Andhayug aur Naari - 26 books and stories free download online pdf in Hindi

अन्धायुग और नारी--भाग(२६)

मैं हाथ मुँह धोकर डाइनिंग हाँल की ओर बढ़ गया,मैंने वहाँ जाकर देखा कि वहाँ और भी लड़के मौजूद थे,कुछ मुस्लिम थे और ज्यादातर हिन्दू थे मुझे देखकर उनमें से एक लड़का जो मुझसे उम्र में बड़ा था,वो आकर मुझसे बोला....
"मालूम होता है आज ही आए हैं आप!"
"हाँ!आज ही आया हूँ",मैंने जवाब दिया...
"नौकरी करते हैं या पढ़ाई कर रहे हैं",उन्होंने मुझसे पूछा...
"पढ़ाई कर रहा हूँ",मैंने जवाब दिया...
"क्या विषय चुना है"?उन्होंने पूछा...
"वकालत",मैंने जवाब दिया...
"ओह...मालूम होता है साहब रुपए कमाने का बहुत शौक रखते हैं, तभी ऐसा पेशा चुना है",वें बोलें...
"नहीं! ऐसा कुछ नहीं है,मेरे पास बहुत रुपया है और बहुत सम्पत्ति है,मुझे और दौलत कमाने की क्या जरूरत,मैं तो वकील इसलिए बनना चाहता हूँ ताकि मज़लूमों और गरीबों की मदद कर सकूँ", मैंने उनसे मुस्कुराते हुए कहा...
"बड़े ही उत्तम विचार हैं महाशय आपके,तो आप जैसे महापुरुष का कुछ नाम भी होगा,कृपया करके वो भी बता दीजिए",उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा....
"सत्यव्रत सिंह नाम है मेरा और आपकी तारीफ़",मैं बोला....
"ओह...तो आपका नाम सत्यव्रत है और मैं त्रिलोकनाथ त्रिपाठी हूँ,पेशे से अध्यापक हूँ ज्ञानगंगा सागर विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाता हूँ",वें बोलें....
"आपका परिचय जानकर अच्छा लगा,लेकिन मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि ब्राह्मण होकर आप ने मुस्लिम घर में पनाह ली है,वो भला क्यों?",मैंने त्रिलोकनाथ जी से पूछा...
"मुझे इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता सत्यव्रत बाबू! मैं तो वैसें भी अपनी घर और धर्म से बहिष्कृत प्राणी हूँ,मुझे घरवाले और बाहरवाले दोनों ही अधर्मी कहते हैं",त्रिलोकनाथ जी बोले...
"मैं कुछ समझा नहीं",मैंने कहा....
"फिर कभी समझाऊँगा,चलिए पहले भोजन कर लेते हैं",त्रिलोकनाथ जी बोले....
"जी! ये भी ठीक कहा आपने,तो फिर चलिए",मैंने मुस्कुराते हुए कहा...
और फिर मैं जैसे ही डाइनिंग टेबल पर खाना खाने के लिए बैठने वाला था तो वैसें ही मर्सियाबानो मेरे पास आकर बोलीं....
"सत्यव्रत मियाँ! माँफ कीजिए,आपको आपका खाना यहाँ नहीं मिलेगा",
"मतलब! खाना नहीं मिलेगा,लेकिन मैंने तो जुम्मन मियाँ से कहलवा भेजा था कि मैं आज रात का खाना यहीं खाऊँगा",मैंने गुस्से से कहा...
"खु़दा के लिए आप ख़फा ना हों,आपके खाने का इन्तजाम हमने कहीं और किया है",वें बोलीं...
"कहीं और किया है,मतलब क्या है आपके कहने का,मैं कुछ समझा नहीं",मैंने कहा...
"जी! आप बगीचें में चलें,आपका खाना खासतौर पर वहीं तैयार किया गया है",मर्सियाबानो बोलीं....
"ये बहुत गलत बात है ख़ालाज़ान! आपने कभी मेरे लिए तो खासतौर से खाना तैयार नहीं करवाया", त्रिलोकनाथ जी शिकायत करते हुए बोलें....
"आप सबकुछ खा लेते हैं इसलिए आपके लिए हमने कभी ऐसा इन्तजाम नहीं किया",मर्सियाबानो बोलीं...
