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श्री गरुड़जी

प्रजापति दक्षकी तेरह कन्याएँ महर्षि कश्यपसे ब्याही गयी थीं, इनमेंसे कद्रू और विनता पुत्र-कामनासे बड़े अनुरागपूर्वक पतिकी सेवा करने लगीं। सेवासे सन्तुष्ट महर्षि कश्यपने जब दोनोंको मनभावता वर माँगनेको कहा तो कद्रूने समान शक्तिवाले एक हजार नागोंको पुत्ररूपमें पानेका वर माँगा। विनताने कद्रूके पुत्रों से सभी गुणोंमें श्रेष्ठ केवल दो पुत्रों का वर माँगा। ऋषिने एवमस्तु कहा। फलस्वरूप कालान्तरमें कद्रूने एक हजार और विनताने दो अण्डे दिये। पाँच सौ वर्षतक अण्डोंके सेवन करनेके अनन्तर कद्रूके हजार नागपुत्र तो अण्डोंसे बाहर आ गये, परंतु विनताके अण्डे ज्यों-के-त्यों रहे। अधीर होकर विनताने एक अण्डा स्वयं फोड़ डाला तो देखा कि पुत्रके शरीरका ऊपरी भाग पूर्णरूपसे विकसित एवं पुष्ट था किंतु नीचेका आधा अंग अभी अधूरा रह गया था। माताकी इस नादानीसे क्रुद्ध होकर पुत्रने शाप दिया कि तूने जिस सौतकी ईर्ष्यावश आतुरताके कारण मुझे अधूरे शरीरवाला बना दिया, उसीकी पाँच सौ वर्षोंतक दासी बनी रहेगी और यह तुम्हारा दूसरा पुत्र तुम्हें दासीभावसे मुक्त करेगा। परंतु धैर्य रखना, कहीं आतुरतामें इस अण्डेको भी नहीं फोड़ देना। तेजोमय अरुणकान्तिके कारण विनताके उस प्रथम पुत्रका नाम अरुण पड़ा और ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे सूर्यके सारथी बने । तदनन्तर समय पूरा होनेपर श्रीगरुड़जीका जन्म हुआ। उस समय वे प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित एवं प्रकाशित हो रहे थे। श्रीगरुड़जीके तेजको न सह सकनेके कारण देवताओंने उनकी स्तुति की तो इन्होंने अपना तेज समेट लिया।

कद्रू और कद्रू-पुत्र नागोंके द्वारा बार-बार दासवत् व्यवहार किये जानेपर श्रीगरुड़जीने जब इसका हेतु पूछा तो विनताने कद्रूके कपटकी कथा सुनायी। बात यह हुई कि एक बार दोनोंमें सूर्यके घोड़ेकी अथवा क्षीरसमुद्रसे निकले हुए उच्चैःश्रवा नामक घोड़ेकी पूँछके रंगके विषयमें वाद-विवाद हुआ, कद्रू काली बताती और विनता श्वेत। अन्ततोगत्वा यह निश्चय हुआ कि जिसकी बात झूठी निकले, वह दूसरेकी दासी होकर रहे। कद्रूकी आज्ञानुसार उसके पुत्र नाग घोड़ेकी पूँछसे जा लिपटे, जिससे वह काली दीख पड़ी। इस चालाकीसे कद्रूने विनताको दासी बना लिया और अनेकों कष्ट दिया करती थी। यह सब जानकर श्रीगरुड़जीने नागोंसे कहा कि हम तुम्हारा क्या काम कर दें, जिससे कि मैं और मेरी माता दासभावसे छुटकारा पा जायँ? उन्होंने कहा कि हमें अमृत ला दो।

