Mujahida - Hakk ki Jung - 35 in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 35

Featured Books
Categories
Share

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 35

भाग 35

खान साहब पाँचों वक्त के नमाज़ी थे। जब से ये ऐलान जारी हुआ था उनका मस्जिद जाना छूट गया था। दिन-रात वो उसी चिन्ता में घुले रहते थे। ये ऐलान उनके लिये बहुत बड़ा सदमा था। जुह़र की नम़ाज के वक्त उन्हें मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से रोका गया था। वह अपनी इस बेईज्ज़ती को बर्दाश्त नही कर पाये थे और अन्दर-ही-अन्दर घुट रहे थे।
परिवार के कुछ रिश्तेदार थे जो वाकई उनका साथ दे रहे थे। वैसे ज्यादातर लोग तो हमदर्दी दिखाने के बहाने राज जानना चाहते हैं या जख्म कुरेदने का लुत्फ उठाते हैं। इन सब बातों का अच्छा तजुर्बा हो गया था उन्हे। पीठ पीछे लोगों का बदलता हुआ रूप देख लिया था उन्होने और सामने कितना अलग? इस बात की चटकन बड़ी ही पैनी थी जिसने तमाम ऐसे चेहरों को नंगा कर दिया था जो उनके हमदर्द और खै़र ख़्वाह होने का दावे किया करते थे।
उन्होनें सुबह होते ही सबसे पहले उन्होनें वकील साहब को फोन किया और रात वाली घटना को तशरीह से बताया। उन्होनें उस पत्थर और कागज के पुर्जे को भी संभाल के रख लिया था। वह जानते थे कोर्ट में ये सबूत के तौर पर काम आ सकता है।
वकील साहब ने फौरन एक एफ.आई.आर. कराने को कहा। फिर उन्होने कुछ सोच कर कहा - "रुकिये खान साहब, मैं अभी आता हूँ आपके पास, उसके बाद ही चलते हैं।"
थाने पहुँच कर वकील साहब ने खान साहब और उनकी फैमिली की हिफाजत को लेकर सवाल उठाये थे और नाराजगी भी जताई थी। मामला संगीन हो चला था नतीजन उन्हे चार पुलिस कर्मी और दिये गये, जिन्हे चौबिस घण्टे के लिये मुकररर किया गया था। उन पुलिसकर्मियों में एक महिला पुलिस भी थी। जो फिज़ा के साथ ही भेजी गयी थी।
शबीना और फिज़ा भी खबर मिलते ही वापस लौट आये थे। उनके साथ शबीना के भाईजान भी थे। वो जब से आये थे बस बार-बार मुमताज खान से मुकदमा वापस लेने की गुजारिश कर रहे थे। चूंकि वह उन लोगों की हिफ़ाज़त को लेकर काफी डर गये थे। उन्हें इस बात का भी डर था कि ये हादसा दुबारा भी हो सकता था। मगर खान साहब ने साफ-साफ कह दिया था- "वह हरगिज मुकदमा वापस नही लेंगे। चाहे कुछ भी हो जाये। उनका ऐसा कोई भी इरादा नही है। वो अपनी बेटी को इन्साफ दिला कर ही रहेंगे।" वह जानते थे हारने वालों को दुनिया जीने नही देती। दुनिया की तो छोड़ दो खुद की रुह भी कचोटती रहती है ये कह कर "तुम बुझदिल हो, कायर हो, तुम हारे हुये हो, तुम्हे जिन्दगी जीना नही आता।" बची हुई जिन्दगी भी मौत जैसी ही हो जाती है। वो इसी तड़प में घिसटती है कि गुनाहगार खुला घूम रहा है और वह विना किसी गुनाह के दुख झेल रहा है। आप दुनिया से लड़ सकते हैं पर खुद से लड़ना इतना आसान नही होता।
मुमताज खान की इन दलीलों के सामने फिज़ा के मामूजान खामोश हो गये।
शबीना का दिल चैन में नही था। उसने आते ही खान साहब से उस पूरी घटना के बारे में पूछा। उस घटना की खबर से वह बुरी तरह डर गयी थी और न जाने क्या-क्या ख्याल उसके दिल में आने लगे थे। एक बार को तो उसे भी लगने लगा था कि मुकदमा वापस ले लिया जाये। उन लोगों की नीचता कहीँ और न बढ़ जाये? हमेशा बुरे वक्त में और भी बुरे ख्याल आना कोई बड़ी बात नही होती।
उसने बेवजह फिर से घर के सभी खिड़की, दरवाजों को दुरूस्त किया। हलाकिं वो पहले से बन्द थे फिर भी वह तसल्ली कर लेना चाहती थी। बेशक चार पुलिस वाले उन्हे उनकी हिफ़ाज़त के लिये तैनात किये जा चुके थे। फिर भी वह खुद जाँच लेना चाहती थी।
फिज़ा ने उस कागज़ के पुर्जे को देखा और एक बार अपने अब्बू जान की तरफ। "या अल्लाह! हमारे अब्बू जान की हिफ़ाज़त करना।" उसने इवादत की और खुदा का शुक्रिया अदा किया।
अब से उनके घर के नीचे जो चार पुलिस कर्मी तैनात थे। जो चौबिस घण्टे बारी- बारी से वहाँ रहते थे। किसी भी आने-जाने वाले का बगैर नाम, पता पूछे या रजिस्टर पर हस्ताक्षर कराये विना अन्दर नही जाने दिया जाता था। कोई भी अजनबी उनके घर में उनकी इज़ाजत के बगैर नही घुस सकता था। आने वाले हर इन्सान की पूरी तहक़ीकात होने लगी थी। ये उन लोगों की हिफ़ाज़त के लिये बहुत जरुरी था।
