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नि:शब्द के शब्द - 24

नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक

चौबीसवां भाग


ज़िंदा हैं कितने लोग . . .'


मोहिनी के दोस्त बदल गये. दीवाने बनकर आये हुए लोगों के चेहरे भी तुरंत तब बदल गये, जब उसने अपनी कहानी, अपनी दोनों ही दुनियां की सुना दीं. जो भी उससे मिलता, उसमें रूचि लेता, उसे पसंद भी करता, उसके साथ बैठकर अपने भावी जीवन के सपने देखता, उन सपनों को संवारता और जब यह सारे सपने साकार करने का समय आता तो अमावस्या के छिपे हुए चन्द्रमा के समान जैसे फिर कभी भी अपना मुंह दोबारा दिखाने के लिए नहीं आना चाहता था.

उसके जीवन में, पिछले सालों में न जाने कितने ही बदलाव आये. कितने ही विभिन्न, खतरनाक मोड़ों से वह गुज़रती फिरी, कहीं पर वह फंसी, कहीं से वह सुरक्षित निकली, कितने ही स्थानों पर उसे अपनी जान के दुश्मन मिले तो उसके जीवन का ख्याल रखने वाले 'रोनित' जैसे मनुष्य के रूप में 'देवदूत' भी मिले- इकरा जैसी उसके जीवन की भटकती हुई रूह भी मिली.

अपने प्यार का दम्भ भरने वाला सोहित भी एक दिन उससे फिर से मिलने की बात कह कर दोबारा फिर लौटकर कभी भी नहीं आया. लौटकर नहीं आया- शायद इसीलिये कि, कौन ऐसी लड़की को गले लगाएगा जो, उस दुनिया की बातें करती है कि, जिसके बारे में तथ्यों की कमी है. मोहिनी उस संसार की बातें करती है जिनका इस संसार में कोई औचित्य ही नहीं है. भटकी हुई आत्माओं की बातें, कहानियाँ और घटनाओं पर सुनकर लोग विश्वास तो सहज ही कर लिया करते हैं, मगर जब ऐसी आत्माएं खुद उनके जीवन में दखलंदाजी करती हैं तो चुपचाप उनका बहिष्कार भी करने लगे हैं. इतना तो सब ही इस संसार में रहने वाले मानव चोले के मनुष्य विश्वास किया ही करते हैं कि, मनुष्य के तौर पर जीवित रहने वाले प्राणी के दो ही रूप हुआ करते हैं- एक तो उसका वह रूप जो सबको दिखाई देता है- मनुष्य का हाड़-मांस और रक्त, पानी से बना हुआ उसका शरीर. दूसरा उसका वह रूप जो इन नाश्मान आँखों से दिखाई तो नहीं देता है, मगर दिल और दिमाग से महसूस किया जाता है- उसके शरीर में रहने वाली आत्मा.

मरने के बाद शरीर पंचतन्त्र में विलीन होता है- मिट्टी से बनाया गया है, इसलिए मिट्टी में ही वापस मिल भी जाता है. जैसा कि, बहुत से धर्म-ग्रंथों में लिखा भी है और लोग विश्वास भी करते हैं. दूसरी है, मनुष्य के शरीर में रहने वाली उसकी वह आत्मा जो उसके शरीर को जीवित रखती है. यह आत्मा तब तक मनुष्य के शरीर में रहा करती है, जब तक उसको देने वाला इस ज़मीन और आकाश का ईश्वर उसे उस शरेर में वहां रहने की इजाजत देता है. जिस दिन मनुष्य की मृत्यु हो जाती है, शरीर नष्ट हो जाता है और आत्मा उस ईश्वर के पास, उसके नियन्त्रण में, मनुष्य के शरीर को छोड़कर वापस चली जाती है. कहते हैं कि, यही इंसानी जीवन का वह चक्र है, जो इस संसार की सृष्टि से आज तक चला आ रहा है.

अगर यह विश्वास किया जाता है कि, आत्माएं शरीर त्यागने के बाद फिर से जन्म लेती हैं- किसी भी रूप में, किसी भी क्षेत्र में तो क्या वे दोबारा इस संसार में नहीं आ सकती हैं? आज के मनुष्य के सामने यही सबसे बड़ा सवाल है कि, मरने के बाद, शरीर छोड़ने के बाद, ये आत्माएं कहाँ जाती हैं? क्या करती हैं? क्या ये फिर से अपने मानव चोले में वापस भी आ सकती हैं?

