Hanuman Prasad Poddar ji - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 4

भाईजी का चरित्रबल एवं देवी सरोजनी का अलौकिक आत्मोत्सर्ग

'यह पूरा प्रसंग पूज्य बाबा के हाथ से लिखा हुआ है। वे स्लेट पर लिखते थे,पिताजी उसकी नकल कर लेते थे।'

आर्य रमणी का जीवन कैसा होता है, आज इस विलासिता के युग में समझ लेना कुछ कठिन है। पूर्वकाल की बात है मुगल सेना एवं राजपूत वीरों में सारे दिन युद्ध हुआ। रणभूमि शव से पाट दी गयी। अनेक राजपूत वीर, अनेक क्षत्रिय युवक अपनी मातृभूमि की गोद में चिरनिद्रा में सो गये। संध्याकालीन सूर्य की रश्मियों में उनका निर्मल प्रशान्त मुख चमक रहा था।
मातृभूमि के लिये अपना जीवन अर्पण करने वाले उन वीरों के साथ ही हजारों मुगल वीर सो रहे थे। सम्पूर्ण नीरवता थी। हाँ, कुछ काक एवं गिद्धों का दल एकत्रित हो गया था और उनकी कर्कश ध्वनि बीच-बीच में इस पुनीत नीरवतासे टकराती और अन्तरिक्ष में विलीन हो जाती थी। सूर्यदेव इस दृश्यको अधिक देर नहीं देख सके। अस्ताचलमें जा छिपे। धीरे-धीरे घोर अन्धकार छा गया।
मुगल सेना कुछ दूरपर ही पड़ाव डाले हुए थी और चौकन्ना थी। कहीं प्राणों की बाजी से खेलने वाले वीरों की कोई टुकड़ी अवशिष्ट रह गयी हो और फिर भिड़ना न पड़े। इसीलिये बारम्बार दृष्टि निर्वीड़ अन्धकार को चीरती हुई उस शवपुंज की ओर जा लगती। अवश्य ही थकी आँखें कुछ क्षण ही खुली रह सकीं। रात्रि के प्रथम पहर का अवसान भी न हो पाया था कि सेना गम्भीर मुद्रामें बेसुध हो गयी। एक जग रहा था। गठीला जवान था। प्रत्येक अंगसे रोब टपक रहा था। वह स्वयं दिल्लीश्वर था। अपने आपको शस्त्रों से पहले सजाया, नीचे से ऊपर तक लैस होकर, पर अपने इस वीर वेश को चादर से छिपाकर पैरों को अत्यन्त धीमे धीमे रखते हुए चलपड़ा। शवपुंज के पास आ पहुँचा। उसने देखा-तेरह वर्ष की एक सुन्दर सुकोमल बालिका अपने हाथ से एक प्रदीप लेकर शवों के बीच घूम रही है। वह प्रत्येक शवके पास जाती है, दीपक के प्रकाश में मुख देखती है, फिर आगे चल पड़ती है। मुगल वीर यह देखकर कुछ स्तब्ध सा हो गया। बालिका के सुन्दर केश उसके कन्धो पर बिखरे हुए थे। मुख पर एक अनिर्वचनीय शान्ति प्रेम एवं व्याकुलता-सी छायी हुई थी। मुगल वीरने सोचा, मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ। यह स्वर्ग की अप्सरा तो नहीं है। बालिका दीपक लिये शव को देखती हुई उस मुगल वीर के समीप जा पहुँची थी। दीपक की ज्योति से मुगल वीर की सफेद चादर चमक उठी। बालिकाके नेत्र उस ओर गये। वीरने एक बार अपने शस्त्र सुसज्जित अंगों की ओर देखा तथा दो कदम आगे बढ़कर बालिका के ठीक सामने खड़ा हो गया। अब उस बालिका ने आँखे ऊपर उठायी। एक क्षण के लिये वह किंचित् सहम गई, पर दूसरे क्षण ही एक अपूर्व तेजसे उसका सम्पूर्ण अंग चमकने लगा।
बालिकामें भयकी गन्ध भी न रही। मुगल वीर ने विनयपूर्वक धीमी कण्ठसे पूछा— 'देवि! क्या कर रही हो ?' एक क्षण के लिये मौन रहकर बालिका ने उत्तर दिया— 'खोजने आयी हूँ।' इस बार उत्सुकता मिश्रित, पर किचित झिझक के साथ मुगल वीर ने कहा— "इस निस्तब्ध रात्रि में इन शवपुंजों मे तुम किसे ढूँढ रही हो देवि ! बालिका ने इस बार तेजी से कहा— अपने पतिदेव, प्रियतम् प्राणनाथ की देह को खोजने आयी। इस युद्ध में आज धराशायी हुए हैं। उनकी देह मुझे चाहिये। उनकी देह को अपनी गोद में रखकर इस दीपक को आंचल से लगाकर सती हो जाऊँगी। मैं तुम्हें बड़ा भैया कहकर पुकार रही हूँ। तुम ऊपर से कुछ लकड़ियाँ डाल देना।
मुगल वीर उस बालिका के तेज से अभिभूत था। उसमें सामर्थ्य नहीं रह गयी थी कि कुछ पूछे, पर उसने सारा साहस बटोरा और बोला— "देवि! बुरा न मानना, तुम्हारी उम्र तो बहुत छोटी है। तुम्हारा विवाह कब हुआ होगा?
