Haweli - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

हवेली - 19

## 19 ##

हवेली के सारे लोग खाना खाकर अपने कमरे में विश्राम करने जा चुके थे। नौकर भी रात का काम खत्म कर बिजली बंदकर अपने क्वार्टर में चले गए। रात दस बजे के बाद नौकरों को हवेली में रुकने की इजाजत नहीं था। इसीलिए चौकीदार के अलावा और कोई यहाँ टहलने का भी साहस नहीं कर सकता। सारी हवेली में सुनसान रात का सन्नाटा मचा हुआ था। उस सुनसान रात में डाइनिंग हॉल में अचानक ही एक लाल बत्ती जल उठी।

मेंहदी अंकिता के कमरे से निकलकर अपने कमरे में आ गई। सोने से पहले मेंहदी को देर रात तक पूरे दिन की विशेष बातें अपनी डायरी में लिखने की आदत है। वह अपने दाँतों के बीच कलम को थामे कुछ सोच में निमग्न थी। बरामदे में किसी के चलने की आवाज से मेंहदी ने खिड़की से धीरे से झाँककर देखा। एक सोलह साल की लड़की डाइनिंग हॉल में इधर-उधर टहल रही है। उसके परिधान से वह राजघराने की सदस्य लग रही थी। वह काफी परेशान लग रही थी। एक हाथ में दूसरे हाथ को रखकर दबाने लगती तो कुछ ही पल में हाथ के नाखून चबाने लगती। जैसे कि कोई गहरी सोच में है। उसके चाल में भी बेचैनी नजर आ रही थी।

तब उसने देखा लाल रोशनी आंशिक रूप से बाहर बरामदे में फैली हुई है। जिसे देख उसके पैर अपने आप उस तरफ चल पड़े। उस लालबत्ती के उजाले में सुलेमा डाइनिंग टेबल पर अकेली बैठी हुई नज़र आयी। उसकी बहन सुषमा ने उस कमरे में प्रवेश किया। सुलेमा ने एक बार नजर उठाकर सुषमा की तरफ देखा और नजर झुका दी। उसके दिल में कश्मकश चल रही थी।

"सुलेमा ऐसे नज़र झुकाकर बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। समस्या का समाधान ढूँढना जरूरी है।" सुषमा ने कहा।

"लेकिन कैसे ?”

“पता नहीं कैसे ? लेकिन कुछ तो करना ही पड़ेगा।"

डाइनिंग हॉल के बीचोबीच डाइनिंग टेबल, टेबल पर एक साथ कम से कम २५-२६ लोग खाना खा सकते हैं। टेबल पर कुछ गुलदस्ते सजा रखे हैं। कमरे के एक कोने में एक बड़ा सा पानी का घड़ा। उस घड़े से गिलास में पानी भरकर सुषमा टेबल के एक कोने में बैठे हुए सुलेमा को लाकर दिया। दोनों के चेहरे से लग रहा था कि वे वहाँ काफी देर से बैठे हुए हैं। उनके बीच सन्नाटा राज कर रहा था। जैसे दोनों के बीच कुछ गहरी बातें चल रही हो और उन बातों को सुलझाने का रास्ता उनके पास नहीं था। इसलिए दोनों गहरी सोच में डूबे हुए हैं। सुषमा चुपचाप-सी बैठी हुई सुलेमा के इस रूप को जैसे पहली बार देख रही है। उसके इस नये रूप से सुषमा हैरान और परेशान है।

मेंहदी के चेहरे पर पसीना छूट रहा था। खिड़की के सामने खड़े अंदर के दृश्य को नजरअंदाज़ नहीं कर पा रही थी। वह उनके चेहरों को ठीक से देखना चाहती थी, मगर वे खिड़की से कुछ दूरी पर बैठे हुए थे, उनकी पीठ के अलावा मेंहदी को कुछ दिख नहीं रहा था।

सुषमा सुलेमा को समझाने की कोशिश करने लगी। सुलेमा चुपचाप उसकी सारी बात सुन रही थी। कुछ देर बाद सुषमा वहाँ से उठकर चली गई। सुलेमा बहुत देर तक वहाँ चुपचाप बैठी रही। अगर सुषमा ने पलटकर एक बार सुलेमा की आँखों को गौर से देखा होता तो उन आँखों में आँसू की झलक सुलेमा के दिल का हाल साफ-साफ बता देती। जैसे ही सुषमा उस कमरे से चली गई कमरे में अंधेरा छा गया।

बहुत देर तक कोई आवाज़ न होने से मेंहदी अंदर प्रवेश कर बिजली की बत्ती जलाई, मेंहदी को सब बिल्कुल वैसे ही नजर आया जैसे कि सब ठीक हो। वहाँ के माहौल में कोई भी बदलाव नजर नहीं आया। वहाँ कोई पानी का घड़ा नहीं था, न ही सुलेमा थी। टेबल पर सुलेमा का पानी पिया हुआ गिलास भी नहीं था। मेंहदी आगे बढ़ गई। इस बार सीढ़ियों से होकर ऊपर चढ़ने लगी। कुछ अस्पष्ट बातें कानों में पहुँच रही थी।

मेंहदी उस तरफ बढ़ गई। कमरे से हल्की सी रोशनी दिख रही थी। वह अंदर झाँककर देखा। कमरे में एक झूला, झूले पर दो अस्पष्ट शरीर। कमरा पूरी तरह राजसी ठाट-बाट से सजाया गया है। कमरे के बीच एक सिंहासन। सिंहासन के सामने मखमली चारपाई जिस पर अतिथियों के बैठने के लिए कुर्सियाँ सजाई गई हैं । पूरा कमरा लाल रोशनी से अलंकृत किया गया है। पीली कुर्ते, पयजामा और नीले रंग का दुपट्टा पहनी एक लड़की अपनी अम्मी के कन्धे पर सिर रखकर चुपचाप बैठी हुई है। उसके मन में लाखों सवाल थे। जिसका जवाब उस लड़की के पास भी नहीं थे। उन सवालों का जवाब शायद ही कोई बता सकता है। मुमताज की अँगुलियाँ उस लड़की के माथे पर धीरे-धीरे सहलाने लगी।

"क्या हुआ बेटा बहुत चुप-सी हो? क्या बात है? मुझे तो बताओ।” "नही अम्मी ऐसी कोई बात नहीं, आपकी गोद में सोने को जी चाहा बस चली आई।" बहुत धीरे-से आवाज़ आयी।

"बेटी, तुम्हारी ये खामोशी हमें बहुत सता रही है, अगर ऐसी कोई बात जो तुम्हें परेशान कर रही है तो हमें साफ-साफ बता दो। हो सकता है कि हम कुछ रास्ता निकाल लें।"

"अम्मी, अब्बूजान कहाँ है ?"

"अपने कमरे में आराम फरमा रहे हैं। कुछ खास बात है ?"

"नहीं, बस ऐसे ही।"

सुलेमा की बातें खूब निराशजनक लग रही थी। न ही वह पहली जैसी हिरन-सी चंचल थी, न ही उस्की आँखों में चपलता की झलक थी। उन आँखों के सपने ओझल हो चुके थे। जीने की कोई इच्छा भी उसके आँखों में नज़र नहीं आ रही थी। मुमताज को सुलेमा की बहुत फिक्र हो रही थी। सुलेमा वक्त पर खाने के टेबल पर आ तो जाती, मगर एक भी निवाला गले नहीं उतरता। फिर उठकर चुपचाप अपने कमरे में चली जाती। हमेशा हिरनी-सी चंचल, चपल लड़की का अचानक इस तरह मौन हो जाना मुमताज को खूब दुखी कर रहा था। सुलेमा की इस तरह चुप्पी मुमताज को हैरान कर रही थी।

"चलो दादीजान तुमसे मिलना चाहती हैं, उन्हें मिलकर अच्छा लगेगा।"

"लेकिन अम्मीजान उनका अब सोने का वक्त हो गया है न, सुबह को चलते हैं।"

"कुछ देर पहले तुम्हें मिलने का जिक्र कर रही थी। चलो ज्यादा देर इंतज़ार करवाना ठीक नहीं होगा।" दोनों उस कमरे से निकल गये । मेंहदी बिना कोई आवाज उस कमरे के दरवाजे के पीछे छिप गई। कमरे की सजावट को ध्यानपूर्वक देख रही थी मेंहदी। दरवाजे के ठीक सामने एक टेबल, उस टेबल के ऊपर एक गुलदस्ता रखा हुआ है। उस टेबल के सीधे ऊपर एक आईना उस राजपरिवार की शान को बयान करता हुआ दीवार पर शोभा दे रहा है। मेंहदी ने देखा उस आईने में एक पुराने कैलेंडर का प्रतिबिम्ब नज़र आ रहा है। कुतुहलपूर्वक उस कैलेंडर में उस दिन की तारीख, महीना और साल देखकर चौंक गई। संदेहपूर्वक आईने से नजर हटाकर सीधा उस कैलेंडर पर ध्यान दिया। मेंहदी का शक सही निकला। उस दिन और तारीख देखकर मेंहदी के होश उड़ गए। अक्टूबर ६ सन् १६२८।

फिर जब उसने आईने की तरफ देखा उसके चेहरे से पसीना छूटने लगा। अब उस आईने में अपनी छवि की जगह किसी और की तस्वीर नजर आ रही थी। उस तस्वीर के नीचे उर्दू में सुलेमा का नाम लिखा था। उसे देखते ही मेंहदी के पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक रही थी। कितने देर तक वह उस तस्वीर को देखती रह गई उसे ज्ञात नहीं रहा।

किसी के हाथ अपने काँधे पर महसूस होने से वह इस लोक में आई, लेकिन मुड़कर देखने का साहस भी नहीं था मेंहदी में, उसके पैर जैसे पत्थर बन चुके थे। मुश्किल से पलटकर देखा उसके ठीक पीछे स्वागता खड़ी है। "दीदी यहाँ क्या कर रहे हो।"

“वह...वह...." मेंहदी इतना चौंक गई थी कि उसके मुँह से कुछ शब्द ही निकल नहीं पा रहे थे।

“क्या दीदी इतनी रात गये, पता है मैं कितनी घबरा गई थी। "

"वहाँ.. वहाँ....।”

“वहाँ, क्या ?”

“वहाँ आईने में... आईने में...”

“दीदी, आईना...... यहाँ तो कोई आईना नहीं है।”

“उस आईने में.....।”

“दीदी, पहले यहाँ से चलिए, यहाँ कुछ भी तो नहीं है।"

मेंहदी उस खाली दीवार को देख हैरान थी।

"चलिए यहाँ से।” मेंहदी के काँधे को दोनों हाथ से पकड़कर वहाँ से धीरे अपने कमरे की ओर ले गई स्वागता।