मोहिनी, अपनी ज़िन्दगी के साथ इन तमाम ऐसी ही घटनाओं के बारे में जब भी किसी को बताती थी तो कोई भी उस पर विश्वास नहीं कर पाता था. विश्वास करना तो अलग बात थी, उसकी बातें सुनकर सारे लोग उसे, मूर्ख, पागल और बकवासी कहकर उसका उपहास उड़ाते थे. इतना सब कुछ होने और हर तरह से करने-गुजरने और भुगतने के पश्चात भी, मोहिनी ने किसी से कोई भी शिकायत नहीं की थी. अपना दुखड़ा भी उसने अब दूसरों से कहना बंद कर रखा था. अपने आपको समय की मार का, दुष्ट हवाओं के थपेड़ों में जबरन जलने को मजबूर एक दिए के समान जानकर उसने वक्त के साथ छोड़ दिया था. अपने भावी जीवन का सारा न्याय भी उसने इस संसार के परमेश्वर के हाथों में छोडकर वह निश्चिन्त हो चुकी थी. अब जो होगा, वह देखा जाएगा. यही सोचकर कि, ईश्वर जो भी करता है, वह अच्छा ही करता है- यही सोचकर उसने अब अधिक सोचना भी बंद कर दिया था.

अपने घर में भी, जब उसका मन करता वह किचिन संभालती, अपनी मर्जी का खाना बनाती, नहीं करता तो कहीं भी, किसी भी रेस्तरां या अच्छे होटल में अपनी शाम किसी भी मन-पसंद भोजन के साथ व्यतीत कर देती. सो इसी तरह से एक दिन, एक शाम को जब वह एक बंगला देशी होटल में खाना खाने के लिए बैठी थी तो, वहां पर चलते हुए टी. वी. के बड़े-से पर्दे पर एक विदेशी उर्दू फिल्म के गीत को सुनकर वह उसके बोलों पर ध्यान केन्द्रित कर बैठी. टी. वी. के पर्दे पर उर्दू फिल्म 'दिल-ए-बेताब' नामक फिल्म की नायिका 'शमीम आरा' पर एक गीत फिल्माया जा रहा था. गीत के बोल थे- 'हम से बदल गया वह निगाहें, तो क्या हुआ? ज़िंदा हैं, कितने लोग मुहब्बत किये बगैर.'