बालिका ने सरलता से उत्तर दिया— 'विवाह तो अभी नहीं हुआ था, सगाई हुई थी।' मुगल वीर ने अन्तिम प्रश्न किया— 'देवि! जब तक विवाह नहीं हुआ तब तक वह आपका पति कैसे? उसके साथ प्राण.......'
बालिका रोषपूर्ण कण्ठ से बीच में ही बोल उठी— "चुप, सावधान! ऐसी बात जीभ पर फिर न लाना। राजपूत रमणी एक बार ही पति का वरण करती है।"

पाठकों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि देवी सरोजनी ने भी अपना प्राण विसर्जन करने के पूर्व अपने पत्र में एक शब्द के हेरफेर से यही बात हनुमान प्रसाद जी को लिखी थी— ‘हिंदू रमणी वरे एक पति’ यह सरोजनी कौन थी? भाई जी से उसका क्या सम्बन्ध था? यह घटना भाई जी ने अपने एक मित्र को दो बार सुनायी थी—
"सम्बत् 1964 वि० (सन् 1907) का वर्ष था। अपने मामाजी के बुलाने से ग्वालन्दे होते हुए अपनी ननिहाल चाँदपुर जा रहा था। साथ में मेरे सुखलाल जमादार था। उस समय ग्वालन्दे से चाँदपुर जहाज में बैठकर जाया करता था। अतः मैं भी जहाज पर सवार हुआ। मैं जहाज के जिस स्थान पर बैठा, भाग्यचक्र से वहीं एक बंगाली सज्जन परिवार सहित बैठे थे। उनके साथ उनकी स्त्री और उनकी एक कन्या सरोजनी नाम की थी जिसकी आयु 13-14 वर्ष की होगी। उसका एक छोटा भाई पाँच से छः वर्ष का था। वह भी उसके साथ था। मेरे पास कुछ मेवे थे। उनमें से मैंने स्वाभाविक ही कुछ मेवे उस बालक को दे दिये। उस बालक ने भी वह मेवा ले लिया। थोड़ी देर में जहाज की एक स्टेशन लोहगंज (नारपासा) आई। उसी स्टेशनपर वे लोग उतरकर डोगी में बैठकर चले गये।"
ऊपर से यह घटना कितनी स्वाभाविक दीखती है। प्रतिदिन न जाने कितने यात्री ठीक इसी प्रकार मिलते हैं, मिलकर बिछुड़ जाते हैं। इसमें किसी को कुछ भी स्मृति नहीं रहती। पर नहीं, सरोजनी देवी के परिवार एवं भाईजी के इस मिलन के अन्तराल में एक पुनीत रहस्यमय घटना छिपी है, इसकी गन्ध तक स्वयं भाईजी भी करीब चार वर्ष तक न पा सके। इस मिलन की स्मृतिको तो वे लोहजंग स्टेशन के जलकलरव के साथ ही विदा दे चुके थे। तब से अनन्त नूतन स्मृतियाँ आयीं गयीं। उनके भार से सरोजनी के मिलन की यह स्मृति इतनी दब गयी थी कि चंचल मन के साथ यह मधुमय साजके साथ पुनः नाच उठेगी, यह कल्पना भाईजी के लिये सम्भव नहीं थी। पर इससे क्या होता? भाग्यचक्र तो निरन्तर घूम रहा था। उषा आती, प्रभात हँसता मध्याह रोष में भर जाता, संन्ध्या गम्भीर हो जाती निशा सान्त्वना देती। इन कालस्रोत की लहरियो पर प्रभु का मंगल विधान नियमित क्रम से नाचता रहता था। एक क्षण के लिये इस नृत्यका विकास हुआ। एक लहर नाचती हुई आती। हनुमान प्रसाद के गले में एक माला डाल जाती, दूसरी आती तिलक कर जाती, तीसरी आती पान खिला जाती, चौथी आकर अंजन लगाती फिर एक नयी आती आभूषण पहना जाती। इस प्रकार प्रत्येक लहर आती और लीलामय प्रभु के निर्धारित विधान भेंट देकर लौट जाती और हनुमान प्रसाद जी क्या करते? वे अपनी जीवन संगिनी के निर्मल प्रेम की धारामें अवगाहन करते हुए ही विधान के आगे हँसते हुए सिर नवा देते। अस्तु।
