जाएं। कहानी में संदेश नहीं होता और यदि होता है तो बच्चे उसे पकड़ नहीं पाते हैं। कॉमिक्स हिन्दी में सबसे ज्यादा बिक रहेे हैं और अंग्रेजी के मुकाबले सस्ते भी हैं। कॉमिक्स के कारण बाल पत्रिकाओं का भविष्य अंधकारमय हो गया है। कुछ पत्रिकाएं बंद भी हो गई हैं।वास्तव में कॉमिक्स की शुरूआत भारत में 1980 के आसपास हुई। उस समय पौराणिक व आदर्शवादी चरित्रों को आधार बनाकर चित्रित किए गए कॉमिक्स बाजार में आए, मगर शीघ्र ही इन्द्रजाल कॉमिक्स जादूगर मेडेªक्स व अन्य पत्र आए और छा गए। उत्तेजक चरित्रों के कारण आदर्शवादी चित्रकथाएं बंद हो गई हैं। लेकिन कॉमिक्स के क्षेत्र में हास्य, व्यंग्य, को आधार बनाकर भी जो कॉमिक्स आए और चले।

 

बच्चों को लुभाने के लिए चित्रकथाओं के प्रकाशक कई प्रकार के ईनाम, लालच, लोभ भी दे रहे हैं। और बच्चे ही नहीं अभिभावक भी इसमें फंस रहे हैं। एक मध्यम वर्गीय गृहिणी के अनुसार बच्चों को कॉमिक्स दे दो, बस वे दिन भर चुपचाप कमरे में बैठकर पढ़ते रहते हैं, तंग नहीं करते। नहीं तो ये गर्मी के दिन बच्चे दिन भर उधम मचाते हैं। कॉमिक्स में भी फिल्मेंा की तरह ही खलनायक अर्थात् बुरे आदमी की आदतों को बच्चे सीखने की कोशिश कर रहंे हैं। कॉमिक्स पढ़ने के बाद बच्चा फंतासी की दुनिया में  खो जाता हैं, वो बार बार खलनायक की जगह स्वयं को रखकर कल्पना की उड़ानें भरता है। वह स्वयं को सुपर बाय समझने लगता हैं। लेकिन क्या बच्चों को चित्र कथाओं से दूर रखा जा सकता है ? शायद नहीं, क्योंकि या तो बच्चा स्वयं निर्णय ले लेता है या माता - पिता के पास समय नहीं हो, टी.वी., विडियो, खेल शायद ज्यादा महंगे हैं और आसानी से उपलब्ध नहीं है। बच्चों को किराए पर सस्ते कॉमिक्स मिल जाते हैं और वे इन्हंे पढ़ने लग जाते हैं। बच्चों को अगर अच्छी पुस्तकें सस्ते मूल्ये पर उपलब्ध हो तो शायद बच्चे कॉमिक्स के बजाय बाल साहित्य पढ़े। मगर बच्चेंा के मनोविज्ञान को समझकर अच्छी और उपयोगी पुस्तकों को प्रकाशन और उन्हें कम मूल्य पर बच्चों को उपलब्ध कराना आसान काम नहीं है।

 

चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट व अन्य संस्थाओं के प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। बच्चों तक बाल साहित्य की पहुंच ही नहीं है। प्रकाशकों, लेखकों, बाल साहित्य संस्थाओं, सामाजिक संस्थाओं और अभिभावकों सबको मिलकर अपने बच्चों को चित्र कथाओं के रहस्य लोक से निकालने के लिए गम्भीर प्रयास करने होंगे। आपका बच्चा समाज में स्वयं को उपेक्षित महसूस करता है। वह स्वयं की पहचान के लिए कॉमिक्स के पात्र के साथ अपना तादात्म्य स्थापित करता है। सरकार, बाल साहित्य और वीडियो सभी को मिलकर बच्चों को पहचान देने की कोशिश करनी चाहिए। यदि कॉमिक्स स्वस्थ, मनोरंजन, हास परिहास से पूर्ण हो तो ठीक है, मगर डरावने, खौफनाक, हिंसात्मक प्रवृति के कॉमिक्स से बच्चों को बचाने के लिए गम्भीर प्रयासों की आवश्यकता है। बच्चे अपनी बचत तक को हल्के कॉमिक्स खरीदने में जाया कर देते हैं। उन्हें रोका जाना चाहिए। सच पूछा जाए तो कॉमिक्स का नशा अफीम की तरह है और यदि इस वृत्ति को रोकने के प्रयास नहीं हुए तो शायद परिणाम गम्भीर होंगे। अभिभावकों को बच्चों को कॉमिक्स देते समय उसके स्तर की तरफ ध्यान देना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि कॉमिक्स पढ़ते पढ़ते बच्चा स्वयं को कॉमिक्स के हीरो की तरह समझ बैठे और उसके बाल मन पर गलत मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़े।

 

चित्र कथाओं के प्रकाशकों, लेखकों का भी दायित्व है, वे करोड़ से अरबपति बनें मगर एक पूरी पीढी के संस्कारों को भी सुधारें। चित्रकथाएं विदेशों से भारत में आई हैं, वहां एक एक चित्र पच्चीसों अखबारों में एक साथ छपकर बाजार पर छा जाते हैं। भारत में भी पुस्तककार चित्रकथाओं का बड़ा जोर है। और आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों तक सही चित्रकथाएं सही ढ़ंग से प्रस्तुत की जाएं ताकि बच्चों को शुद्ध मानसिक भोजन मिल सकें।

 

 

 

 

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यशवन्त कोठारी

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