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भगत सिंह

सत्तर के दशक में भारतवर्ष में 1 महत्वपूर्ण अविष्कार, और 2 खास खोजें हुई।

पहले खोज और अविष्कार का अंतर जान लें। खोज, अर्थात डिस-कवर। मने कोई चीज पहले से थी, लेकिन लोगो को पता न था। उसका कवर हटाकर,आपके सामने लाया जाए, पहचान कराई जाए।

जैसे कोलंबस ने अमेरिका को खोजा। मगर अमेरिका तो वहां सदियों से था। यूरोपियन्स को ही न मालूम था। तो अमेरिका खोजा गया, उसका अविष्कार नही हुआ।
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अविष्कार वो चीज है, जो पहले थी नही। कुछ जोड़ जाड़कर एक नया ही आइटम बना दिया जाता है। जैसे तार, कांच, बिजली जोड़कर बल्ब बल्ब बना दिया, टीवी, रेडियो, टेलीफोन बना दिया।

इन सबको जोडजाड़कर मोबाइल फोन.. तो ये हुई इंवेशन, उर्फ अविष्कार।
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तो भारत में संतोषी मां का अविष्कार हुआ। ऐसे तो हमारे यहां पहले से 33 करोड़ देवता थे। मने हमारी पॉपुलेशन आजादी के समय 30 करोड़ थी, देवता 33 करोड़।

वैदिक काल मे एकाध करोड़ पॉपुलेशन होगी। तो प्रतिव्यक्ति 33 देवता का औसत था।

आधुनिक युग मे जब मानवीय पॉपुलेशन बढ़ने से प्रति व्यक्ति औसत कम हो गया, तो नए देवी देवता के आविष्कार की जरूरत पड़ी। मां संतोषी का अविष्कार इस क्रम में महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

जैसे मीडिया आज नए नए देवता गढ़ रहा है, तब सिनेमा ने यह आविष्कार किया। विजय वर्मा नाम के डायरेक्टर ने मात्र 25 लाख की लागत से जय माँ सन्तोषी बना डाला।अविष्कार सुपरहिट रहा।

इसने लोगो का जीवन प्रोफाउंडली बदल दिया।
हर हर संतोषी, घर घर संतोषी आगे दस साल तक चला। गुरुवार को व्रत होते, पीला खाया, पीला पहना जाता।

संतोषी मां का वर्चस्व, सर चढ़कर बोला। जब तक कि 86-87 में राजनीतिक रूप से, न्यू श्रीराम की खोज ने संतोषी मां को ओवर शैडो न कर दिया।

न्यू श्रीराम की खोज, एक पृथक किस्सा है फिर कभी।
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इस दौर में अंबेडकर की खोज हुई। कांशीराम, भारत देश मे दलित चेतना के लिए सबसे उत्तुंग, शिखर एक्टिविस्ट हुए। सायकल पर घूम घूम अलख जगाने वाले इस धरतीपकड़ पहलवान का योगदान, बेहद अंडर रेटेड है।

आज दलित समाज के मुंह मे जो जुबान है, जो गाली देने का माद्दा है ( जिसका बुरा नही मानना चाहिए, मैं भी दूध भात ही लेता हूँ) वह जुबान कांशीराम की देन है।

दलित राजनीति, उनकी ताकत, उनका बल, राजनीतिक पटल पर उनकी रेलेवेंसी, सब कुछ 100% मान्यवर कांशीराम जी की देन है। मगर उनकी प्रमुख खोज है- अंबेडकर

स्वयं की मूर्तियां मायावती बनवा सकती है। पर कांशीराम विनम्र थे, दूरदर्शी थे। उन्हें सन 47 के पहले का फिगर चाहिए था। क्योकि भारतीय जनमानस जानता है, कि महान लोग तो सिर्फ 47 के पूर्व ही पैदा होते थे।

तो उन्हें मिले बाबा साहब। परफेक्ट सीवी, वे स्कॉलर थे, सविधान सभा के सदस्य, प्रारूप समिति के सदस्य थे। मगर प्रारूप लिखने का श्रेय खुद ही, बीएन राव को देकर, इतिहास के पन्नो में गुम हो चुके थे।

कांशीराम ने उन्हें गुमनामी से निकाला। अपने आंदोलन का मैस्कॉट बनाया। नीले कोट, हाथ मे किताब और आसमान की ओर उंगली करती मुद्रा में हजारों अनगढ़ मूर्तियां बनी। अंबेडकर देश की मानसिक चेतना में जिंदा हो गए।

इसके पहले, विवेकानन्द ने भी हर काम "रामकृष्ण मिशन" के नाम से किया। पर लोग, श्री परमहंस से ज्यादा, विवेकानंद को ही श्रेय देते हैं। कांशीराम का काम, अंबेडकर के शुभंकर के संग बढ़ा। कालांतर में कांशीराम की विरासत बेच दी गई, अंबेडकर साहब का पुतला खड़ा रह गया है।

परन्तु ये खोज, संतोषी मां के आविष्कार से बेहतर है। इसलिए कि अंबेडकर का नाम, इंसानों के काम आता है। देवताओं के नही।
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तीसरी खोज मेरे दिल के करीब है। इतिहासकार विपिन चन्द्र ने कुछ पन्ने खोजे- शीर्षक था "मैं नास्तिक क्यो हूँ??"

इन पन्नो में, दशकों पहले, फांसी पाये क्रांतिकारी भगत सिंह के विचार थे। ये क्रांतिकारी भारतीय जनमानस की स्मृतियों में धूमिल थे।

चंद्रशेखर आजाद, बिस्मिल, सूर्यसेन, खुदीराम, अशफाक..UPSC की तैयारी और बच्चो के निबंध लेखन के काम आते थे।

विपिन चन्द्र ने, भगतसिंह के तमाम लेख, विचारों को सामने लाकर उनकी ब्रेन मैपिंग कर दी। टोपी पिस्टल वाला ये छबीला नौजवान, एक उच्च कोटि का दार्शनिक मष्तिष्क रखता था।

जागरूक, दूरदर्शी, सुलझा हुआ विचारक था। महज 23 की उम्र के फुल स्टॉप के बावजूद जो लिख गए, दे गए। इसकी तुलना 32 की उम्र में अद्वेत वेंदान्त की व्याख्या दे जाने वाले शंकराचार्य से होनी चाहिए।

फिर तो भगतसिंग पर बड़ा लेखन हुआ। आज
जिस भगत को हम जानते हैं, पूजते हैं। उसे सजीव, सदेह करने वाले, विपिन चन्द्र हैं।
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शास्त्रों में लिखा है

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय

अतएव मैं विजय वर्मा, मान्यवर कांशीराम और विपिन चन्द्र को नम्र हृदय, और पूर्ण श्रद्धा से नमन करता हूँ।