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निरुपमा

दीदी को हम सब नीरू दीदी के नाम से बुलाते थे। निरुपमा तो सिर्फ पिताजी ही उनको कहा करते थे।वे कहते थे की बड़ा सकून है इस नाम में। दीदी भी एसी ही थी अपने नाम जैसी सकून दार। सबका खयाल रखने वाली,अम्मा के लिए सुबह की चाय दीदी ही बनाती थी।और अम्मा रोज़ चाय की प्याली हाथ में लेते हुए कहती "नीरू मेरी आदत मत बिगाड़,जब तू ससुराल चली जाएगी तो मेरा क्या हाल होगा" और दीदी हंसते हुए कहती की अम्मा मुझे कहीं पड़ोस में ही ब्याह देना, फिर में उम्रभर तुम्हारा और पिताजी का खयाल रख लूंगी। इस पर अम्मा अपनी रटी रटाई लाइन दोहरा देती की"अरे लाडो जोड़ियां तो ऊपर वाला बनाता है। वैसे बता दूं घर में मुझ से किसी को कोई खास उम्मीद थी नहीं। देखते ही देखते दीदी का एम ए का रिजल्ट आ गया कॉलेज टॉप किया था उसने।पिताजी बहुत खुश थे मां ने मोहल्ले भर में मिठाई बाटी थी।मुझे अच्छे से याद है क्योंकी मुझे ही मिठाई मोहल्ले में बाटने का काम सौंपा गया था।वैसे मैं ये सब काम बड़े अच्छे से कर लेती थी। जब में मिश्रा जी के यहां मिठाई ले कर गई तो देखा उनके बड़े बेटे सतीश भैया बड़े खुश लग रहे थे जैसे की कॉलेज टॉप नीरू ने नही बल्कि उन्होंने किया हो।वे भी दीदी के साथ ही पढ़ते थे ठीक ठाक सेकेंड डिवीजन से पास हो गए थे।पर दीदी के पास होने की इतनी खुशी? मुझे कहने लगे" निरुपमा से कहना की सतीश उनकी कामयाबी से बहुत खुश है" मैने हां में सर हिला दिया और घर लोट आई। दीदी का मां को पड़ोस में ब्याह के लिए कहना और सतीश भाई का दीदी के लिए इतना खुश होना! भाई मुझे तो दाल में कुछ काला लगा। घर आ कर मैने दीदी से साफ साफ पूछ लिया की जो भी बात है बोल दे नहीं तो में अम्मा को आवाज़ लगा रही हूं।मान गई मेरी प्यारी बहन की वो दोनो एक दूसरे पसंद करते हैं। वैसे एक बात बताऊं मैं आपको, पढ़ाई में चाहे थर्ड डिवीजन लाती थी पर बाकी सब में बड़े आराम से हैंडल कर लेती थी। कुछ एक साल भी नही गुजरा था की नीरू को सरकारी जॉब लग गई।बहुत खुश थी वो। हंसती मुस्कुराती नाचती अपने सब काम बड़ी आसानी से निबटा लेती थी।है मेरे ईश्वर उसका आधा ही मुझमें कुछ दे देता। खैर एक दिन पिताजी ने घर में बात चला दी की नीरू की शादी करेंगे। फिर क्या लड़के की तलाश होने लगी।बात सतीश भाई तक भी पहुंची।किसी तरह दोनो ने हिम्मत करके ये तय किया की पिताजी को सब कुछ बता देंगे।और फिर जब पिताजी मान जायेंगे तो मिश्रा जी (सतीश भाई के पिताजी)को भी सब बता देंगे और दोनो को विवाह के लिए मना लेंगे।शाम को जब पिताजी चाय पी रहे थे तो सतीश आए और पिताजी को प्रणाम किया। वैसे पिताजी की नजरों में वे एक अच्छे और बुद्धिमान व्यक्ति थे।दीदी भी ड्राइंग रूम में आ गई।परंतु जैसे ही दोनो ने अपनी चाहत के बारे में पिताजी को बताया, पापा गुस्सा हो गए और।बिना कुछ कहे भीतर चले गए।पापा को अपनी नौकरी करने वाली बेटी के लिए कोई रुतबे दार और उसकी बराबरी का या फिर पद में उससे ऊंचा दामाद चाहिए था।और हमारे सतीश भाई तो ट्यूशन टीचर थे।पिताजी को केसे गवारा गुजरता। उस रात नीरू बहुत रोई पर कोई फायदा नहीं हुआ।उसने पापा की जिद के आगे घुटने टेक दिए।और फिर पापा की पसंद से नीरू का विवाह एक बहुत बड़े घर में हो गया। जीजाजी बहुत बड़े बिज़नेस मेन थे।गाड़ी बंगला दौलत सब कुछ था उनके पास जो पिताजी चाहते थे।नीरू की विदाई हो गई।वो अंतिम दिन था जब नीरू बहुत रोई उसके बाद उसको मैने कभी रोते हुए नहीं देखा,परंतु उसके होठों पर कभी वैसी हंसी भी कभी नहीं दिखाई दी।बस एक मूर्ती बनी हुई जैसे चुपचाप अपने सारे कर्तव्य निभाए जा रही थी। जॉब भी जीजाजी ने उसकी छुड़वा दी थी,कहने लगे सब कुछ तो है घर में फिर क्या जरूरत है तुम्हे जॉब करने की।नीरू का जॉब उसका गुरुर था उसके मेहनती और सफल होने की निशानी थी,पर आश्चर्य की उसने बिना किसी विरोध के इस्तीफा दे दिया। अब तो घर आना भी उसने काम कर दिया था।समय गुजरता गया मेरी भी पढ़ाई पूरी हुई। विश्वविद्यालय में मुझे लेक्चरर के पद पर नौकरी मिल गई थी।मेरी शादी भी कॉलेज के एक प्रवक्ता के साथ तय कर दी गई। में बहुत खुश थी की चलो कम से कम इस बहाने तो नीरू कुछ दिन घर रहने आएगी।पर ऐसा नहीं हुआ नीरू सिर्फ दो दिन के लिए आई अपने पति देव के साथ शादी के सारे काम मैने और मां ने ही निपटाए।नीरू आ कर भी नही आए जैसीथी ना तो वो हंसी ना मजाक और न ही गाना बजाना।ऐसा लगता था मुझे जैसे उसका मन उसके शरीर से निकाल कर किसी ने अलग कर दिया हो। खैर अब तो मेरी शादी कोभी पांच साल बीत चुके हैं कल जब कॉलेज से घर आई तो एक लिफाफा मेरी टेबल पर रखा था।खोल कर दे तो पता चला की मेरा तबादला कानपुर हो गया है।नीरू भी तो कानपुर में थी सो ज्यादा परेशान नहीं हुई में।सोचा दस बारह दिन उसके साथ रह लूंगी ज्वाइनिंग भी कर लूंगी और उसकी मदद से आस पास किराए का घर भी देख लूंगी।में उसके पास अपना कुछ सामान ले कर चली गई।मुझे देख कर उसे अच्छा लगा इतना तो में कह सकती हु पर जताना तो जैसे उसने चीड़ ही दिया था।उतने में जीजाजी घर आ गए और नीरू मशीन की तरह लग गई उनकी सेवा में।बड़ी ही प्यारी और सलीके दार साड़ी हल्की सी ज्वेलरी और पिंक लिपस्टिक में वो एक मूर्ति जेसी लग रही थी जिसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे।और में तो हैरान इस बात से हु की जीजाजी ने कभी कोशिश भी नही की उसे समझने की। बस हांजी हर बात पर उसके मुंह से निकलता था और मेरे जीजा अपने पौरुष पे इतरा जाते थे।बस ऐसे ही दस दिन गुज़र गए ।में समझ चुकी थी की विवाह समाज के द्वारा दो शरीरों को मिलाने की प्रथा का नाम है इसमें मन का कोई अस्तित्व नहीं है।अगर ऊपर वाले की कृपा से मन मिल गए तो समझो लाटरी निकल गई नहीं तो निभाते रहिए बीवी बहु से होते हुए मां बनने तक के सफर को बड़े संयम के साथ। खैर एक दिन ऐसे ही में कॉलेज से शाम को घर आई नीरू ने चाय बनाई और कुछ नाश्ता भी मुझे खाने को दिया और फिर खिड़की के बाहर झांकने लगी।शायद सामने पड़े खाली घर को किसी ने खरीद लिया था।उन लोगों का सामान उतर रहा था। मुझे भी घर मिल गया मेरे भी जाने का समय लगभग आ ही गया था। में जब कॉलेज के लिए निकली तो सामने वाले नए पड़ोसियों के घर से एक बहुत ही प्यारी छोटी सी बच्ची भागती हुई निकली और पीछे उसकी मां उसे निरुपमा,निरुपमा आवाज़ लगाती हुई निकली,मेरे पांव वहीं रुक गए जब मैने रुक कर देखा तो बच्ची हुबहू सतीश भाई से मिल रही थी।जब मैने उन महिला से पूछा तो पता चला की वो सतीश भाई की पत्नी है।सतीश भाई की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई और उनकी जगह उनकी पत्नी को जॉब मिल गई।उसी से वो अपने घर की चलाती है और बच्ची का पालन पोषण करती है। उन्होंने बताया की सतीश भाई ने ही बच्ची का नाम निरुपमा रखा था तथा वे इसे बहुत स्नेह करते थे, अभी एक साल पहले ही सड़क दुर्घटना में ये अनहोनी घट गई ,और उनकी बीवी तबादला हो कर यहां आई हैं l ये बात सुन कर मैं स्तब्ध रह गई की कोई प्यार का मूल्य इस तरह भी चुका सकता है क्या? मैं वापस घर की तरफ मुड़ गई और नीरू को सारी बात बता दी। नीरू मेरे साथ नीचे आई और उस बच्ची को गले से लगा लिया।नीरू की आंखों से आंसू कि धारा बह निकली।ना जाने कितने सालों बाद मेने उसे रोते देखा ।नीरू को फिर से उसकी बिछड़ी हुई निरुपमा मिल गई थी।नीरू देर तक उस बच्ची निरुपमा को सहलाती रही शायद वो सतीश भाई को उसमे महसूस कर पा रही थी।