हिफ़ाज़त का बंदोबस्त तो हो गया था। ज़हनी तकलीफ़ अभी बरकरार थी वो न जाने कब खत्म होगी? पता नही ये केस कितना लम्बा खिचें। अमूमन ऐसे मुकदमों में काफी वक्त लगता है। शबीना को याद हो आई, जमीन वाला मुकदमा भी अभी लंबित है। उसके साथ-साथ ये मुकदमा और लग गया था। अब खान साहब को दो मुकदमों की पैरवी करनी थी। जिसका रंज शबीना भी बखूबी हो रहा था। रही जमीन की बात तो वह लाखों की थी भला कौन उसे ऐसे ही छोड़ देता। एक बार खान साहब ने उसकी कीमत लगवाई थी तो करोड़ से ऊपर ही लगी थी। कयास था कि थोड़ा वक्त रूका जाये तो यह और बढ जायेगी। इस बीच न जाने कहाँ से ये दुश्मन आ टपके थे।
शबीना जब भी अपनी चाँद सी बेटी का मुरझाया हुआ चेहरा देखती उसका दिल टूट जाता था। कभी-कभी उसे लगने लगता भले ही जमीन का मुकदमा टल जाये मगर उसकी बेटी को इन्साफ मिल जाये। उसे समझ नही आता वह ऐसा क्या करे जिससे उसकी फिज़ा के चेहरे पर मुस्कान आ जाये और वह पहले की तरह हँसने-बोलने लगे। बेशक वह हिम्मत से लड़ रही थी। अपने लिये और उन सभी मज़लूम औरतों के लिये, जो तलाक का शिकार हैं, जुल्मों से परेशान हैं। ऐसी तमाम औरतें हैं जिन्हें घरों में जरा भी तबज्जो नही मिलती, या तो वह बच्चे पैदा करने के लिये निकाह में लाई जाती हैं या फिर घर की देखभाल के लिये। ऐसी औरतें सिर्फ मुसलमानों में ही नही हैं। हिन्दुओं में भी हैं। हर धर्म और जाति में हैं। जहाँ वह रोज पीटी जाती हैं, बात-बात पर घरों से खचेड़ कर निकाली जाती हैं। बेईज़्ज़त की जाती हैं। वक़्फ न करने पर धमकाई जाती हैं।
उन सभी औरतों को एक मजबूत औरत का साथ चाहिये था। जिससे उन्हे ज़हनी मजबूती मिल सके और वो गुलामी की जंजीर को तोड़ सकें। अपने हक़ के लिये आवाज़ उठा सकें। क्या पता फिज़ा उनके लिये एक रहनुमा साबित हो? फिज़ा से उन्हे हिम्मत मिले और वह भी अपनी घुटती हुई जिन्दगी से बाहर निकल पायें।
शबीना की दुआओं में अब हर वक्त फिज़ा रहती थी। फिज़ा के साथ-साथ उन सारी मज़लूम औरतों का ख्याल भी उसे आने लगा था। जब तक खुद पर न बीते दूसरे के दर्द का अहसास कहाँ होता है। एक कहावत भी है- ' घायल की गति घायल जाने, जौहर की गति जौहर।'
जब से फिज़ा का तलाक हुआ था, एक लम्हां भी ऐसा नही गया जब उसे अपनी ननद नूरी का ख्याल न आया हो। अभी तो आठ बरस ही गुजरे थे उस हादसे को, जैसे कल की ही बात हो। रिश्तों में अगर मिठास हो तो उसका मीठापन ताउम्र नही जाता है। कहने को तो उन दोनों का रिश्ता ननद भाभी का था मगर शबीना ने उसे हमेशा छोटी बहन की तरह ही चाहा था। दोनों में खूब घुटती थी। दोनों में क्या तीनों में, नुसरत भी उसके लिये बिल्कुल वैसी ही थी जैसी नूरी थी। रह-रह कर शबीना को नूरी की याद सताती थी। उसे डर था अगर इस बात का जिक्र वो घर में करेगी तो सब अफ़सुर्दा हो जायेंगे। इसलिये वह अपने अब्सार से बहने वाले आँसुओं को झुठला देती ये कह कर- 'आँख में तिनका चला गया है।'
बेशक नूरी को तलाक दिया गया था और वह उस सदमें को बर्दाश्त नही कर पाई थी, वह कमजोर थी, टूट गई थी। हारी हुई जिन्दगी का दर्द क्या होता है ये वह अच्छी तरह जानती थी। खुदकुशी करना इतना आसान नही होता खुद को ज़िन्दा रखने के लिये आदमी किसी भी हद से गुजर जाता है। अपने जीवन भर की पाई-पाई लगा देता है। मरते वक्त भी वह यही चाहता है काश! वह थोड़े दिन और ज़िन्दा रह पाता। बावजूद इसके अगर कोई अपनी जिन्दगी को अपने ही हाथों खत्म कर रहा है तो अन्दाजा लगाना मुश्किल है। कितना दर्द? कितनी मायूसी? रही होगी उसके अन्दर, जिसे समझ पाना वास्तव में किसी के बस का नही है।
लेकिन उसके ससुराल वालों ने ऐसी टुचची जुम्बिश नही की थी, जैसी फिज़ा के ससुराल की तरफ से हो रही थी। अस्बाब साफ था, फिज़ा झुकी नही, टूटी नही, अपने ह़क के लिये आवाज़ उठाने की हिम्मत की और उसकी सज़ा तो उसे मिलनी ही थी।
क्रमश: