Sabaa - 25 in Hindi Philosophy by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | सबा - 25

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सबा - 25

बिजली को लगभग पैंतीस मिनट का इंतज़ार करना पड़ा। जब मैडम आईं तो उन्होंने बिजली के अभिवादन का भी जवाब नहीं दिया और घर का दरवाज़ा खोल कर भीतर दाखिल हो गईं। लेकिन जैसे ही मैडम ने पलट कर बिजली से कहना चाहा कि वो पहले एक कप चाय बनाले, बिजली उनकी तरफ़ कातर दृष्टि से देखती हुई ज़ोर से रो पड़ी।
हतप्रभ मैडम समझ गईं कि बिजली की पिछले दिनों अचानक अनुपस्थिति ज़रूर किसी ख़ास परेशानी की वजह से ही है और उनके तेवर तुरंत बदल गए।
वो नेपकिन से मुंह पौंछते हुए बस इतना ही कह सकीं - अरे, क्या हुआ?
बिजली एकाएक जैसे अपनी ज़िंदगी के इस कड़वे प्रसंग को मैडम के सामने ठीक उसी तरह उंडेलने के लिए उतावली हो गई जैसे कोई कुशल गृहणी किसी ख़राब हो गए अचार को जल्दी से फेंक देना चाहती है।
चाय की चुस्कियों के बीच मैडम ये कड़वी कहानी सुनती रहीं।
बिजली आंखें पौंछती हुई अपने काम में लग गई।
मैडम बैठी - बैठी सोच रही थीं कि स्त्री- पुरुष का मिलना कुदरत ने एक तरफ़ तो दुनिया चलाने के लिए निहायत ज़रूरी बना दिया और दूसरी तरफ उन दोनों के सहजीवन में इतनी पेचीदगियां भर दीं।
उन्हें लगा वास्तव में तो एक आदमी को औरत बस थोड़ी देर के लिए चाहिए। जब उसे भूख लगे!!!
अब ये भूख चाहे पेट में रोटी की हो या तन के बुखार को उतारने की, या फिर उसके सार्वजनिक जीवन में विचरण के दौरान उसके बगल में एक महकते हुए सजावटी गुलदस्ते की। बस! फिर औरत अपना काम देखे, अपना रास्ता देखे।
हां, यदि वो कुछ कमा सकती हो तो वो भी लाकर उसे दे दे।
लेकिन प्रकृति ने औरत को भी तो केवल ऐसा नहीं बनाया न!
औरत को आदमी हर समय चाहिए। पास न बैठ सके तो उसकी मानस गंध चाहिए। सामने न हो तो उसकी स्मृति चाहिए। औरत को चाहे उसकी नफ़रत मिलती रहे, चाहे मोहब्बत, चाहे उसके तन के जवाहरात, चाहे उसकी विरह के आंसू! पर हर समय उसका कुछ न कुछ!
अब ये कैसे संभव हो?
ये विधाता के सोच की विसंगति ही तो है।
रसोई से बहुत प्यारी खुशबू आ रही थी शायद बिजली ने बहुत मन से मैडम की कोई मनपसंद सब्ज़ी बनाई थी। मैडम ने अपने बेडरूम में जाकर अपनी वॉर्डरोब खोली और एक सुंदर सा पैकेट लाकर सलीके से बाहर सोफे पर रख लिया, शायद बिजली को देने के लिए।
दुख के बाद जब जीवन भरी धूप फिर से निकलती है तो इंसान का मनोबल बढ़ाने के लिए कुछ तो चाहिए। और वैसे भी कहीं से गिफ्ट में मिली ये ड्रेस मैडम खुद तो पहनने वाली नहीं थीं। अब ऐसी पोशाक पहनने की न तो उम्र रही थी और न चाहत।
जब काम पूरा कर के बिजली मैडम के घर से वापस लौटी तो उसका जी बहुत हल्का सा था।
मैडम ने भी सारी बात सुन कर उसे यही सुझाया था कि वह आहिस्ता से अपने मन को समझा कर उस लड़के राजा को अपनी ज़िंदगी और जहन से बिल्कुल निकाल दे। मैडम ने उसे ये भी कहा था कि लड़का अब निरीह और भोला नहीं रहा। उसकी जीवन शैली को अनोखे स्वाद लग चुके हैं।
बिजली ये बातें बिल्कुल नहीं समझी थी।
कभी - कभी तो मैडम ऐसी बातें करती थीं कि जैसे कोई साध्वी प्रवचन कर रही हो और कभी ऐसी ही पहेलियां बुझाती थीं कि बिजली को मैडम भी चमकी की तरह फांदेबाज़ ही दिखाई देने लगती।
यहां आते हुए इतने दिन हो गए थे पर बिजली अभी तक ये नहीं जान पाई थी कि इन मैडम का और कौन है, इनका इतिहास क्या है, इनका परिवार क्या है, क्या करती हैं? लेकिन एक भरे पेट के डकार लेते आदमी से भला कोई ये कैसे पूछे कि तुम्हारी रोटी कहां से आती है? किसी नंगे- भूखे से तो फिर भी पूछा जा सकता है। जाने दो, बिजली को क्या करना! उसे तो अपना काम करना है और निकल जाना है।
न तो इतना सब कुछ जानने की उसकी औकात ही है और न इतनी ज़रूरत।
औरतों में होती होगी ऐसी बातें जानने की खलबली। बिजली तो अभी लड़की ही है, औरत कहां बनी?
अच्छा याद आया! एक दिन राजा ने उससे कहा था कि लड़की और औरत में क्या फ़र्क होता है, ये एक न एक दिन उसे समझाएगा! कहां होगा राजा...?