Dastak Dil Par - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

दस्तक दिल पर - भाग 2

"दस्तक दिल पर"
किश्त- 2

गुलाबी सर्दी का अहसास हो रहा था।दिल मे धुकधुकी लगी थी कि कहीं देर हो जाने की वजह से वो मना न कर दे। मैं भी ये सोच कर असमंजस में था कि उसके पड़ोसी क्या कहेंगे। पशोपेश की स्तिथि थी ,तभी मेरा मोबाइल बजा। वही थी...पूछा "कहाँ हो?" मुझे कुछ पता होता तो बताता! उसने कहा "अब मत आना जाओ लौट जाओ".....दिल धक्क से बैठ गया, जैसे किसी ने ऊंची बिल्डिंग से फेंक दिया हो। मैंने हौले से कहा ठीक है, मेरी मरी मरी आवाज सुन उसने ऑटो वाले को फ़ोन देने को कहा। शायद उस ऑटो वाले को समझ आ गई थी उसकी गली!

आख़िर मैं उसके मकान के सामने था! घड़ी पर नज़र डाली तो पूरे बारह बज चुके थे। मैने हौले से मैन गेट खोला तो उसने झाँक कर देखा और दरवाज़ा खोल दिया।

नज़रें मिलीं और होंठ मुस्कुरा दिए! समझ न आया क्या कहूं??क्या न कहूँ.....?? शायद वो भी यही सोच रही थी। यूँ तो मैं नहा कर चला था पर कुछ न सूझा तो कह दिया "मैं नहाना चाहता हूँ! थका हूँ.. क्या व्यवस्था हो जाएगी?"

वो मेरी तरफ अचंभे से देखने लगी और कमरे में वाशरूम की तरफ इशारा कर दिया। मैने तौलिया मांगा तो पकडा कर वापस ड्राइंग रूम में चली गई।

यूँ तो नशा उड़न छू हो चुका था पर कोई ख़ुमारी सी चढ़ रही थी। मैं ड्राइंग रूम में वापस आया तो उसने पूछा…"तेल लगा दूँ बालों में?" "जी लगा दो" ....मैं उसके सामने ज़मीन पर बैठ गया और वो हल्के हाथों से सर पर तेल लगाने लगी। ऐसा लगा बरसों की थकान उतर गई हो!

मैंने उसे कहना शुरू किया "कल एक ख़्वाब देखा, मैंने देखा मैं एक कटी हुई पतंग के पीछे दौड़ रहा हूँ। उस पतंग के लंबी डोर लटक रही थी। मैं दूर तक दौड़ कर उस पतंग को पकड़ लेता हूँ। पर वो पतंग मेरे हाथ में आते ही फट गई, ओह... पर मैंने उसकी डोर को समेट लिया था, उस डोर को मैंने अपने सीने के पास वाली जेब मे रख लिया ठीक दिल के पास। जब मैंने घर आकर डोर सम्भाली तो देखा, सारी डोर उलझ गए थी मैंने जैसे ही उसे सुलझाना चाहा वो और उलझती चली गई, मैं मायूस हो गया था इतने में जाग खुल गई.......सुनो क्या था वो सब?"

वो कुछ नहीं बोली चुपचाप सुनती रही।
उसे मेरे बाल बहुत पसंद थे। कहती थी 'मिलोगे तो उलझाऊंगी ,फिर सुलझाऊंगी।' कुछ देर तेल लगा वो मेरे बालों से खेलती रही। कितना सुखद अहसास था! अनोखा बालपन वाला अहसास! जी किया बोलूं कि ऐसा ही करती रहो। पर वो भी संयत हो गई शायद। "अब हो गया...उठिए।" मैं उठ कर सोफे पर बैठ गया, एक पूरी ज़िन्दगी जी के।

मैं उसे भरपूर निगाहों से देखना चाहता था, पर देख नहीं पा रहा था। नज़र टिक नहीं रही थी और वो भी नज़रें मिलने पर असहज हो उठती थी। क्या करूँ... देख भी नहीं पा रहा रह भी नहीं पा रहा। उठ कर उसके नज़दीक आ गया। उसकी नज़रें कुछ और झुक गईं।ये क्या है... इतनी शर्म ?
हौले से उस का हाथ अपने हाथ मे ले लिया । उसकी नज़रें उठीं..।

हाथ छुड़ा कर बोली...चलो कॉफ़ी बनाती हूँ। सर्दी लग रही होगी तुम्हे। कॉफ़ी पी कर छत पर चलेंगे। झूले पर बैठेंगे कुछ देर। आज सुंदर चाँद खिला है आसमाँ पर। मैं हैरान था! क्या है ये सब ! एक बार उसने बताया था कि रात देर तक चाँद निहारना चाहती हूं। पर अकेले छत पर डर लगता है। मुझसे नहीं डरती ये! आधी रात गए दरवाज़ा खोल दिया और अब छत पर। लगा ये मुझे बहुत पहले से जानती है।

संजय नायक"शिल्प"
क्रमशः