लहरों में बहता हुआ एक दिन एक पत्र प्रथम श्रावण कृष्ण 9 सं० 1969 (9 जुलाई सन् 1912) को आया। कलकत्ते की पगयापट्टी में, पारखजी की कोठी की अपनी दुकान में हनुमान प्रसाद जी बैठे थे। रात्रिकी चादर डालकर कलकत्ता नगर विश्राम करने जा रहा था, पर हनुमान प्रसाद जी जाग रहे थे।
सोते भी कैसे? अभी-अभी एक लहरी ने उनकी अज्ञात चेतना से कह गयी थी। मेरी बहन तुम्हें एक पत्र देने आ रही है, सो मत जाना भला और सचमुच दूसरे ही क्षण पत्र आया। पत्र पर किसी अज्ञात रमणी के अक्षर थे। भाईजी ने पत्र खोला। वह अत्यन्त विस्तृत था। नीचे लिखा था— "सरोजनी" और पास ही लिखा था मेरे मिलने का पता कालीघाट है। पत्र के आरम्भ में पूर्ण विवरण दिया हुआ था। किस प्रकार आप ग्वालन्दी से चाँदपुर जहाज
पर बैठे हुए जा रहे थे और मैं पिताजी के साथ आपके समीप ही बैठी थी। लोहजग पर मैं उतर पड़ी थी और शेष पत्र में क्या था, इसकी कल्पना पाठक मेरी असमर्थ लेखिनी की निम्नाकित शब्दावलि से स्वयं करें। अवश्य ही वैसा करने से पूर्व अपने हृदय को पवित्र पाशविक इन्द्रिय सम्पर्क, इन्द्रियसुख से सर्वथा शून्य निर्मलतम प्रेम-मन्दाकिनी की धारा में डुबो लें, अन्यथा उस पूजनीया प्रेममयी देवी सरोजनी के मगलमय आशीर्वाद से वंचित हो जायेंगे।
इस बात को जानता था विश्वनाटक का सर्वत्र सूत्रधार और जानती थी सरोजनी। इसके बाद सरोजनी के जानने से जान पाये भाई जी, जो सर्वथा सरोजनी की स्मृतितक भूले हुए थे। लोहजग स्टेशनपर सरोजनी उतरी थी, पर उतरी थी अपना शरीर, अपना प्राण, अपना हृदय, अपना सर्वस्व हनुमान प्रसाद के चरणों में सदा के लिये समर्पित करके। पर उसका यह समर्पण खोखला न था। वह अन्तस्तल के निर्मलतम प्यार से लबालब भरा था। इसीलिये प्रकट न हुआ। देवी सरोजनी बाह्य व्यवहार में भी अत्यन्त कुशल थी, इसीलिये उसने प्रकट में कुछ भी न कहकर श्रीहनुमानप्रसादजीके साथ जो, सुखलाल नामक जमादार था. उससे नाम और जाति सब पूछकर अपनी डायरी में नोट कर लिया। इस बात का हनुमान प्रसाद जी को भी पता न लगने दिया और न हनुमान प्रसाद जी को सुखलाल जमादार ने ही कहा। भाईजी उसे बिल्कुल ही भूल गये थे, किन्तु जिस देवी ने अपने जीवन को उनके चरणों में समर्पित कर दिया था, वह कब भूलने वाली थी ? उसके हृदय पटल पर तो वह मधुर मूर्ति उसी क्षण‌ से निरन्तर नाच रही थी। वह कैसे जीवन बिता रही होगी, इसका अनुभव किसी हृदयवान्‌ को ही यत्किचित हो सकता है। यद्यपि उस देवी ने अपने विशुद्ध और निश्छल प्रेम को किसी पर भी