गीत की ये दर्द भरी पंक्तियाँ मोहिनी के दिमाग से उतरती हुई उसके दिल के सारे कोमल भाग को चीरती चलीं गई. उसने सोचा कि, उसका अपना जीवन भी इस गीत की सच्चाई और वास्तविकता से कितना कुछ मेल खाता है? सचमुच मोहित भी कितना अधिक बदल चुका है? वह मोहित, जो कभी उसके लिए आसमान से तारे तोड़कर लाने की बातें किया करता था, अब चमन से चार सूखे फूल् भी लाने से कतराने लगा है. वह मोहित जिसकी खातिर उसने, उसने आसमान के सरताज को भी, एक दिन अपनी अथाह मुहब्बत के बल पर झुकने पर मजबूर कर दिया था, आज उसे पूछता भी नहीं है. सो, मोहिनी जब भी इस प्रकार से अपने लिए सोचती, तो उसे अपने चारों तरफ सिवाय काले अन्धकार के कुछ भी नहीं दिखाई देता था. वह जिस किसी भी फूल को फूल समझ कर हाथ लगाती, वही उसके हाथों में काँटों के समान चुभकर पीड़ा से भरी टीस देने लगता था. अपने घर में, जब भी वह बिस्तर पर सोने जाती तो, उसे इस दुनिया में दोबारा भेजने वाले से यही आरज़ू करती, यही मांगती कि, या तो हे, ईश्वर उसकी इस समस्या का समाधान निकालकर, इसे सदा के लिए समाप्त कर दे अथवा वह उसे फिर से अपनी दुनियां में वापस बुला ले. अगर बुला लेगा तो फिर वह कभी भी इस तरह की शिकायत उससे नहीं करेगी. कोई शिकवा नहीं, कभी भी अपनी किसी भी परेशानी के लिए आंसू नहीं बहायेगी. यूँ, भी उसका इस संसार में भीख की यह ज़िन्दगी दोबारा मांगकर आने से उसे अब तक मिला ही क्या है? मां-बाप ने उसे छोड़ा, उसका तिरस्कार किया- भाई-बहन भी छूट गये- उसका अपना, मोहित भी बेगाना हो गया- अब वह किसके लिए जिए और क्यों?
***
दूर आकाश में, चन्द्रमा ने उठते हुए, झांकना आरम्भ किया तो उसकी महीन-महीन दूधिया रश्मियाँ वृक्षों के ऊपर अपनी जाली बनाने लगीं. रात्रि का समय था. मोहिनी के शहर के लगभग सारे लोग सोने चले गये होगे. आकाश में चन्द्रमा के साथ, अपनी मद्दिम रोशनी के साथ मुस्कराती हुई तमाम छोटी-छोटी तारिकाओं की बारात सजकर भी जैसे फीकी पड़ती जा रही थी- कारण था कि, पूर्णमासी से दो दिन पहले का चाँद अपनी भरी-पूरी जवानी के साथ, अपना सारा सफेद झाग जैसे धरती पर उंडेल देना चाहता था. सारे आकाश में एक बड़ी ही प्यारी शान्ति का बसेरा था. इसी शान्ति का सहयोग लेकर शहर का सारा आलम सोया पड़ा था. मगर, अपनी किस्मत, अपने मुकद्दर की मारी, मोहिनी अभी तक, अपने घर के बाहर बरामदे में एक कुर्सी पर, अपनी टाँगे फैलाए हुए चुपचाप, आकाश में चांदनी के भरपूर सौंदर्य को निहार रही थी- अकेली, तन्हा और असहाय-सी.

तभी अचानक से उसके घर के 'ड्राइव वे' पर एक कार की दो बत्तियां आकर अचानक से अपना तीव्र प्रकाश देकर बुझ गईं. मोहिनी ने देखा तो यह सोचकर कि, इस समय रात की इस तन्हाई में एक नितांत जवान, नाइटी में लापरवा बैठी लड़की के घर कौन आ सकता है? सोचते ही मोहिनी कुर्सी छोड़कर अंदर भागी. शीघ्रता से उसने साड़ी लपेटी और फिर से बरामदे में आकर बाहर देखना ही चाहा था कि तभी उसका फोन बज उठा. मोहिनी ने एक नया नंबर देखकर भी फोन करनेवाले को उत्तर दे दिया. बोली,
'हलो, कौन?'
'पहचाना मुझे?'
'?'- आवाज पहचानकर मोहिनी ने कहा कि,
'अब क्या लेने आये हो?'
'कॉर्पोरेट की फायनेंस की मीटिंग थी, सोचा था कि, तुमसे भी मिल लूँ?'
'मोहित ! अगर, मैं यह कहूँ कि, मैं तुमसे अब नहीं मिलना चाहती हूँ तो . . .?' मोहिनी बोली तो वह बोला कि,
'कोई बात नहीं, मैं कोई दूसरा अवसर ढूँढ लूंगा, अपना प्रायश्चित करने के लिए.'
'मैं समझी नहीं?'
'मैं, सचमुच ही बहुत शर्मिंदा हूँ, अपने आपसे.'
'क्यों?'
'मैंने तुमको समझने बहुत बड़ी भूल की है.'
'?'- मोहिनी सशोपंज में डूबकर चुप हो गई.
'क्या अब भी मुझे बाहर ही खड़ा रहने दोगी. द्वार नहीं खोलोगी क्या?' मोहित ने आग्रह किया तो मोहिनी दरवाज़े तक गई और तुरंत ही द्वार खोल दिया.
`'?'- सामने उसके सचमुच ही मोहित खड़ा हुआ था- अपने हाथों में, नर्गिस के सफेद फूलों का गुलदस्ता लिए हुए. मोहित जानता था कि, नर्गिस के फूलों में खुशबू नहीं होती है, फिर भी मोहिनी को ये फूल पसंद होते थे.'

