Sabaa - 18 in Hindi Philosophy by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | सबा - 18

Featured Books
Categories
Share

सबा - 18

राजा ने बिजली को अपनी बांहों में लेकर भींच रखा था। बिजली की आंखें बंद थीं और उसे लग रहा था कि उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सुख थोड़ी देर के लिए उसके साथ है।
लेकिन ये गोरखधंधा अब तक उसे समझ में नहीं आया था। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई! उसका दिल कह रहा था कि वह यहां से उड़ कर तुरंत अपनी मैडम के पास पहुंच जाए और इस पहेली के अर्थ उनसे ही जाकर पूछे। शायद तब ज़िंदगी कुछ समझ में आ जाए।
लेकिन मैडम के पास पहुंचना तो दूर, अभी तो उसे अपने घर पहुंचना था, अपनी मां के पास, अपने बापू के पास, चमकी के पास!
जोश- जोश में ही उसने ये न जाने क्या कर लिया था कि किसी को भी बताए बिना इस तरह अजनबियों के साथ चली आई। अपने एक ऐसे प्रेमी के पीछे पागल - दीवानी होकर, घर बार छोड़ कर, जो उसे बार- बार जता चुका है कि वो किसी भी दिन उसकी दुनिया से किसी पखेरू की तरह उड़ कर दूर चला जायेगा।
क्या सोचा था बिजली ने, कि उसे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना होगा? रात भर पराए लड़के की सरपरस्ती में रह कर घर लौटी लड़की को उसके माता - पिता, दकियानूस समाज क्या ऐसे ही माफ़ कर देंगे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
क्या सोचा था बिजली ने कि एक जवान लड़की को अपने लिए घर- वर ढूंढने की ऐसी खुली छूट है कि वो किसी को बताए बिना घर से निकल कर भटकती रहे और अंततः शिकारी की तरह अपने शिकार को फंसा कर घर ले आए।
ओह! बिजली ने कुछ सोचा ही कहां था?
बिजली ने ये कहां सोचा था कि चमकी, मां और बापू ही नहीं बल्कि पुलिस तक उसकी वापसी की बाट जोह रही होगी। बिजली ने ये कहां सोचा था कि मोहल्ले भर में ये ख़बर आग की तरह फ़ैल जायेगी कि बिजली घर छोड़ कर भाग गई।
बाप रे! इतना मुश्किल होता है क्या लड़की के लिए अपने दिमाग़ का पीछा करना!
चलो, एक गुत्थी तो सुलझी। चाहे इसमें उलझ कर खुद बिजली की ज़िंदगी एक तमाशा बन गई हो। कम से कम ये तो पता चला कि ये बेचारा भोला - भाला राजा एक के बाद एक झूठी कसमें तो नहीं खा रहा था। इस बेचारे से तो ख़ुद इसकी तक़दीर खेल खेलने में लगी थी।
असल में राजा को अपनी नौकरी के रहनुमा, अपनी दुकान के मालिक के दबाव में आकर काम करना पड़ रहा था। राजा इस स्थिति में नहीं था कि एकाएक उसकी बात को मानने से इंकार कर सके क्योंकि राजा उसके अहसानों के तले दबा हुआ था। जवान लड़का किसी कर्ज़ को तो उतार भी दे पर अहसान को उतारना आसान नहीं होता। इसके भी नियम कायदे होते हैं जिनकी पालना करनी पड़ती है।
राजा की ये होने वाली शादी कोई असली शादी नहीं थी। इसमें उसकी मर्ज़ी या नामर्जी का कोई सवाल ही नहीं था। ये तो एक सौदा था जिसमें बेचारे राजा को एक मोहरा बनाया गया था।
तब क्या नंदिनी के साथ कोई धोखा होने जा रहा था? क्या उसके परिवार को भी अंधेरे में रखा जा रहा था? नहीं, बिल्कुल नहीं। बल्कि नंदिनी को तो ख़ुद एक बहुत बड़े धोखे से बचाया जा रहा था। उसके जीवन को बिखरने से रोका जा रहा था।
तब फ़िर ये सब था क्या? कोई षड्यंत्र, कोई नाटक, कोई खेल???
नहीं! बात दरअसल यह थी कि नंदिनी के पिता ने धन के लोभ में बेटी से पीछा छुड़ाने की गरज से नंदिनी का रिश्ता एक ऐसे लड़के से कर दिया था जो श्रीलंका में नौकरी करता था।
जब नंदिनी के पिता ने ग्वालियर में जाकर अपनी बेटी के लिए यह रिश्ता तय किया तब किसी कारण से लड़का उसे छुट्टी न मिल पाने के कारण आ नहीं सका था और केवल घर बार की प्रतिष्ठा तथा लड़के के एक फ़ोटो के सहारे ही नंदिनी के पिता ने यह रिश्ता मंजूर करके पक्का कर दिया।
अब जब सगाई का समय आया तो लड़का फ़िर नहीं आ सका और राजा को ही वो लड़का बता कर सगाई की जा रही थी। खुद राजा को भी ये समझाया गया था कि उसे केवल लड़के के लौट कर आने तक ही "दूल्हे" की भूमिका में रहना है। उधर लड़का वापस लौटा और इधर राजा आजाद!!!