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गगन--तुम ही तुम हो मेरे जीवन मे - 5

और शाम हो गयी थी।वहां से वापस लौटने के लिए रात में ही ट्रेन थी।हम लोग बाते करते रहे।फिर खाना बना था।पूड़ी सब्जी हलवा।खाना स्वादिष्ट था जिसे लड़की ने ही बनाया था।शाम को मतलब रात को एक मालगाड़ी रुकी उससे हम लोग बांदीकुई वापस आ गए।रास्ते मे भाई मुझसे बोला,"लड़की तो सुंदर है।"मैने कोई जवाब नही दिया था।
"खाना भी बहुत बढ़िया बनाया था।"
"यार मुझे शादी नही करनी।"
"क्या लड़की सुंदर नही है।"
"यह मैने कब कहा?"
"तो कोई कमी है?"
"नही।"
"तो फिर कैसे मना करेगा?"
मैं कुछ नही बोला।
"लड़की सुंदर है और खाना भी बहुत अच्छा बनाती है।मुझे तो पसन्द है।मैं हा कर देता हूँ।"
"तो कर दे।"
और ऐसे रिश्ते की बात हो गयी।
मैं उस रात बांदीकुई में जगदीश भाई के घर पर ही रुका था।ताऊजी तब बांदीकुई में ही हेड मास्टर थे।सुबह के स्कूल थे।इसलिए वह रात में ही बांदीकुई आ जाते थे।सुबह में गांव चला गया।जब मैं अपनी छुट्टी खत्म होने पर वापस आगरा जाने लगा तब ताऊजी बोले,"दशहरे पर छुट्टी लेकर आ जाना।वे लोग रोकने आएंगे।"
"छुट्टी मिलेगी तो आ जाऊंगा।"और मै चला गया था।
आज मैं नही कह सकता कि तब कैसा मुझे लग रहा था।हां मैने यह बात शायद किसी को नही बताई थी।
दशहरे के दिन मुझे पहुचना था लेकिन मैंने न छुट्टी को बोला।उन दिनों मैं बुकिंग में काम कर रहा था।दशहरे से एक दिन पहले स्टेशन मास्टर वर्मा मुझसे बोले,"तुम्हारी तो सगाई है।"
"हां।"
"तो जा क्यो नही रहे।"
असल मे मेरे ताऊजी ने लड़की के पापा से मेरी छुट्टी के बारे में बोला था।उस समय आगरा फोर्ट पर आर के वर्मा स्टेशन मास्टर थे।वह लड़की के पितां यानी के एल शर्मा के अधीन काम कर चुके थे।लड़की के पितां ने वर्मा को फोन किया और तब मुझे छुट्टी मिली और में गांव चला गया था।
और सन 1971 में दशहरे के दिन वे लोग आए और रिश्ता पक्का कर के चले गए।वैसे तो यह रिवाज है कि लड़के वाले भी लड़की रोकने जाते है लेकिन ताऊजी बोले कोई जरूरी नही है।रिश्ता हो गया था।हमारे कई परिचित रेलवे में थे जो लड़की वालों को ही नही लड़की को भी जानते थे।अब रिश्ता होने पर असमंजस तो था ही।
रिश्ता हो गया लेकिन शादी का मुहर्त पूरे 18 महीने बाद का निकला था।
आजकल तो रिश्ता होते ही लड़के की लड़की से फोन पर बात शुरू हो जाती है।एक ही शहर में हो तो मिलना जुलना भी शुरू हो जाता है।लेकिन उस समय ऐसा कुछ भी नही था।और लड़की का फोटो भी नही था।जिसे हम देखते रहते।और तो और उस समय तक लड़की का नाम भी मुझे पता नही था।और पूरे 18 महीने का ििनतजार।
इससे पहले मेरे ताऊजी गणेश प्रशाद के बेटे यानी मेरे कजन सुरेध की शादी हुई थी।इसमें मेरे होने वाले साले कमल व अशोक आये थे।
(आज मैं सोचता हूँ।फोन का जमाना नही था।तो क्या मुझे अपनी मंगेतर को पत्र लिखना चाहिए था या नही?उन दिनों शायद वो ही रिवाज था।आजकल तो रिश्ता होते ही लड़की के माता पिता ही बातचीत की इजाजत दे देते है।एक ही शहर में हो तो मिलने जुलने भी लगते है।कहा जाता है इससे समझ बनती है
लेकिन
जब शादी से पहले ही लड़का लड़की घुल मिल लेते है तो नवीनता खत्म हो जाती है