प्रकट नहीं किया, किन्तु उसके घरवालों ने चार वर्ष के बाद सम्बत् 1967 वि० के लगभग उसका विवाह किसी अन्य पुरुष के साथ करने का विचार किया, तब उस देवी के मन में बड़ी दुविधा उत्पन्न हुई। यदि वह अपने विवाह का विरोध करती है तो उसका प्रेम प्रकाश में आ जाता है और प्रेम का प्रकाश में आना प्रेमी के लिये कितना असाध्य होता है, संसार-आसक्त मानव उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। और यदि स्वीकृति देती है तो अपने आराध्यदेव की वंचना होती है। सरोजनी का मन इस दुविधामें चंचल हो उठा, पर एक अचिन्त्य शक्ति ने उसकी चिन्ता हर ली। उसे पथ मिल गया। प्रस्तुत होकर वह चल पड़ी। विवाह का नाटक रचे जाने में उसने बाधा न दी, क्योंकि उसकी दृष्टि में उसके आराध्य देव के अतिरिक्त कोई दूसरा पुरुष था ही नहीं। उसके अन्तर के पट खुल चुके थे। प्रेम की निर्मल धारा में सभी मल धुल चुके थे। ‘उत्तम के अस बस मन माहीं, सपने हुँ आन पुरुष जग नाहीं’ की उज्ज्वल मूर्ति वह बन चुकी थी। मेदिनीपुर जिले के किसी ग्राम में विवाह का नाटक पूर्ण हुआ। संसार की दृष्टिमें वह सच्चा था, पर उसकी दृष्टिमें यह सर्वथा खेल था।
सरोजनी ससुराल पहुँची। ससुरालमें चार-पाँच महीने रही पर रही 'चंचरीक जिमि चंपक बागा' की तरह। अब प्रेमकी परीक्षा प्रारम्भ हुई।
सतीत्व रक्षाका प्रश्न उपस्थित हुआ। सरोजनी क्या करती है ? सम्बत् 1969 श्रावण के लगभग की बात है। एक दिन नाटक के संसार को उसने अतिम बार प्रणाम किया सदा के लिये बाहर चल पड़ी। हृदय में आराध्य देव भाईजीकी मूर्ति सान्त्वना दे रही थी बाहर श्रीभगवान की कृपा रक्षा कर रही थी। सरोजनी जिस दिन अपनी माँ से बिदा होकर खेलने ससुराल जा रही थी, उस दिन तीस गिन्नियाँ मॉने उसे दी थी। नाटक खेलकर जब वह अपनी वास्तविक ससुराल की ओर चली तो उस समय भी वे 30 गिन्नियाँ उसके अचल में बँधी थी।
एक दिन मीरा अपने गिरधरलाल को खोजने के लिये चली थी सरोजनी भी आज अपने आराध्य देव को ढूंढ़ने चली है। दोनो के अन्तस्तल में भावो मे पूर्ण साम्य है, पर बाहर कुछ अन्तर है। सरोजनी ने अपने ऊपरका भेष बदल लिया। उसने अपने को एक सिख बालक के रूप में सजाया और घूमने लगी। कलकत्ते पहुँची। इस विशाल नगर मे अपने आराध्य देव को ढूँढ़ने लगी। उस समय बर्द्धवान में बाढ़ के कारण हाहाकार मचा हुआ था।
पत्रोंमे उसकी सहायताके लिये सूचना निकली थी। सरोजनीने देखा कि उन्हीं समाचारोंमें उसके आराध्य देव का नाम छपा था। नाम पढ़ते ही रोम-रोम आनन्द से नाच उठा। पर अब मिलूँ कैसे? —यह प्रश्न था? सोचती क्या स्वयं चली जाऊँ। पर दूसरे ही क्षण हृदयक अन्तस्तलमें प्रेमकी किरणें फूट पड़ती और सरोजनी निश्चय करती-भला प्रेम भी प्रकट करने की वस्तु होती है. ना, कभी न जाऊँगी, पर शीघ्र