"तब ठीक है, तो जाइए सत्यव्रत बाबू बगीचें में जाकर भोजन का आनन्द उठाइए",त्रिलोकनाथ जी बोले...
"अगर आपको कोई तकलीफ़ ना हो शाकाहारी खाना खाने में तो आप भी इनके साथ आ सकते हैं", मर्सियाबानो बोलीं...
"अगर ऐसी बात है तो मैं भी आना चाहूँगा",
और ऐसा कहकर त्रिलोकनाथ जी मेरे साथ बगीचे की ओर चल पड़े,वहाँ जाकर मैंने देखा कि मर्सियाबानो ने दो तीन लालटेनों को दो तीन अलग अलग छोटे छोटे स्टूल पर रखकर उस जगह पर उजाला कर रखा था,वहाँ के चूल्हे में अब भी लाल कोयले पड़े थे,जिन पर दाल की बटलोई अब भी चढ़ी थी,पास और भी बरतन ढ़क्कनों से ढ़के हुए थे ,शायद उनमें भी खाना ही रखा था,बैठने के चटाई बिछाई गई थी,पहले तो मर्सियाबानो ने हम दोनों के हाथ धुलाए फिर चटाई पर बैठने को कहा तो हम दोनों चटाई पर जाकर बैठ गए तब उन्होंने कटोरियों सहित दो थालियाँ सजा दी,फिर उनमें खाना परोसकर हम दोनों के सामने थालियांँ रख दीं और बोलीं...
"चलिए! अब आप दोनों खाना खा लीजिए",
और फिर उनके कहने पर हमलोग खाना खाने लगे ,मैंने पहले दाल खाई जो मुझे बड़ी ही स्वादिष्ट लगी,थाली में और भी बहुत कुछ था,जैसे कि दही आलू की सब्जी,बैंगन का भरता,तली मिर्च और लहसुन की चटनी, मैंने और सब भी चखा,खाना वाकई बहुत ही अच्छा था,किसी भी सब्जी या चटनी में कोई भी कमी नहीं थीं,हम खा रहे थे तभी वें बोलीं....
"खाने का जायका तो ठीक है ना! खाना अच्छा ना लगें तो साफ साफ बता दीजिएगा",
तब त्रिलोकनाथ जी बोलें....
"वाह....खालाजान! अगर ऐसा स्वादिष्ट शाकाहारी खाना रोज़ मिले तो मैं तो कभी भी माँस मच्छी को हाथ ना लगाऊँ,जी करता है बस खाता ही जाऊँ"
"तो फिर आप भी कल से इसी बावर्चीखाने में सत्यव्रत मियाँ के साथ आ जाया करें,हम आपके खाने का भी यहीं इन्तजाम कर दिया करेगे़",मर्सियाबानो बोलीं....
"जी! जरुर! लेकिन कौन है ये आपका नया खानसामा! सच में कमाल कर दिया उसने तो,मैंने ऐसा स्वादिष्ट खाना केवल अपने घर में ही खाया है और आज यहाँ खा रहा हूँ",त्रिलोकनाथ जी बोले....
"लेकिन लगता है सत्यव्रत मियाँ को खाना अच्छा नहीं लगा,इसलिए तो वें कुछ बोल नहीं रहे हैं",मर्सिया बानो बोलीं...
"जी! नहीं! ऐसी बात नहीं है,मैं तो केवल खाने पर ही ध्यान दे रहा हूँ,चाची और दादी के मरने के बाद मैंने भी आज इतने दिनों बाद इतना स्वादिष्ट खाना खाया है",मैंने कहा....
"और आपकी अम्मीजान"?,मर्सियाबानो ने पूछा....
"जी! बताया था ना आपको कि मैं अनाथ हूँ",मैंने कहा....
"जी! बताया था आपने कि आप यतीम हैं,माँफ कीजिएगा मैं भूल गई,बूढ़ी जो हो चली हूँ",मर्सियाबानो बोलीं....
"ऐसा ना कहें खालाज़ान! बूढ़े हो आपके दुश्मन,अभी तो ना जाने और कितना जीने वालीं हैं आप", त्रिलोकनाथ बोलें....
"अब ज्यादा जीने की तमन्ना नहीं है त्रिलोक मियाँ! बहुत कुछ देखा है इन आँखों ने,जिसके ख्याल भर से ही जी दहल जाता है, हाँ! लेकिन अब जितनी उम्र बची है वो बस सुकून से कट जाएं,बस यही दुआ है अल्लाह मियाँ से"मर्सियाबानो बोलीं....
"ऐसी क्या गुजर चुकी है आप पर ,जो इतना दर्द है आपके मन में",त्रिलोकनाथ जी ने पूछा....
"उस दर्द को हम ,फिर कभी बयाँ करेगें,आप दोनों अभी अपने खाने पर ध्यान दें",मर्सियाबानो बोलीं....
तब मैंने मर्सियाबानो के दिल के दर्द को उनकी आँखों में महसूस किया और बात को बदलते हुए कहा...
"भोजन सच में बहुत बढ़िया बना है,आपके खानसामा को ईनाम देने का जी चाहता है"
"आप दोनों को खाना पसंद आया,यही खानसामा का ईनाम है",मर्सियाबानो बोलीं....
"लेकिन तब भी ख़ालाजान! हम आपके खानसामा से मिलना चाहेगें",त्रिलोकनाथ जी बोलें...
"जी! आप उन्हें यहाँ बुलाइए, मैं भी उनसे मिलकर उन्हें आभार प्रकट करना चाहता हूँ",मैंने कहा....
"उन्हें यहाँ बुलाने की कोई जरूरत नहीं है,आपका खाना पकाने वाली खानसामा आपके सामने ही बैठी है", मर्सियाबानो बोलीं....
"तो क्या ये सारा खाना आपने पकाया है"?,मैंने पूछा...
"जी! ख़ास आपके लिए ये खाना पकाया गया है,आपने कहा था ना कि आप गोश्त वगैरह नहीं खाते इसलिए हमने किसी खानसामा से खाना पकवाना मुनासिब नहीं समझा और यहाँ नए बर्तनों में खाना पकाने चले आए",मर्सियाबानो बोलीं....
"मेरे लिए आपको इतनी तकलीफ़ उठाने की कोई जरूरत नहीं थी,मैंने आपसे पहले कह दिया था कि मुझे इन सबसे कोई परहेज नहीं है,बस खाना शाकाहारी होना चाहिए",मैंने उनसे कहा....
"अपने बच्चों के लिए खाना पकाने में भला कैसीं तकलीफ़"?,मर्सियाबानो बोलीं....
"आप में मुझे मेरी चाची नज़र आती है",मैंने कहा...
"तो आप हमें आज से चाचीज़ान ही कहा करें",मर्सियाबानो बोलीं...
"जी! ये सबसे उत्तम रहेगा,तो आज से आप मेरी चाचीज़ान",मैंने कहा...
"ये आपका अच्छा है खालाज़ान! आप यहाँ किसी की बड़ी आपा हैं,किसी की ख़ाला,किसी की अम्मी और आज से चाची भी बन गईं",त्रिलोकनाथ जी बोले....
"रिश्ता कुछ भी हो त्रिलोक मियाँ! लेकिन इन सभी रिश्तों से केवल ममता ही जाहिर होती है,जो कि इस कायनात की सबसे कीमती चींज है",मर्सियाबानो बोलीं...
"ये सही कहा आपने,आप हम सभी को किराएदार नहीं अपने परिवार का सदस्य समझतीं हैं तभी तो आपने हम सभी के साथ इतने खूबसूरत से रिश्ते बना रखें",त्रिलोकनाथ जी बोलें....
"त्रिलोक मियाँ! इस कायनात में प्यार ही तो सबसे कीमती चींज है,जब हम इस जमीन में दफ्न होते हैं ना तो हमारे साथ कुछ भी नहीं जाता सिवाय अपनेमन के,इसलिए जब तक जिओ बस प्यार बाँटते रहो",मर्सियाबानो बोलीं....
"आपके बारें जो जो सुना था ,आप तो उससे बिलकुल विपरीत हैं",मैंने कहा....
"जिनको जो कहना है तो कहते रहें हमारे बारें में,हम जैसे हैं वैसें ही रहेगें ताजिन्दगी",मर्सियाबानो बोलीं....
और फिर हम दोनों उस रात ऐसे ही मर्सियाबानो से बातें करते करते खाना खाते रहे,उस दिन से मैं मर्सियाबानो को चाचीज़ान कहकर पुकारने लगा....

क्रमशः....
सरोज वर्मा.....