Shivaji Maharaj the Greatest - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट - 20

[ शिवाजी महाराज और गुलामी की प्रथा ]

गुलामी का प्रारंभ
मुसलिम गुलामी के स्पष्ट एवं विस्तृत उल्लेख उन कागजात में मिलते हैं, जो मोहम्मद गजनी के भारत पर आक्रमण के साथ ताल्लुक रखते हैं। गजनी ने 11वीं शताब्दी में भारत को रौंदना शुरू किया था। उसका जो आक्रमण सन् 1024 में हुआ, उसमें उसने अजमेर, नेहरवाल, काठियावाड़ एवं सोमनाथ के मंदिर का विध्वंस किया, साथ ही उसने एक लाख से अधिक हिंदुओं को गुलाम भी बनाया।
इन गुलामों को मजदूरों की तरह जोता गया, ताकि उन प्रचंड इमारतों का निर्माण हो, जिनसे मुसलिमों के शासन की पहचान बनी। दिल्ली की कुतुबमीनार इसका उदाहरण है। गुलाम घराने के सम्राट् कुतुबुद्दीन ने सन् 1206 में दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। अपनी विजय के स्मारक के रूप में उसने इस मीनार का कार्य हिंदू गुलामों से करवाया। मुसलिम शासक भारत में जगह-जगह विशाल इमारतें बनवाते रहे। कुतुबमीनार मुसलिमों का प्रथम निर्माण कार्य था।
अरब, तुर्क एवं अफगान आक्रमणों के दौरान मध्य एशिया के गुलामों के बाजार में भारतीय गुलामों की भारी माँग थी। बढ़ती हुई माँग की पूर्ति भी कर दी जाती थी। मुसलिम शासक इन गुलामों को अपनी फौज में भरती कर उन्हें भीषण लड़ाइयों में झोंक दिया करते। उनके गुलामों की तादाद ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती, त्यों-त्यों उनकी विजय सुनिश्चित होती जाती। इस संदर्भ में पर्शियन इतिहासकार फरिश्ता ने लिखा है—
‘महमूद गजनी ने सन् 1024 में थानेसर जीतने के बाद 2 लाख हिंदुओं को कैद कर गजनी भेज दिया, साथ में वह अकूत संपत्ति भी लेकर गया। नतीजा यह रहा कि गजनी किसी भारतीय शहर जैसा ही लगने लगा! छोटे-से-छोटा इसलामी सैनिक भी धनवान हो गया। शासकों की तरह सैनिकों ने भी हिंदू गुलामों को अपने साथ रखना और इसका गौरव लेना शुरू कर दिया।’
इसके बाद सुलतान इब्राहिम ने वायव्य भारत के मुलतान पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में उसने एक लाख हिंदुओं को कैद कर उनसे गुलामी करवाई। दिल्ली की तुर्क-अफगान सुलतानशाही की गुलामगीरी से गुलाम घराने का प्रादुर्भाव हुआ। इस गुलाम घराने के सुलतान बलबन (सन् 1266-87) एवं सुलतान अलाउद्दीन खिलजी (सन् 1296-1316) ने ऐलान किया कि जो कर नहीं भर सकता, उसे कानूनन गुलाम बनाया जा सकता है। ऐतिहासिक ग्रंथों में इस ऐलान का वर्णन किया गया है।
भारतीय गुलामों का अंतरराष्ट्रीय बाजारों में निर्यात निर्बाध चलता रहा। सामान्य प्रजा को तो गुलाम बनाकर रख लिया जाता था, अत्यंत कुशल कारीगरों को भी बख्शा नहीं जाता था। भारतीय बुनकरों की अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जबरदस्त माँग थी। उन्हें भारी तादाद में गुलाम बनाकर ले जाया गया।