ही अन्तस्तल उफनने लगा। एक बार दर्शन की प्रबल उत्कण्ठा से, एकबार प्रियतमके चरणों में उपस्थित होकर दो-चार शब्द निवेदन करने की लालसा से उसके प्राण विकल हो उठे। प्रेमके आवेशमें उसे केवल एक ही पथ दीखा। वह यह कि प्रियतम को एक पत्र लिखूँ। जहाज पर के प्रथम मिलन से लेकर आजतक की सम्पूर्ण घटना स्वामी को लिखकर भेजूँ। तब वे यदि मिलना चाहेंगे तो अवश्य आ जायँगे। इसी निश्चय का परिणाम यह पत्र है, जिसे हाथ में लिये हुए हनुमान प्रसाद जी स्तब्ध बैठे हैं।
भाईजी के निर्मलतम हृदय में भावों की आँधी चल रही थी। हाथ का पत्र शोणित धमनियों में विद्युत का संचार कर रहा था। अतीत की स्मृति चित्रपट की भाँति सामने आ रही थी। जहाज का वह दृश्य मानों अभी-अभी का है। भाई जी भाव में विभोर होकर कुछ क्षण के लिये निश्चेष्ट हो गये। आजतक उनके जीवन को पाप की छाया तक भी स्पर्श न कर पायी थी, पूर्ण सदाचार जीवन का व्रत रहा था। अतः इस पत्र से उनके मन में कोई इन्द्रिय मलिन विकार तो न हुआ, सर्वथा पवित्र भाव ही उत्पन्न हुआ, पर वे अपने वर्तमान कर्तव्य को लेकर गहरे विचार में पड़ गये। सरोजनीके पत्रके 'प्रत्येक अक्षरमें निर्मल प्रेम छलक रहा था। इस विशुद्ध प्रेमने बाध्य कर दिया। एकबार उसे दर्शन देने की प्रार्थनाको पूर्ण करने की पवित्र इच्छा जाग उठी। पत्रमें लिखा था— कालीघाट मन्दिर के पास हमसे कल नौ बजे प्रातःकाल मिल सकते हैं। अतः वहीं निश्चित समय पर चल पड़े। साथमें एक मित्र थे जिनका नाम बालचन्द मोदी था। पर वह वहाँ न मिली और ये अन्यमनस्क वहाँ से लौट आये। उसी रात्रिको उपर्युक्त पतेसे एक पत्र फिर मिला, जिसमें लिखा था— 'आप जब वहाँ पहुँचे, तब मैं वहाँ थी अवश्य पर आपके साथ एक सज्जन और थे इसी से मैं न मिली। अब आप मुझे न खोजें, मैं आपका स्थान जान गयी हूँ। मैं ही आपसे मिल लूँगी। इसके कुछ देर बार उसी रात्रि को दूसरा पत्र मिला— कल प्रातः आउटरामघाट के स्टेचू के पास हमसे मिलें, दूसरे दिन भाईजी उस स्थानपर जाकर उत्सुकता भरे नेत्रों से उस देवी को ढूँढ़ने लगे, पर वह आज भी न मिली। हाँ उस स्टेचू के पास कागज की एक चिट मिली, जिस पर लिखा था— 'आपके आने में विलम्ब होने से मैं जा रही हूँ। यहाँ ठहरना मेरे लिये निरापद नहीं है। अब मैं आकर स्वयं मिल लूँगी।'
वह दिन बीता। संन्ध्या हुई, रात्रि हुई। भाईजी के मन में एक चिन्ता-सी लगी थी। रात्रि के समय वे दुकान से घर लौट रहे थे। घर हरिसन रोड पर था। पथ में घरसे थोड़ी ही दूर पर एक शिवमंदिर था। वहीं एक सिख बालक मिला उसने अपना परिचय दिया— 'मैं सरोजनी हूँ। यह भाईजी का चरित्रबल कृतिम वेश है। भाईजी ने भी पहचान लिया। सचमुच वही बालिका है। परिचय होने के बाद रमणी सुलभ सौन्दर्य उस सिख वेश में छिप ही कैसे सकता था?