श्रीगरुड़जी माताको प्रणामकर, आज्ञा और आशीर्वाद पाकर स्वर्गमें जाकर देवताओंको पराजितकर अमृतके पात्रको लेकर बड़ी तेजीसे वहाँसे उड़ चले। अमृत अपने अधिकारमें होनेपर भी श्रीगरुड़जी स्वयं उसे नहीं पीये। उनकी यह नि:स्पृहता देखकर भगवान् विष्णुने प्रसन्न होकर उन्हें बिना अमृत-पानके ही अजर-अमर होनेका तथा अपनी ध्वजापर स्थित रहनेका एवं अपना वाहन बननेका परम दुर्लभ वरदान दिया। अमृतका अपहरण करके लिये जाते देखकर देवेन्द्रने रोषमें भरकर श्रीगरुड़जीके ऊपर वज्रका आघात किया परंतु भगवान्‌से वर पाकर अजर-अमर हुए गरुड़जीने तो वज्रकी मर्यादा रखनेके लिये मुसकराकर अपना एक पंखमात्र गिरा दिया। वैनतेयके इस अद्भुत पराक्रमसे प्रभावित होकर इन्द्रने वैरभावका परित्यागकर दृढ़ मैत्री कर ली। श्रीगरुड़जीने अमृतके सम्बन्धमें अपना भाव व्यक्त किया कि मुझे इसको पीना नहीं है। माताको दासीपनेसे मुक्त करानेके लिये मैं इसे सर्पोको सौंपूँगा, आप उनसे ले लेना। इन्द्रने इस बातसे सन्तुष्ट होकर गरुड़जीका सर्पोको भक्षण करनेमें समर्थ होनेका अभीष्ट वर प्रदान किया।

श्रीगरुड़जीने अमृत-पात्र सर्पोको प्रदान किया। माताको दासीपनेसे मुक्त किया, स्वयं स्वच्छन्द हुए। सर्प अमृतको कुशोंमें छिपाकर स्नान करने चले गये, इसी बीचमें इन्द्र वह अमृत लेकर पुनः स्वर्गको चले गये। अमृतके अभावमें सपने लोभवश कुशोंको ही चाटना शुरू किया, जिससे उनकी जीभके दो भाग हो गये। तभीसे सर्प द्विजिह्वा हो गये तथा तभीसे कुशा अमृतका स्पर्श होनेके कारण परम पवित्र हो गया।

श्रीगरुड़जीने भगवान् सूर्यके पास जाकर वेद पढ़ानेकी प्रार्थना की। परंतु इन्हें पक्षी होनेके कारण अनधिकारी जानकर सूर्यने वेद पढ़ानेसे इनकार कर दिया। ये बड़े ही उदास तथा अप्रसन्न होकर वहाँसे लौटे। इनकी अप्रसन्नता देखकर सूर्य डर गये कि इनके बड़े भाई अरुण मेरे सारथी हैं, कहीं यह उन्हें भी लेकर चले गये तो मेरा सब काम ही बन्द हो जायगा, अतः पुनः गरुड़जीको बुलाया, परंतु इन्होंने तो तपके द्वारा वेद-ज्ञान प्राप्त करनेका निश्चय कर लिया था अतः वापस नहीं लौटे। तब सूर्यने स्वयं बिना तप किये ही तप-फलस्वरूप समस्त वेदका बोध होनेका वरदान दिया और यह भी कहा कि आपके पंखोंसे निरन्तर साम-गानकी ध्वनि होती रहेगी।

श्रीगरुड़जी सर्वात्मना भगवान्‌की सेवामें तत्पर रहते हैं। आपकी सेवाओंका स्मरण करते हुए श्रीस्वामी यामुनाचार्यजी कहते हैं— दासः सखा वाहनमासनं ध्वजो यस्ते वितानं व्यजनं त्रयीमयः। उपस्थितं तेन पुरो गरुत्मता त्वदन्त्रिसम्मईकिणांकशोभिना॥ –(आलवन्दारस्तोत्र)
अर्थात् ऋक्, यजुः, सामवेदरूप (वेदत्रयी) जिनका स्वरूप है, जो आपके चरण-कमलोंके संघर्षके चिह्नसे अंकित शरीरवाले हैं, जो समय-समयपर आपके दास, सखा, वाहन, आसन, ध्वजा, वितान तथा पंखा बनकर आपकी सेवा करनेके लिये सदा तत्पर रहते हैं, वे गरुड़जी आपके आगे खड़े रहते हैं।

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजीने भी श्रीगरुड़जीको महाज्ञानी-गुणराशि, हरि-सेवक, हरिके अत्यन्त निकट निवास करनेवाला कहा है। यथा—‘गरुड़ महाग्यानी गुनरासी। हरि सेवक अति निकट निवासी॥ भगवान्‌ने अपनी विभूतियोंका वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीतामें अपने-आपको पक्षियोंमें वैनतेय बताया है। यथा—‘वैनतेयश्च पक्षिणाम्।'