दिल्ली को लूटने के बाद तैमूरलंग ने हजारों कारीगरों को कैद करके उन्हें गुलाम बनाया। भवन निर्माण के कार्य में कुशल गुलाम कारीगरों को अलग छाँटकर समरकंद भेजा गया।
गुलामों की खरीद-फरोख्त में कारीगरों की बजाय युवा स्त्रियों को अधिक दामों में खरीदा जाता था। कभी-कभी 50 प्रतिशत अधिक भाव होता था । मुहम्मद बिन कासिम ने जिस समय सिंध पर आक्रमण किया था, उस समय खलीफा ही मुसलिम धर्म का कर्ता-धर्ता था । जिनको भी कैद किया जाता, उन्हें सबसे पहले खलीफा के पास भेज दिया जाता।
‘चचनामा’ के लेखक कुफी ने इस प्रकार वर्णन किया है—
'पूरी लूट की 80 प्रतिशत संपत्ति पर सैनिकों का हक होता था। बची हुई संपत्ति एवं गुलामों को इराक के सूबेदार हज्जाज के पास भेज दिया जाता था। इसके बाद उन्हें खलीफा के पास भेजा जाता था।
तैमूरलंग ने सन् 1399 में भारत पर आक्रमण किया और भारी संख्या में हिंदुओं को कैदी बनाया। उसने स्वयं लिखा है—
‘अपने-अपने क्षेत्र में कुशल कारीगरों को चुनकर उन्हें दूसरे कैदियों से अलग रखा जाए, ऐसा हुक्म मैंने दिया। इस प्रकार हजारों कारीगरों को अलग किया गया। जो राजकुमार और सरदार मेरे सामने मौजूद थे, वे कारीगर उन्हीं के हवाले कर दिए गए। ऐसा मेरे हुक्म से किया गया। मैंने पक्का फैसला कर रखा था कि समरकंद में एक ऐसी बेजोड़ मसजिद बनाई जाए कि संसार की दूसरी कोई मसजिद उसकी बराबरी न कर सके। यह मेरा जाती मामला है। इसीलिए मैंने हुक्म दिया कि भवन निर्माण के तमाम कारीगरों और शिल्पकारों को चुनकर अलग निकाला जाए।’
घोड़ों, गुलामों और जानवरों की बिक्री संबंधी नियमों को इसलामी इतिहासकार जियाउद्दीन बरानी ने एक ही समूह में शामिल किया है। जाहिर है, हयुजीस और जानवरों में कोई फर्क नहीं किया जाता था।
'हिदाया' का हवाला देते हुए अंग्रेजी इतिहासकार टी. पी. न्यूजिस ने कहा है कि गुलाम पुरुष हो या स्त्री, उसे बेचने की वस्तु समझकर ही व्यवहार किया जाता था। जानवरों और गुलामों को एक ही मापदंड से मापा जाता था। दुधारू भैंस की कीमत 10-12 टाँक (तत्कालीन सिक्का) होती थी। घोड़े की कीमत 90 से 120 टाँक लगाई जाती थी। गुलाम 100 टाँक में सरलता से खरीदा जा सकता था। 20 या 30 प्रतिशत अधिक देने पर तरुण मिल जाते थे। तरुणियों का मूल्य इससे अधिक होता था। तसल्ली की बात अगर कोई थी, तो यही थी कि खिलजी सुलतान के शासन में इनसान की कीमत गाय, बैल या घोड़े से कम नहीं थी।’
इसलामी संस्कृति में पुरुष गुलामों को खस्सी कर देने की प्रथा थी। अफ्रीका के अनेक शहर पुरुष गुलामों को खस्सी करने के कारखानों जैसे थे। खस्सीकरण की प्रक्रिया देहाती थी। इस कारण 75 प्रतिशत पुरुष गुलामों की मौत हो जाती थी। जाहिर था कि शेष बचे 25 प्रतिशत गुलामों के दाम आसमान पर पहुँच जाते थे।
भारत के उत्तर में 'हिंदूकुश' पर्वत है। इस पर्वत को पार करते समय लाखों हिंदू गुलामों को अपने प्राण गँवाने पड़े थे। इससे पर्वत का नाम ही 'हिंदूकुश' पड़ गया, जिसका अर्थ है, 'हिंदुओं का हत्यारा'।

अमेरिका में गुलामी प्रथा का उद्भव
अमेरिका में गुलामी प्रथा की शुरुआत 16वीं शताब्दी में हुई। तब स्पेनिश एवं पुर्तगीज व्यापारियों ने पश्चिम अफ्रीका से जबरन पकड़कर उठा लिये गए स्त्री-पुरुषों को अमेरिका के बाजार में लाकर बेचना शुरू किया था ।
मध्य अमेरिका एवं कैरीबियन द्वीप में सोने की खदानों में काम करनेवाले स्थानीय अमेरिकियों के स्थान पर आयात किए गए अफ्रीकी गुलामों को काम पर लगाया जाता था। यह केवल प्रारंभ था।
अमेरिका में बड़ी संख्या में गुलाम शक्कर, कॉफी, तंबाकू, चावल और कपास की खेती के लिए लाए गए इन सस्ते मजदूरों के कारण पश्चिम यूरोप एवं अमेरिका की अर्थव्यवस्था के विकास में भारी सहायता मिली। इन्हीं गुलामों से काला परिश्रम करवाकर इन देशों ने विश्व में महत्त्व का स्थान प्राप्त किया। इसके लिए गुलामी प्रथा पर आधारित उनकी अर्थव्यवस्था ही मुख्य कारण थी। 18 वीं शताब्दी के प्रारंभ में ब्रिटिश एवं अमेरिकी व्यापारियों ने अधिक प्रमाण में गुलामों का आयात किया। अकेले लीवरपुल में तीन लाख गुलाम थे। न्यूयॉर्क, बोस्टन, चार्ल्सटन में भी बड़ी तादाद में गुलाम थे। ये गुलाम अफ्रीका से सीधे अमेरिका नहीं आते थे। अमेरिका से अफ्रीका लाई गई रम की बोतलों के बदले में इन गुलामों को खरीदा जाता था ! अफ्रीका से उन्हें शक्कर या कोको के बदले में वेस्टइंडीज भेज दिया जाता। वहाँ से यानी वेस्टइंडीज से, उन्हें अमेरिका को बेचा जाता था!
शुरुआती दौर में खेती करने या सब्जियाँ उगाने के काम में स्थानीय अमेरिकन लोगों को नौकरी पर रखा जाता था, किंतु समय बीतने के साथ उनकी जगह अफ्रीकन गुलामों को रखा जाने लगा। इसकी पहली वजह यह थी कि स्थानीय मजदूर अकसर भाग जाया करते थे। उन्हें खोजना आसान नहीं था। वे आसपास के गोरे लोगों में ऐसे घुल-मिल जाते कि पहचान में आते ही नहीं। दूसरी वजह यह थी कि अफ्रीकन गुलाम सीधे-सहमे रहते थे और मन लगाकर काम करते थे। वे हर कसौटी पर सस्ते ही पड़ते थे।
तीसरी वजह यह भी थी कि सन् 1793 में एली व्हिट ने कपास में से बीज निकालने की मशीन का आविष्कार किया । नतीजा यह कि बीज निकालकर साफ किए कपास का उत्पादन बेहद बढ़ गया । उत्पादन बढ़ा, तो मजदूरों की तादाद भी बढ़ानी पड़ी, साथ-साथ यह भी हुआ कि इंग्लैंड के लोग ऊन की बजाय कपास के कपड़े पहनना ज्यादा पसंद करने लगे। उन्होंने बीजरहित कपास अमेरिका से सीधे ही मँगवाना शुरू कर दिया। सन् 1790 से सन् 1810 के दौर में, यानी मुश्किल से 20 वर्ष में, अमेरिका से इंग्लैंड को आयात किए गए कपास के गट्ठों की तादाद 3 हजार से बढ़कर 2 लाख हो गई। इसी अनुपात से जब मजदूरों की तादाद बढ़ी, तो गोरे मजदूर जहाँ मुश्किल से ही मिल पाते, वहीं काले अफ्रीकी गुलाम चुटकियों में नियुक्त हो जाते। गुलामों की संख्या, जो सन् 1790 में 7 लाख थी, वह सन् 1860 में 40 लाख हो गई! मिसीसिपी और दक्षिण कैरोलीना में हालत यहाँ तक पहुँची कि सन् 1860 में इन शहरों
में आम नागरिकों की बनिस्बत गुलामों की तादाद ज्यादा हो चुकी थी!