अपने प्रियतम स्वामी को पाकर प्रेम मूर्ति सरोजनी की क्या दशा हुई होगी इसका चित्रण करना लेखनी से असंभव है। इतना लिख देना सम्भव है, आवश्यक भी है कि यह निर्मल विशुद्ध प्रेम था। इसमें भोगवासना की गन्ध तक भी नहीं थी। इसलिये दोनों परस्पर प्रेम में डूबकर बात करते हुए भी किसी ने भी किसी के शरीर का किंचित्मात्र स्पर्श तक भी न किया। इस मिलन में इसकी आवश्यकता भी न थी, क्योंकि यह प्रेम का मिलन था, काम का उद्दाम उच्छवास नहीं।
कई घण्टें तक बातें हुईं। सरोजनी के प्रत्येक शब्द से सत्य झर रहा था। उसकी समस्त चेष्टायें आन्तरिक सरलता, आन्तरिक विशुद्ध प्रेम से ओतप्रोत थी, उनमें कृतृिमता की गन्ध भी नहीं थी। भाईजी का हृदय सरोजनी के प्रति पवित्र अनुराग से भर उठा, पर शरीर तो वे अपनी विवाहिता पत्नी के हाथों में दे चुके थे। धर्मतः वैसे सम्बन्ध की दृष्टि से उनके शरीर पर उनकी एकमात्र विवाहिता पत्नी का ही अधिकार था। दी हुई वस्तु को छीनकर उससे फिर दूसरे को दे देना सच्चे सज्जनों ने सीखा ही नहीं। अतः सरोजनी के अनमोल प्रेम की भेंटमें शरीर न्यौछावर करने का प्रश्न समाप्त हो चुका था। अवश्य ही भाईजी के मन, प्राण उस देवी के विशाल प्रेमसागर से जा मिले। सरोजनी ने अनुभव किया, उसके हृदय के अन्तस्तल में अभी-अभी जो प्रेम के बुदबुदे उठ रहे थे, वो प्रियतम स्वामी के प्राणों का संयोग पाकर उत्ताल तरंगें बन गये हैं।
अब बाह्य जगत् की व्यावहारिक समस्या हल करनी थी। भाईजी ने अपने हृदय के प्रेम से सानकर कहा— 'देवि ! तुम यहीं रहो, पर एक अलग मकान में। तुम्हारे जीवन यापन की सारी व्यवस्था हो जायगी, सारा प्रबन्ध हो जायगा।' पर सरोजनी वास्तविक प्रेम करना चाहती थी। उसके जीवन में स्वसुख वासना थी ही नहीं। स्वामी का सुख ही उसके जीवन का सच्चा सुख था। भविष्य में स्वामी के सुख में व्याघात न हो, इस उद्देश्य से बोली— कदाचित् आपके हमारे इस निर्मल प्रेम में आगे चलकर कोई कलुषित विचार उत्पन्न हो जाय तो आश्चर्य नहीं। मेरा दूर रहना ही उचित है, आवश्यक है। अवश्य ही आपके प्रति मेरे प्रेम में कामवासना, अंगसंग की इच्छा की रंचमात्र गन्ध भी हेतु नहीं है।
जाते समय सरोजनी अपने आराध्यदेव को अपनी स्वर्ण निर्मित अँगूठी देती गयी। यह अँगूठी मानो उसके अर्पित हृदय के प्रतीक उसकी अंगुलीमें रहती थी, पर हृदय देकर प्रतीक रखना प्रेम में कलंक है, इस भाव से प्रतीक को भी वहीं रख दिया, जहाँ हृदय था।
कुछ दिनों बाद सरोजनी के प्रेम मय हाथ का अन्तिम पत्र आया। उसमें लिखा था— "शरीर-वियोग व्यथा सहने में असमर्थ है, अब मैं इसे नहीं रखूँगी।" भाईजी ने पत्र पाकर उसे ढूँढ़ने की बहुत चेष्टा की, पर कोई अनुसन्धान न मिला। बाद में ज्ञात हुआ कि उसने प्रयाग में जाकर त्रिवेणी संगम में जल समाधि ले ली।
प्रेम-प्रतिमा देवी सरोजनी के हृदय की वह प्रतीक अँगूठी, उसको स्वर्ण मेडल (तमगा) के रूप में परिणत किया गया। प्रतीक के आकार में अन्तर न आया। पहले भी गोल था, अब भी गोल रहा। पर खोखला था, होना ही चाहिये। हृदय भी प्रियतम वियोग वेदनामें घुल घुलकर खोखला हो गया था और आज मानो उसके प्रियतम के पिघले हुए प्राण उस खोखले स्थल के पास जा पहुँचे, पोल भर गया। वह मेडल नहीं था, दो पिघले हुए, एकमेक हुए प्रेमिल हृदयों का प्रतीक था। मेडल जालन्धर कन्या महाविद्यालय की एक कन्या को भाईजी ने पुरस्कार में दिया। उसकी एक ओर खुदा था— ‘सरोजनी के स्मृत्यर्थ’ और दूसरी ओर लिखा था— हिंदू रमणी वरे एक पति।’
बहुत वर्षों बाद इस घटना की चर्चा करते हुए भाईजी ने कहा कि सरोजनी के विशुद्ध प्रेम का आदर करते हुए भी मेरे मन में लौकिक वासना की गंध भी पैदा नहीं हुई एवं सरोजनी भी आर्य-मर्यादा पर दृढ़ रही।