Dastak Dil Par - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

दस्तक दिल पर - भाग 1

आज से एक कहानी श्रृंखला शुरू कर रहा हूँ, ये वो कहानी है जिसने मुझे लंबी कहानियों को लिखने की क्षमता प्रदान की थी और कहानीकार से उपन्यास कार बनने को प्रोत्साहित किया
"दस्तक दिल पर" भाग-1

पहली किश्त-
आज ख़ुद से ही ख़ुद का सवाल है कि क्या मुझे उससे रूहानी इश्क जैसा ही इश्क है या स्वार्थ है.... ???...कुछ तो कहना होगा दिल को सवालों का जवाब देना ही होगा। हमारी ये कहानी ही एक प्रोटोकॉल से शुरू हुई थी मैंने तो उसे कह दिया था कि हमारी बात मेरी उपलब्धता के आधार पर ही हो पाएगी। वो जब मन आये मुझसे बात नहीं कर सकती। उसे उस दिन बुरा लगा था बहुत, पर मुझे उससे जो भी रिश्ता जोड़ना था वो सच्चाई के धरातल पर ही जोड़ना था। मैं जानता था कि मेरे इस प्रोटोकॉल से हमारी बढ़ती नज़दीकियां दूरियों में बदल सकती थी, मगर मैं ऐसा नहीं चाहता था। ख़ैर उसे मेरा सच बोलना ही सबसे ज्यादा भाता था।

एक दिन उसने कहा मुझसे कि उसके किसी नज़दीकी ने कहा है कि आप से कोई इसलिए जुड़ जाता है कि आप आसानी से उपलब्ध हो। उसने यही सवाल मुझसे पूछ लिया था, “क्या आप मुझसे इसलिए जुड़े हो कि मैं आसानी से उपलब्ध हूँ??” उसके इतना पूछने पर जानता हूँ कि उसने ये नम आँखों से पूछा होगा, मगर शायद उसे नहीं पता चला या हो सकता है चल भी गया हो कि मेरी भी आंखे भीग गईं थी। बस मैंने उसे फिर सच ही बोला “सुनिये, आप से इसलिए नहीं जुड़ा कि आप आसानी से उपलब्ध हो। आसानी से तो बहुत लोग उपलब्ध हैं मुझे, पर आपसे मुझे कोई ऐसा रिश्ता लगता है जिसे आप और मेरे सिवा कोई नहीं जान सकता, ख़ैर मुझे नहीं पता क्या बात है।” मेरे इस सच ने जाने उसे क्या समझाया होगा, फिर भी वो बोली चलो अब बाद में बात करूँगी।

मुझे वो दिन याद हो आया था जब मैं उसके शहर में था हमारी दिन में कम ही बात हो पाई थी। उसने कहा था "मेरे घर आ जाना आज, मैं बता दूंगी अगर बुलाना हुआ तो"... फिर उसका फ़ोन आया "आज नहीं आना," ख़ैर मैंने दिल पर पत्थर रखा और मान लिया मुलाकात मुमकिन नहीं।

सर्दियाँ गहरा रही थीं, मेरे साथी मेरे साथ थे, तो मुझे कहीं जाना तो था नहीं, साथियों ने कहा "चलो यार दो दो पैग लगा लेते हैं।" हम सबने पीना शुरू कर दिया था , अभी मुझे हल्का नशा हो आया था, कि फ़ोन की घंटी बज उठी। उसने कहा "आ जाओ", ओह... पर मैं तो शराब पिए हुए था। पहली बार घर जाऊँ उसके, वो अकेली है और मैं नशे में....??

मैंने उसे मना कर दिया था, मैं नहीं आ पाऊँगा। उसके कारण पूछने पर फिर वही सच बोल दिया, "मैंने शराब पी है हल्का नशा है कैसे आऊँ?" उसने कहा "आ जाओ कोई बात नहीं।" उसके इस विश्वास ने कि उसे मुझसे कोई ख़तरा महसूस नही होता, मेरी आधी शराब तो इसी बात से उतर गई कि मुझे बहुत ध्यान से उसके साथ पेश आना है।

मैं उसका पता पूछ कर ऑटो लेकर उसके घर की ओर निकल गया। जब निकला था 9.30 हो चुके थे, रात ने अंधकार गहरा दिया था, और ठंड ने अपना आँचल पसरा दिया था, पर शहर जगमग चमक रहा था
ऑटो वाला उसके इलाके से अनजान था मुझे 11.30 तक घुमाता रहा। बार बार उसके फ़ोन आ रहे थे वो लोकेशन बता रही थी। हम हर बार उसके घर के आस पास चक्कर लगा कर दूर चले जाते रहे। तब तक नशा अस्सी प्रतिशत उतर गया था, तंग होकर मैंने सोचा वापस लौट जाऊँ, पर मन उससे मिलना चाहता था, वो भी इंतज़ार कर रही थी।….मन उससे मिलना चाहता था।

संजय नायक"शिल्प"
क्रमशः