गुलाम बहुत बदहाल जिंदगी जीते थे। छोटी-से-छोटी भूल के लिए उन्हें कठोरतम सजा दी जाती थी। लातें मार-मारकर अधमरा कर देना, खून से लथपथ हो जाने तक चाबुक मारना, चाबुक की मार से चमड़ी उतारना, तपती हुई सलाख से दागना, कान काट लेना, जीभ काट लेना, हड्डियाँ तोड़ देना, पैरों में बेड़ियाँ डालकर रखना कोई भी गुलाम ऐसी सजाओं से बच नहीं सकता था। जैसा कि दस्तावेजों से पता चलता है, एक गुलाम को शराब चुराकर पी लेने पर 500 कोड़े मारे गए। एक और गुलाम के सिर के सारे बाल खींच-खींचकर तोड़े गए, क्योंकि उसके बालों का रंग सफेद था, जिससे ग्राहक उसकी सही कीमत देने को तैयार नहीं थे। कोई गुलाम स्त्री यदि गर्भवती हो जाती, तो जमीन में एक गड्ढा किया जाता, जिस पर उस स्त्री को औंधा लिटाकर पीठ पर चाबुक मारे जाते। इससे गर्भस्थ शिशु सुरक्षित बचा रह जाता।
किंतु इन सजाओं से भी बड़ी सजा यह थी कि गुलामों को उनके परिवार से जुदा कर दूर के अलग-अलग स्थानों पर बेच दिया जाता। परिवार के लोगों को घात लगाकर एक-दूसरों से जुदा कर दिया जाता।
गुलामों से जो काम करवाए जाते, उनमें मुख्य था पौधों से कपास बीनकर अलग निकालना। इससे भी ज्यादा मेहनत और खतरे के कई काम गुलाम करते थे। गन्ना तोड़ना और पेरकर रस निकालना। इस रस को उबालकर शक्कर बनाई जाती । लगातार तनतोड़ परिश्रम करके और प्रदूषण में रहकर कुछ ही महीनों में गुलाम की मौत हो जाती।
ऐसे भयानक हालात में भी ये कृष्ण वर्ण गुलाम गीत-संगीत, नृत्य एवं हास्य-विनोद के सहारे अपना मनोरंजन करते और प्रसन्न रहने का प्रयास करते। दर्ज किया गया है कि दिन में चाबुक के सौ फटकों की मार खाकर भी और पैरों में बेड़ियाँ होते हुए भी ये गुलाम रात को हँसी-मजाक और धौल-धप्पा किया करते, ताकि कठोर जीवन कुछ सरल होकर जीने लायक बन जाए।
परिवार से कट जाने के बाद उन्हें पारिवारिक स्नेह मिल सके, इसका प्रश्न ही कहाँ था! उनके विवाह को कानूनी मान्यता नहीं थी। फिर भी वे अपना जीवन साथी अवश्य चुन सकते थे। संतानें होतीं, तो उन पर माता-पिता का कोई अधिकार नहीं होता था। गुलामों की संतानें मालिकों के अधिकार में चली जाती थीं। उपनाम लगाने की प्रथा शुरू होने पर मालिकों के ही उपनाम गुलामों के बच्चों को भी दिए जाने लगे।
ऐसी बर्बर गुलामी का विरोध तो होना ही था। 'क्वेकर' नामक एक क्रिश्चियन संप्रदाय उभरकर आया, जिसमें श्वेत व अश्वेत दोनों वर्णों के अमेरिकियों ने सदस्यता ली थी। ‘क्वेकर’ ने श्वेत-अश्वेत के भेद को दरकिनार कर गुलामी प्रथा के विरुद्ध लड़ाई में सक्रिय भाग लिया। आगे जाकर हैरिएट टबमन, जोसेफ सिंके, फ्रेडरिक डगलस, नैट टर्नर, सोजोर्न ट्रुथ जैसे अश्वेतों ने जॉन ब्राउन एवं अमेरिका के भूतपूर्व अध्यक्ष जॉन क्वीन्से एडम्स इत्यादि श्वेत नागरिकों ने अपने-अपने तरीकों से विरोध की इस लड़ाई में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
