Shri Brahmaji books and stories free download online pdf in Hindi

श्री ब्रह्माजी

श्रीब्रह्माजी, श्रीनारदजी, श्रीशंकरजी, श्रीसनकादिक, श्रीकपिलदेवजी महाराज, श्रीमनुजी, श्रीप्रह्लादजी, श्रीजनकजी, श्रीभीष्मपितामहजी, श्रीबलजी, महामुनि श्रीशुकदेवजी और श्रीधर्मराजजी—ये बारहों भगवान्‌के अन्तरंग सेवक हैं, जो इनके यशको सुनें और गायें, उन सभी श्रोता और वक्ताओंका आदिसे अन्ततक सर्वदा मंगल हो। अजामिलके प्रसंगमें धर्मराजका यह परमश्रेष्ठ निर्णय जानिये कि इन्हींकी कृपासे और दूसरे भक्त भक्तिके रहस्योंको समझते हैं, ये द्वादश प्रधान भक्त हैं

द्वादश प्रधान महाभागवतोंमें श्रीब्रह्माजी अग्रगण्य हैं। श्रीमद्भागवतजीमें भी यमराजजीने अपने दूतोंसे परमभागवतोंका वर्णन करते हुए श्रीब्रह्माजीकी गणना सर्वप्रथम की है, यथा—

स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः।
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम्॥
द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं भटाः।
गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते॥

अर्थात् भगवान्‌के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है। दूतो! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं। ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिल, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्म पितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं (धर्मराज)।

सृष्टिके पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व प्रलयार्णवके जलमें डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेषशय्यापर पौढ़े हुए थे। सृष्टिकाल आनेपर भगवान् नारायणकी नाभिसे एक परम प्रकाशमय कमल प्रकट हुआ और उसी कमलसे साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए। उस कमलकी कर्णिकामें बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये। आश्चर्यचकित श्रीब्रह्माजी कुतूहलवश कमलके आधारका पता लगानेके लिये उस कमलकी नालके सूक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे। परंतु दिव्य सहस्रों वर्षोंतक प्रयत्न करनेपर भी कुछ भी पता न मिलनेपर अन्तमें विफल मनोरथ हो, वे पुनः कमलपर लौट आये। तदनन्तर अव्यक्त वाणीके द्वारा तप करनेकी आज्ञा पाकर श्रीब्रह्माजी एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्रचित्तसे कठिन तप करते रहे। उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ने उन्हें अपने लोकका एवं अपना दर्शन कराया। सफलमनोरथ श्रीब्रह्माजीने भगवान्‌की स्तुति की। भगवान्‌ने उन्हें भागवत-तत्त्वका चार श्लोकोंमें उपदेश दिया, जिसे चतुःश्लोकी भागवत कहते हैं। उपदेश देकर भगवान्‌ने कहा—ब्रह्माजी! आप अविचल समाधिके द्वारा मेरे इस सिद्धान्तमें पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे तुम्हें कल्प-कल्पमें विविध प्रकारकी सृष्टि-रचना करते रहनेपर भी कभी मोह नहीं होगा। फिर भगवान्‌ने अपने संकल्पसे ही ब्रह्माजीके हृदयमें सम्पूर्ण वेद-ज्ञानका प्रकाश कर दिया—

यथा—‘तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः'—भगवान्‌ने अपने संकल्पसे ही ब्रह्माजीको उस वेदज्ञानका दान किया, जिसके सम्बन्धमें बड़े-बड़े विद्वान् लोग भी मोहित हो जाते हैं। कालान्तरमें श्रीनारदजीकी सेवासे सन्तुष्ट होकर श्रीब्रह्माजीने उनको चतुःश्लोकी भागवत-तत्त्वका उपदेश किया और देवर्षि नारदजीने वह तत्त्व-ज्ञान भगवान् वेदव्यासजीको सुनाया और श्रीव्यासजीने चार श्लोकोंसे ही अठारह हजार श्लोकोंके रूपमें श्रीमद्भागवत महापुराणकी रचनाकर उसे श्रीशुकदेवजीको पढ़ाया। इस प्रकार श्रीमद्भागवतका लोकमें विस्तार हुआ।

भगवान्‌के द्वारा प्राप्त उपदेशका निरन्तर चिन्तन करते रहनेसे तथा भगवत्स्वरूपका ध्यान करते रहनेसे श्रीब्रह्माजीका अपने मन-वाणी और इन्द्रियों पर इतना अधिकार हो गया है कि सदा-सर्वदा जगत्-प्रपंचमें लगे रहनेपर भी इनकी वृत्तियाँ स्वप्नमें भी असत्की ओर नहीं जाती हैं।

श्रीब्रह्माजीके परम सौभाग्यका क्या कहना है? जो कि ये भगवान्‌के समस्त अवतारोंके दर्शन-स्तवन करते हैं। ‘कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं’ इसके अनुसार ब्रह्माजीके अधिकारकालमें ३६०० बार भगवान्‌के विविध अवतार होते हैं; क्योंकि एक कल्प ब्रह्माजीका एक दिन होता है और सौ वर्षकी ब्रह्माजीकी आयुमें ३६०० कल्प दिनके (उतने ही रात्रिके भी) होते हैं। साथ ही प्रायः अधिकांश अवतार ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे होते हैं।