मोहिनी ने सिर झुकाते हुए, चुपचाप गुलदस्ता अपने हाथों में लिया और मोहित के लिए अंदर आने के लिए सामने से हट गई.

थोड़े ही पलों के पश्चात, वे दोनों 'लिविंग रूम' में सोफे पर आमने-सामने बैठे हुए थे. एक-दूसरे को देखते फिर नज़रें नीचे कर लेते.
'पहली बार मेरे घर पर आये हो. मैं कॉफ़ी बनाकर लाती हूँ.'
'?'- मोहित कुछ भी नहीं बोला. केवल देखकर ही रह गया.
मोहिनी कॉफ़ी बनाकर लाई. मोहित को दी और खुद अपना प्याला हाथ में लेकर सोफे पर बैठ गई.
'मोहिनी?'
'?'- उसने चुपचाप मोहित को देखा.
'मैं, तुमसे अपने किये हुए दुर्व्यवहार की क्षमा मांगने आया हूँ.'
'अचानक से इस आये हुए परिवर्तन का कारण?' मोहिनी ने एक भेदभरे ढंग से मोहित को देखा तो वह बोला कि,
'पता नहीं वह एक सपना था, अथवा सचमुच किसी ने मेरी बंद आँखें खोली हैं.'
'?'- खामोशी. मोहिनी ने केवल मोहित को देखा तो वह आगे बोला कि,
'कोई मुझसे कह रहा था कि, अपनी मंगेतर, मोहिनी को अपने घर लाने से मत घबरा. क्योंकि, यह माना कि, सचमुच उसके पास बदन दूसरा है, पर आत्मा तेरी मोहिनी की है. आत्मा सदैव ही शरीर से बढ़कर होती है और यही मानव-जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है. जिस दिन आत्मा नहीं रहती, शरीर भी सदा के लिए मर जाता है.'
'?'- सुनकर मोहिनी की आँखों में आंसू आ गये. यही सोचकर कि, इतने साल, कितने ही संघर्षों के बाद आज जैसे मोहित ने उससे, पहले वाले मोहित के समान कुछ कहा है.
'अब बहुत हो चुका. तुमने और मैंने बहुत दुःख उठा लिए हैं. मैं अब तुमसे अपना कायदे से विवाह करना चाहता हूँ. सारी दुनियां के सामने तुम्हारा हाथ पकड़कर, सम्मान के साथ अपने घर लाना चाहता हूँ.'
'?'- मोहिनी से देखा नहीं गया. सुना तो खुद से रहा भी नहीं गया. वह उठी और मोहित के सामने आकर उसके सीने पर अपना सिर रखकर, फूट-फूटकर रो पड़ी. उसके इन आंसुओं में, उसके पिछले दोनों ही जीवनों के वे दुःख और कष्ट थे, जिन्हें उसने एक असहाय स्त्री की तरह अकेले ही उठाये थे. इसी मोहित को पाने के लिए वह ईश्वर से भी मानो लड़ बैठी थी- संसार के न जाने कितने ही बेहूदे लोगों की कड़वी-कसैली बातों को सुना था- दुनियां-जहान की ताड़नायें झेली थीं. कौन जानता था कि, मोहित के केवल उन दो प्यार से भरे 'नि:शब्द के शब्दों' में मोहिनी के लिए जीने की लाखों-करोड़ों साँसें भरी हुई थीं. मोहिनी के घर के इस एकांत में दोनों ही अब नि:शब्द थे. चुप थे- शांत थे- दोनों के मध्य के गिले-शिकवे भी अब सदा के लिए जा चुके थे. दोनों ही अकेले थे, मगर इन दोनों के मध्य भी एक तीसरा बजूद उन शब्दों का भी था, जो अभी तक नि:शब्द थे.
'अगले सप्ताह, हम अपना विवाह, बड़े ही धूमधाम से करेंगे.'
मोहिनी से अपना वादा करके मोहित जब चला गया तो उसे ऐसा लगा कि, आकाश में अपने ढेर सारे दूधिया झाग के साथ, मुस्कराता हुआ चन्द्रमा जैसे उसके घर के आंगन में आकर हमेशा के लिए ठहर चुका है.
-क्रमश: