Hanuman Prasad Poddar ji - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 5

सेठ जी श्रीजयदयाल जी गोयन्दका से मिलन

परम संत सेठ जी श्रीजयदयाल जी गोयन्द का एक ऐसे मारवाड़ी संत थे, जिन्हें लोग जानकर भी नहीं पहचान पाते थे। उनका रहन-सहन, वेष-भूषा, मारवाड़ी-मिश्रित हिन्दी बोली, सब इतने साधारण थे कि लोग निकट से देखकर भी नहीं पहचान पाते थे कि ये आध्यात्मिक जगत् की विशेष विभूति हैं। साधारणतया सत्संगी लोग इन्हें 'सेठजी' के नाम से ही
पुकारते थे। सत्संग करानेके उद्देश्यसे ये स्थान-स्थानपर जाया करते थे। भाईजी ने भी अपने व्यापारिक जीवनके बीच इनकी प्रशंसा सुनी थी। सं० 1967-68 (सन् 1910-1911) में श्रीसेठजी का कलकत्ते में आगमन हुआ। संयोग वश उनके सत्संग का आयोजन पगयापट्टी में श्रीहरिबक्स जी साँवलका की दूकान पर हुआ। इनकी दूकान भाईजी की दूकान के सामने थी। अतः भाई जी भी इनके सत्संग में गये। उनका प्रेमिल स्वभाव, मौलिक चिन्तन, दम्भहीन अन्तःकरण, अनुभूतिपूर्ण आध्यात्मिक उद्गार भाईजी को आकर्षित करने
लगे। यद्यपि उस समय भाईजी के जीवन में राजनीतिक एवं सामाजिक विचारों की प्रधानता थी, फिर भी श्रीसेठ जी के सत्संग में भाईजी को ऐसा आकर्षण, ऐसा रस मिला कि वे उनके कलकत्ता आने पर नियमित रूप से सत्संग का लाभ उठाने लगे। साथ ही इनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर
अपने मित्रों को भी इनसे मिलाने लगे श्रीज्वालाप्रसाद जी कानोडिया, श्रीबनारसीप्रसाद जी झुंझनूवाला आदि को इनसे मिलाया।
आगे चलकर तो भगवान् की अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा से श्रीसेठ जी और भाईजी का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया। भाईजी के जीवन को एक ही अध्यात्म पथ पर सुरक्षित रखने का सारा श्रेय उन्हीं को है।

देश-प्रेम के प्रवाह में

भाईजी की रुचि सामाजिक तथा राजनीतिक गतिविधियों में तो पहले से ही थी, पिताजी का नियन्त्रण न रहने से इन कार्यों में पूरी स्वतन्त्रता से भाग लेने लगे। वैश्य-महासभा, हिन्दू-क्लब, हिन्दी-साहित्य-परिषद, सावित्री कन्या-पाठशाला, मारवाड़ी सहायक समिति (मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी), कलकत्ता हिन्दू महासभा आदि में इनका प्रमुख सक्रिय सहयोग था। यह वह समय था, जब देशमें स्वतन्त्रता-आन्दोलन चल रहा था एवं बंगाल का स्थान उसमें विशेष उल्लेखनीय था। भाईजी जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिये अपने को उससे अलग रखना असम्भव था। इनका चित्त उत्तरोत्तर देश-प्रेम से भरता जा रहा था, उधर दूकान की सँभाल शिथिल होती जा रही थी। भाईजी को उग्रवादी सिद्धान्त ही समयोचित जान पड़े। स्थान-स्थान पर गुप्त-समितियाँ बनने लगी। भाई भी एक ऐसी ही गुप्त-समिति के सक्रिय सदस्य थे। इसकी सारी कार्यवाही गोपनीय रखी जाती थी। इस समिति के कुछ सदस्यों का बंगाली क्रान्तिकारी समिति से सम्बन्ध था, जिसमें श्रीविपिनचन्द्र गांगुली, श्रीवैद्यनाथ विश्वास आदि प्रधान थे। श्रीज्वालाप्रसाद जी कानोड़िया समिति के प्रमुख थे एवं समिति की बैठकें श्रीफूलचन्द जी चौधरी, बेलूर तथा बिरलाकोठी, लिलुआमें हुआ करती थी। उस समय आन्दोलन का उद्देश्य था— देश के लिये तन-मन-धन, सर्वस्व अर्पण कर देना। इससे भाईजी को नियमानुवर्तिता, संयम, त्याग और सादगी की क्रियात्मक शिक्षा मिली। इसी प्रसंग में उन्हें श्रीअरविन्द, श्रीसुरेन्द्रनाथ बनर्जी, श्रीविपिनचन्द्र पाल, श्रीचितरञ्जन दास, श्रीवीरेन्द्रनाथ ठाकुर, श्रीश्यामसुन्दर चक्रवर्ती, श्रीब्रह्मबान्धव उपाध्याय, श्रीसत्याचरण शास्त्री, श्रीसखाराम गणेश देउस्कर, श्रीशारदाचरण मित्र, श्रीकृष्ण कुमार मिश्र आदि विभिन्न क्षेत्रों के महानुभावों से बार-बार मिलने तथा बहुतों के साथ अन्तरंग सम्पर्क में आने का सुअवसर मिला। इसी के साथ उस समय के कलकत्ताके धुरीण साहित्यिक पं० गोविन्दनारायण जी मिश्र, पं० दुर्गाप्रसादजी मिश्र, श्रीबालमुकुन्द जी गुप्त, पं० जगन्नाथप्रसाद जी चतुर्वेदी, पं० अम्बिकाप्रसाद जी बाजपेयी, श्रीपाँचकडी बनर्जी, पं० झाबरमल जी शर्मा, पं० लक्ष्मणनारायण जी गर्दे, श्रीरामकुमार जी गोयन का, श्रीबाबूविष्णु पराड़कर आदि विद्वानों एवं सफल सम्पादकों के बहुत निकट सम्पर्कमें आये। उसके कुछ समय बाद ही इनका महामना पं० मदनमोहन मालवीय, डा० राजेन्द्रप्रसाद, महात्मा गाँधी, श्रीपुरुषोत्तमदास टंडन, लोकमान्य तिलक आदि से निकट का सम्बन्ध हो गया।
सं० 1971 (सन् 1914) के लगभग मालवीय जी कलकत्ता पधारे तो भाईजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिये लोगों से मिलकर आर्थिक सहायता भी दिलवायी। उसी समय से इनसे स्थायी प्रेम का सम्बन्ध स्थापित हो गया। सं० 1972 (सन् 1915) में महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से लौटते समय रंगून होकर कलकत्ता पधारे, तो भाईजी ने हिन्दू-महासभा के मन्त्रीके रूप में उन्हें अभिनन्दन-पत्र दिया। आगे चलकर गाँधीजी से घर जैसा सम्बन्ध हो गया था।