अमेरिका में कल-कारखानों की तादाद तेजी से बढ़ रही थी। गुलामों के बीच आजाद हो जाने की ललक का संचार होने लगा था। कारखानों के मालिकों को आभास हो चुका था कि गुलामी की प्रथा अब ज्यादा टिकनेवाली नहीं। यह स्थिति क्रमशः विस्फोटक इसलिए भी हो गई कि दक्षिण अमेरिका के कारखानेदार अपने गुलामों से मुफ्त में काम करवाते थे, उत्तर अमेरिका के कारखानेदार अपने गुलामों को ठीकठाक वेतन देते थे और उनके मानवीय अधिकारों की रक्षा भी करने लगे थे। उत्तर और दक्षिण अमेरिका के दो धड़े तैयार हो गए। दक्षिण अमेरिका का माल बाजार में सस्ते दामों में उतरता था, क्योंकि वहाँ गुलाम मुफ्त में या लगभग मुफ्त में काम करते थे। उत्तर अमेरिका का माल उतने सस्ते में बिकने के लिए बाजार में नहीं लाया जा सकता था, क्योंकि वहाँ के गुलाम वेतन पर काम करते थे। वैचारिक मतभेद के साथ-साथ यह आर्थिक मतभेद भी कम उम्र नहीं था। उत्तर अमेरिका ने दक्षिण अमेरिका पर दबाव डालना शुरू किया कि हमारी तरह तुम भी अपने गुलामों से वेतन देकर काम करवाओ। दक्षिण अमेरिका इसके लिए
बिल्कुल राजी नहीं हुआ। तब अमेरिकी प्रेसीडेंट अब्राहम लिंकन ने 1 जनवरी, 1863 के दिन बाकायदा कानून बनाकर घोषणा कर दी कि अमेरिका में गुलामी प्रथा पूरी तरह समाप्त कर दी गई है।
इस पर दक्षिण अमेरिकियों ने धमकी दी कि हमें अमेरिका के संयुक्त राज्य संघ से बाहर निकल जाना मंजूर है, मगर गुलामों को वेतन या सामाजिक बराबरी देना बिल्कुल मंजूर नहीं है।
इस धमकी का वही नतीजा हुआ, जो कि होना ही था। अमेरिकी प्रेसीडेंट अब्राहम लिंकन ने दक्षिणी राज्यों से युद्ध की घोषणा कर दी। यह गृह युद्ध दो सालों तक लगातार चला, जिसमें दक्षिणी राज्यों की हार हुई और संयुक्त राज्य अमेरिका के सभी राज्यों से गुलामी प्रथा कानूनी तौर पर समाप्त हो गई। यह आनंददायक घटना घटी सन् 1866 के मध्य में।
यह हैरत की ही बात है कि स्वयं को आधुनिक और विकसित माननेवाले राष्ट्रों ने गुलामी प्रथा का त्याग मूल रूप से 19वीं शताब्दी में किया। ग्रेट ब्रिटेन ने सन् 1807 में, फ्रांस ने सन् 1848 में और संयुक्त राज्य अमेरिका ने सन् 1866 में इस शर्मनाक प्रथा से छुटकारा पाया।
जबकि शिवाजी महाराज ने तो 17 वीं शताब्दी में ही गुलामी प्रथा पर पूरी तरह रोक लगा दी थी। इस प्रकार उन्होंने साबित कर दिया था कि समय की दौड़ में वे पश्चिमी देशों से भी कितने आगे हैं। शिवाजी महाराज ने डच व्यापारियों को मजबूर किया था कि वे उनकी सीमा में स्त्री पुरुषों की खरीद-फरोख्त नहीं करेंगे और यदि करेंगे, तो उन्हें यकीनन बंदी बना लिया जाएगा।
इतिहासकार ज. रवींद्र रामदास ने मार्च 1974 में ‘दैनिक लोकसत्ता’ में प्रकाशित अपने लेख में एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार शिवाजी महाराज ने डच व्यापारियों को इन शब्दों में आदेश दिया था—
'मुसलिमों के राज्य काल में आपको स्त्री पुरुषों को गुलाम बनाकर उनकी खरीद-फरोख्त करने की अबाधित इजाजत मिली हुई थी, किंतु मेरे राज्य में आपको स्त्री-पुरुषों को गुलाम बनाने और उन्हें खरीदने-बेचने की इजाजत नहीं मिलेगी। यदि आप ऐसा करेंगे, तो मेरे अधिकारी आपको बंदी बनाएँगे। हमारे बीच यह जो समझौता हो रहा है, इसका कठोरता से पालन किया जाना चाहिए।'


संदर्भ—
1. छत्रपति शिवाजी / सेतुमाधव पगड़ी