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उच्‍च शिक्षा की राह

मन्‍यसे यदि तच्‍छक्‍यं मय द्रष्‍टुमिति प्रभौ।

योगेश्‍वर ततो मे त्‍वं दर्शयात्‍मानमव्‍ययम्।।

भावार्थ:- अर्जुन कहते है कि है प्रभु, यदि आप ऐसा मानते है कि मेरे द्वारा आपका वह परम ऐश्‍वर्य रूप देखा जा सकता है, तो आप मुझे अपने उस अविनाशी स्‍वरूप के दर्शन दीजिए।

 

'अकादमिक बोझ के बजाय प्रतिस्‍पर्धी दबाब छात्रों पर कहीं अधिक भारी पड़ रहा है, जो कई बार आत्‍महत्‍या का कारण भी बन जाता है।'

 

इस साल की सबसे दुखद खबरें राजस्‍थान के कोटा शहर से आई है जहां कई छात्रों ने आत्‍महत्‍या कर ली है। अकादमिक दबाव के समक्ष चुवा छात्र-छात्राओं का इस प्रकार बिखर जाना बहुत ही त्रासद है । इससे भी आधिक चिंताजनक यह है कि क्‍या हमने इन स्थितियों से बचने के लिए पर्याप्‍त प्रयास कि हैं या नहीं, इस तथ्‍य को स्‍वीकारने में  कोई संकोच नहीं कि भारत में इंजीनियरिंग एवं मेढिकल प्रवेश के लिए परीक्षा  विश्‍व की कठिनतम परीक्षाओं में से एक हैंं।भले ही अकादमिक परिदृश्‍य कितना ही कठिन क्‍यों न हो, लेकिन हम उसकी गुणवत्‍ता से कोई समझौता नहीं कर सकते। यदि हम ज्ञान के इस युग में शीर्ष पर रहना चाहते हैं तो गहन शिक्षा का कोई विकल्‍प नहीं हो सकता। वस्‍तुस्थिति यह है कि अकादमिक बोझ के बजाय प्रतिस्‍पर्धा दबााव  छात्रों पर कहीं अधिक भारी पड़ रहा हैं। इस विकराल होती समस्‍या के समाधान के लिए आवश्‍यक है कि हम वास्‍तविक पहलुओं पर ध्‍यान केंद्रि करें।

देश में उच्‍च शिक्षा के मोर्चे पर मांग एवं आपूर्ति की दृष्टि से गहरी खाई विद्यमान है। लाखों आवेदकों की तुलना में उपलब्‍ध सीटों की संख्‍या अत्‍यंत सीमित है, जिसके कारण सफलता की दर बहुत कम है। विशेषरूप से सामान्‍य वर्ग के उन छात्रों के लिए जिन्‍हें किसी प्रकार के आरक्षण का लाभ नहीं मिलता। ऐसे में हमें अपना बुनियादी ढांचा बेहतर बनाना होगा। अधिक कालेज और विश्‍वविद्यालय खोलने होगें  ताकि ज्‍यादा सीटों के साथ  अधिकतम छात्र समायोजित हो सकें। जिस गति सें मांग बढ़ रही है, उसकी पूर्ति के लिए आपूर्ति कई गुना बढ़ानी ही होगी।

उच्‍च शिक्षा में निजीकरण की व्‍यवस्‍था  भी अपेक्षित रूप से फलदायी नहीं शिद्ध हो पाई। अधिकांश निजी कोलेजों के साथ गुणवत्‍ता की समस्‍या हैं, जिस कारण वे छात्रों की पहली प्राथमिकता नहीं बन पाते। प्रतिष्ठित संस्‍थानों में चुनिंदा सीटों का होना एक प्रमुख चुनौती है। इसीलिए छात्रों की वरीयता यूची में शीर्ष पर आने वाले शिक्षण केंद्रों की क्षमताओं को बढ़ाना अति आवश्‍यक है। विशेष रूप से टीयर 2 और टीयर3 शहरों में निजी क्षेत्र के साथ सहयोग, शिक्षा में निवेश बढ़ाने एवं विदेशी विश्‍वविद्यालय के सुगम प्रवेश जैसी कुछ पहल हैं, जिन पर तत्‍परता के साथ काम किया जाना चाहिए। अन्‍य क्षेत्रों की भां‍ति शिक्षा में भी डिजीटलीकरण कायापलट करने वाला हो सकता है। वर्चुअल कक्षाओं और आनलाइन टेस्‍ट जैसे विचार को अब साकार रूप देने का समय आ गया है। इसमें कुछ आरंभिक अड़चने आ सकती हैं, लेनि हमें उनसे प्रभावित हुए, बिन वर्चुअल पठन-पाठन के परिदृश्‍य को और विकसित करना चाहिए।

