Andhayug aur Naari - 11 books and stories free download online pdf in Hindi

अन्धायुग और नारी--भाग(११)

मेरे बड़े भाई ने ये बात बाबूजी और मेरी सौतेली माँ शकुन्तला को बता दी,बात सुनकर सौतेली माँ आगबबूला हो उठी और बाबूजी से बोली....
"देख लिया ना लड़की को ज्यादा छूट देने का नतीजा,अब उसने हमें कहीं भी मुँह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा, मेरे तो कोई सन्तान हुई थी इसलिए मैं इन दोनों को ही अपने बच्चे समझकर पाल रही थी,लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि इस लड़की की वजह से हमें ये दिन देखना पड़ेगा"
" अम्मा! तुम ज्यादा परेशान मत हो,मैं अभी काका के पास जाकर उनसे बात करता हूँ कि कैसें भी कर के कोई लड़का ढूढ़कर जल्दी से इसके हाथ पीले करके इसे इस घर से भगाओ",बड़े भइया बोलें...
"तू चुप कर विजयेन्द्र! अभी मैं जिन्दा हूँ,तू कौन होता मेरी बच्ची के बारें में कोई भी फैसला लेने वाला", बाबूजी बड़े भइया विजयेन्द्र पर चिल्लाएँ....
"इतना बड़ा तमाशा खड़ा हो गया है और अब भी तुम्हें अपनी लड़की पर भरोसा है",मेरी सौतेली माँ शकुन्तला बोली...
"मुझे अपनी बच्ची पर पूरा भरोसा,वो कभी भी ऐसा कोई काम नहीं कर सकती जिससे मुझे समाज के सामने अपना सिर झुकाना पड़े",बाबूजी बोले...
"तो तुम खुद ही उससे क्यों नहीं पूछ लेते कि क्या बात है"?,मेरी सौतेली माँ शकुन्तला बोली...
"हाँ पूछूँगा! जरूर पूछूँगा! और तुम लोगों के सामने ही पूछूँगा",बाबूजी गुस्से से बोले...
और फिर मुझे एक अपराधी की तरह सबके सामने पेश किया गया और मैं सिर झुकाएँ सबके सामने हाजिर हुई,बाबूजी कभी भी मेरा पूरा नाम जनकदुलारी ना पुकारकर जानकी कहा करते थे और उस दिन भी उन्होंने मुझसे ऐसे ही पूछा...
"सब सच बताओ जानकी बेटा! कि क्या बात है? क्या ये दोनों सही कह रहे हैं",?
और फिर मैं बाबूजी के सवाल पर कुछ ना बोल सकी क्योंकि मैं उनसे झूठ नहीं कह सकती थी और उनसे सच बताने की मेरी हिम्मत नहीं थी,मैं बस अपना सिर झुकाकर आँसू बहाए चली जा रही थी,जो नीचे गोबर से लिपे आँगन की कच्ची धरती पर गिरकर सूखते जा रहे थे,उस समय मुझे सीता माता की याद आ रही थी कि किस तरह वें धरती में समा गई थीं,मुझे भी लग रहा था कि काश ये धरती फट जाएँ और मैं उसमें समा जाऊँ,लेकिन उस दिन ऐसा हो ना सका क्योंकि मैं सीता तो थी नहीं जो मेरे लिए धरती फटती, हम जैसी लड़कियों के लिए तो केवल आसमान फटा करते हैं और उनसे कहर बरपा करता है,फिर उस दिन भी मेरे ऊपर कहर बरपा ,उस दिन पहली बार मैने बाबूजी का विश्वास तोड़ा था और उनका विश्वास तोड़ने की सजा थी मेरी शादी.....
फिर क्या था ये बात मेरे काका के परिवार तक भी पहुँची और रही सही कसर चाची ने भी बातें सुनाकर पूरी कर दी,फिर आनन फानन में मेरे लिए लड़का ढूढ़ना शुरू कर दिया गया,मैं अपने बिस्तर पर पड़ी पड़ी रोती रहती बिलखती रहती लेकिन वहाँ मेरा हाल पूछने वाला कोई ना था,चंपा को भी उसके घरवालों ने मुझसे मिलने से मना कर रखा था,इसलिए अब वो भी मुझसे मिलने ना आ पाती थी,मैं पढ़ी लिखी भी तो नहीं थी और ना गिरिधर पढ़ा लिखा था जो हम दोनों किसी के हाथ अपनी चिट्ठियांँ भेज सकते,फिर एक महीने के भीतर ही मेरा ब्याह तय हो गया और मैं ब्याहकर यहाँ आ गई.....
यहाँ आकर पता चला कि पति को तो मेरी कोई परवाह ही नहीं,उससे तो कोई भी शरीफ़ आदमी अपनी बेटी नहीं ब्याहना चाहता था,मेरे घरवालों को मुझसे पीछा छुड़ाना था इसलिए उन्होंने मुझे यहाँ ब्याह दिया, ये सब देखकर मेरे कलेजे के दो टुकड़े हो गए,एक तो गिरिधर से बिछड़ने का ग़म और दूसरा ऐसे पति का मिलना, थोड़ी सी आस जब बँधी जब सास ने आकर दुलार किया और मुझे सगी माँ की तरह सम्भाला,कुछ दिनों बाद मैं सावन के महीने में मायके गई तो चंपा ने आकर बताया कि गिरिधर को मेरे काका और बड़े भाई विजयेन्द्र ने बैलगाड़ी के पीछे बाँधकर सारे गाँव में घुमाया था,बैलों को बीड़ी से दागा गया जिससे उन्होंने बैलगाड़ी इतनी तेज भगाई कि गिरिधर धरती पर पीठ के बाल घिसटता रहा ,उसके दोनों हाथ बैलगाड़ी से बँधे थे और उस की पीठ लहुलूहान हुई जा रही थी,तब तक बैलगाड़ी को सारे गाँव में घुमाया गया,जब तक कि गिरिधर की जान ना चली गई,वो दर्द के मारे चीख रहा था चिल्ला रहा था,लेकिन उसकी किसी ने ना सुनी और उसकी मौत के कुछ दिन बाद उसकी विधवा माँ भी चल बसी....
गिरिधर की खबर सुनकर मेरी आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे,मेरा मायके में जी नहीं लगा और मैने यहाँ अम्मा को खबर भिजवाई कि मुझे यहाँ नहीं रहना और फिर अम्मा ने मुझे यहाँ बुलवा लिया और उस दिन के बाद मैं फिर कभी मायके नहीं गई,बाबू जी ने कई बार बुलवाया भी लेकिन तब भी मैं ना गई,यहीं की होकर रह गई ,मेरा वहाँ जाने का कभी मन नहीं किया....
और ये कहते कहते चाची की आँखों से झर झर आँसू बहने लगे और वें अपने आँसू छुपाते हुए मेरे कमरें से चलीं गईं....
चाची के जाने के बाद मैंने हल्दी वाला दूध पिया और थोड़ा सा पानी पीकर ,लालटेन धीमी करके अपने बिस्तर पर आकर लेट गया,लेटने से शरीर तो दुख रहा था लेकिन लेटना तो था ही और मैं बिस्तर पर लेटकर सोचने लगा कि नारियों की ऐसी दशा क्यों है,क्या वें अपनी खुशी के लिए कुछ भी नहीं कर सकतीं,एक कदम भी अपनी मरजी से आगें नहीं बढ़ा सकतीं,ना पढ़ सकतीं हैं,ना अपनी पसंद से अपना जीवनसाथी चुन सकतीं हैं,बस जीवन भर,बाप,भाई,पति और बेटे के लिए जीना ही क्या उनकी नियति है,क्या उनका अपना कोई वजूद नहीं है,क्या उनकी कोई इच्छाएंँ नहीं होतीं,वें हम पुरूषों का सृजन करतीं हैं,हमें पाल पोषकर बडा करती हैं ,क्या इसलिए कि आगें चलकर हम पुरूष ही उन पर इतनी पाबन्दियाँ थोप दें,उन्हें ऐसा कर दें कि वें खुश होने के बारें में भी ना सोच सकें,उन पर इतनी जिम्मेदारियाँ लाद दें कि वें अपने बारें में सोचना ही भूल जाएँ.....
कितने खुदगर्ज़ होते हैं हम पुरूष और कितनी ममतामयी होतीं हैं ये स्त्रियाँ,ये ही हमें जन्म देतीं हैं और हम इन्हें ही दुत्कारने लगते हैं,मुझे बात बात पर दादाजी और चाचा ताना मारते हैं कि मेरी माँ एक तवायफ़ थीं, अगर तवायफ़े इतनी बुरी ही होतीं हैं तो फिर वें दोनों उनके पास क्यों जाते हैं,घर की देवी समान नारियों का सम्मान क्यों नहीं करते,हमेशा उनकी अवहेलना क्यों करते रहते हैं,आखिर क्या खामियाँ दादी और चाची में जो वें दोनों उन्हें वो सम्मान नहीं दे पाते जिनकी वें दोनों हकदार हैं,इन दोनों से अच्छे तो मेरे बाबा थे जो एक तवायफ़ को अपना जीवनसाथी बना बैठे,उन्होंने तो तवायफ़ को मान दिया सम्मान दिया लेकिन ये दोनों तो देवी समान दादी और चाची को मान नहीं दे पा रहे हैं....
उस समय बहुत ही उथल पुथल मची थी मेरे मन में और रह रहकर मुझे तुलसीलता की चिन्ता सता रही थी और मैं उसे बचाने का उपाय खोज रहा था फिर यही सब सोचते सोचते मुझे कब नींद आ गई ,मुझे पता ही नहीं चला....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....