हमारी शिक्षा प्रणाली की एक बड़ी समस्‍या यह है कि इसमें किसी एक परीक्षा विशेष पर हद से ज्‍यादा जोर होता है। यह चाहे इंजीनियरिग के लिए जेईई हो चा फिर मेडिकल के लिए नीट या हाल में शुरू की गई संयुक्‍त विश्‍वविद्यालय प्रवेश परीक्षा यानी सीयूईटी, छात्रों का भविष्‍य किसी एक परीक्षा विशेष में प्रर्दशन पर टिका होता है। यह बिलकुल किसी टी-20 मैच की तरह है कि एक खराब दिन आपको प्रतियोगिता से बाहर कर सकता है। हमारी प्रवेश प्रक्रिया के उलट विकसित देशों में प्रचलित प्रवेश परीक्षाओं की प्रकृति पर दृष्टि डालने से एक वैकल्पिक तस्‍वीर उभरती है। विश्‍व में अमेरिकी शिक्षण कारण अमेरिका सर्वाधिक छात्रों की पहली पसंद होता है। उच्‍च शिक्षा में प्रवेश के लिए अमेरिका में किसी छात्र के कक्षा नौ से बारहवीं के प्रदर्शन, अकादमिक से इतर खेल एवं  अन्‍य गतिविधियों में छात्र की रूचि एवं स्‍तर का संंज्ञान लिया जाता है। कालेज बोर्ड द्वारा आयोजित मानक परीक्षाओं का भी महत्‍व होता है। आवेदन पत्र की प्रकृति भी ऐसी होती है, जिसमें छात्र के लिए खुद को अभिव्‍यक्‍त करने का अवसर मिलता है। इससे प्रवेश का निर्णय करने वाली परिषद छात्र का समग्रता में आकलन करती है। चूंकि इसमें विभिन्‍न पैमानों का समावेश होता है इसलिए न केवल छात्र का बेहतर मूल्‍यांकन हो जाता है, बल्कि की गुंजाइश भी घट जाती है। केवल एक ही परीक्षा अंतिम होकर भाग्‍य निर्धारक नहीं बन जाती। क्‍या हम सबसें विकसित देश से कुछ सीख लेकर अपनी परिस्थितियों के अनुरूप उसमें जरूरी बदलाव कर सकते हैं या नहीं।

हमारी शिक्षा प्रणाली आज एक अनोखी वर्ग विशिष्‍टतााका प्रतीक बनकर हर गई हैं। जिस प्रकार देश में एक आर्थिक अभिजात्‍य वर्ग है, वैसे ही शिक्षा में एक कुलीन वर्ग स्‍थापित हो गया, जहां शीर्ष पर रहने वाले पांच प्रतिशत या उसके आसपास ही गुणवत्‍तापुुुुर्वक उच्‍च शिक्षा हासिल कर पाते हैं। बचे हुए लोगों में जो वहन करने में सक्षम होते हैं, विदेश चले जाते हैं। यह प्रतिभा पलायन का भी कारण बनता है। जो विदेश नहीं जा पाते, वे समझौते या संघर्ष के लिए विवश हो जाते हैं। इससे दबाव उत्‍पन्‍न होना स्‍वाभाविक है।

ऐसे में यक्ष प्रश्‍न उभरता है कि क्‍या औसत छात्रों के लिए भी अपनी पसंद या रूचि की उच्‍च शिक्षा तक सहज पहुंच नहीं होनी चाहिए क्‍या ये सही है, इसमें समाज और विशेष रूप से अभिभावकों, अध्‍यापकों और सहपाठियों की भूमिका अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है। नि:संंदेह इंजीनियरों, डाक्‍टरों, कंप्‍यूटर एवं तकनीकी पेशेवरों की हमेशा से बड़ी आवश्‍यकता रही हैं और वह भविष्‍य में भी बनी रहेगी। वहीं, इस तथ्‍य को भी विस्‍मृत नहीं किया जाना चाहिए कि लेखाकारों, बैंकारों, वकीलों, वित्‍तीय सेवा प्रदाताओं के अतिरिक्‍त शिक्षकों, कलाकारों एवं लेखकों के साथ ही अन्‍य गैर-तकनीकी लोगों के लिए भी अवसरों की कमी नहीं रहेगी। किसी भी शिक्षा एवं व्‍यवसाय में सबसे महत्‍वपूर्ण बिंदु गुणवत्‍ता का है। तकनीकी दक्षता एक महत्‍वपूर्ण कौशल अवश्‍य हैं, फिर भी पारंपरिक विज्ञान को लेकर यह जुनून थमना ही चाहिए।

इस चर्चा में नागरिक समाज के लिए भी कुछ विचारणीय पहलू हैं। क्‍या हम अपने बच्‍चों को एक-संवेदनहीन समाज का सामना करने के कएल तैयार करें या उनकी ऐसे परवरिश करें कि वे इस दुनिया को अधिक संवेदनशील बनाएं क्‍या ये सही है, लैटिन की एक प्रसिद्ध कहावत है- 'ओ टेंपोरा, औ मोर्ज' जो समाज की विकृतियों से जुड़ा वयंग्‍यात्‍मक बिंब है कि हम आखिर कैसे दौर मे जी रहे हैं। यह इस संदर्भ में प्रसांगिक है कि हम असफल को सांत्‍वना देने के बजाय सफल को बधाई देने के लिए अधिक उत्‍साहित रहते हैं। अब यह अनिवार्य है कि छात्रों के तनाव और उनके बीच बढ़ती आत्‍म्‍हत्‍या की प्रवृत्ति को रोकने के लिए हमें एक संवेदनशील और समानुभूतिक भाव वाले समाज के सृजन के लिए प्रयासरत होना चाहिए। 

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